विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
46. गीता में योग और भोग
जीव का परमात्मा के साथ जो स्वय: सिद्ध सम्बंध है, वह 'योग' है और वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि प्राकृत वस्तुओं के साथ जो माना हुआ सम्बंध है, वह 'भोग है। संसार के राग का त्याग होने पर 'योग' होता है और संसार में राग होने से 'भोग' होता है। योग नित्य और भोग अनित्य है। भोजन केवल निर्वाह बुद्धि से किया जाय; भोजन के पदार्थों में राग न हो, खिंचाव न हो, तो ऐसे भोजन से भी 'योग' हो जाता है। परन्तु शरीर पुष्ट हो जाय, बल अधिक हो जाय- इस दृष्टि से तथा स्वाद की दृष्टि से भोजन करने से, भोजन का रस लेने से 'भोग' होता है। तात्पर्य है कि राग-रहित होकर, निर्लिप्ततापूर्वक भोजन करने से पुराना राग मिट जाता है और स्वादबुद्धि, सुखवुद्धि न होने से नया राग पैदा नहीं होता, जिससे 'योग' हो जाता है। रागपूर्वक भोजन करने से पुराना राग पुष्ट होता रहता है और स्वादबुद्धि, सुखबुद्धि होने से नया राग पैदा हो नही होता रहता है, जिससे 'भोग' होता है। सांसारिक वस्तु, पदार्थ आदि के गुण के त्याग से जो सुख होता है, उससे योग होता है[1] और भोग में जो तात्कालिक सुख होता है, उससे बन्धन होता है।[2] एक कहावत है- 'एक गुणा दान, सहस्ररगुणा पुण्य'। फल की इच्छा से एक रुपया दान किया जाय तो हजार गुणा पुण्य होता है अर्थात् हजार रुपयों के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। अत: ऐसा दान सम्बन्धजन्य भोग पैदा करता है। तात्पर्य है कि सकामभाव पूर्वक दिये हुए दान से वर्तमान नें वस्तु आदि का तात्कालिक सम्बन्ध-विच्छेद दीखने पर भी परिणाम में वस्तु आदि का सम्बंध बना रहता है[3] दान देना कर्तव्य है- इस भाव से, प्रत्युपकार की भावना से रहित होकर अर्थात निष्कामभावपूर्वक दान दिया जाय तो वस्तु आदि से सम्बंध-विच्छेद होता है[4] क्योंकि यह त्याग है। त्याग का अनन्तगुणा पुण्य होता है। त्याग से महान् पवित्रता आती है। त्याग से तत्काल योग होता है।[5] योग में संसार का वियोग है[6] और भोग में संसार का योग है।[7] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज