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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
48. गीता में समता
गीता में अगर कोई प्रभावशाली लक्षण है तो वह है- समता। वह समता किसी भी साधन से आ जाये तो बेड़ा पार है! साधक में एक समता के आने पर गीता दूसरे लक्षणों को देखती ही नहीं; क्योंकि समता साक्षात परमात्मा का स्वरूप है- ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’[1] ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’[2] और समता में ही साधन की पूर्णता है। अतः समता आने पर दूसरे लक्षण अपने-आप आ जाते हैं। अगर किसी मनुष्य में समता नहीं है, पर दूसरे बहुत से लक्षण हैं, तो वह अधूरा है, उसमें पूर्णता नहीं है। समता के बिना दूसरे सब लक्षण- विद्या, योग्यता, आदर, नीरोगता, धन-संपत्ति आदि कुछ नहीं है। वह सब विषमता है। यह समता मनुष्यमात्र को स्वतः प्राप्त है। विषमता तो मनुष्यों की अपनी बनायी हुई है। अतः विषमता कृत्रिम है, प्राकृत है, टिकने वाली नहीं है क्योंकि यह असत्- (शरीर आदि) के संग से पैदा होती है। प्रत्येक क्रिया का आरंभ होता है और समाप्ति होती है। कर्मफल का भी संयोग होता है और वियोग होता है, पर स्वयं ज्यों का त्यों रहता है। यह सबके अनुभव की बात है। संयोग-वियोग तो व्यक्ति, क्रिया और पदार्थों का हुआ, पर स्वयं का कोई संयोग-वियोग नहीं हुआ, वह ज्यों का त्यों ही रहा। संयोगमात्र का वियोग होना अवश्यम्भावी है अर्थात् जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग होगा ही। परंतु जिसका वियोग हुआ है, उसका संयोग होगा- यह नियम नहीं है। अतः संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। अगर इस वियोग पर मनुष्य की हरदम दृष्टि रहे तो मनुष्य में कभी विषमता आ ही नहीं सकती। कारण कि विषमता तो उसमें आयी हुई है और समता उसमें स्वतः सिद्ध है। इसी समता का नाम ‘योग’ है[3] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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