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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
81. गीता में भगवान के विवेचन की विशेषता
गीता में प्राय: भगवान का यह स्वभाव देखने को मिलता है कि अर्जुन जो प्रश्न करते हैं, उसका उत्तर तो भगवान दे ही देते हैं, पर उसके सिवाय भगवान अपनी तरफ से और भी बातें कह देते हैं; जैसे- दूसरे अध्याय के चौवनवें श्लोक में अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के विषय में चार प्रश्न किये, तो भगवान ने उन प्रश्नों का उत्तर देते हुए स्थितप्रज्ञ के वर्णन के साथ-साथ साधकों की बातें अपनी ओर से बतायी। तीसरे अध्याय में अर्जुन ने पूछा कि यदि कर्मों की अपेक्षा ज्ञान हो श्रेष्ठ है तो फिर आप मेरे को घोर कर्म में क्यों लगाते है? उत्तर में भगवान ने बताया कि कर्म कि त्याग से कोई भी सिद्धि नहीं होती। ऐसा कहकर सिद्धि के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता बतायी। फिर ब्रह्मा जी की दृष्टी से सृष्टिचक्र की दृष्टि से, सिद्धों की दृष्टि से, साधकों की दृष्टि से, अपनी दृष्टि से ज्ञानी की दृष्टि से लोक-संग्रह के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता की बात अपनी ओर से बतायी। तीसरे अध्याय के ही छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन ने पूछा कि न चाहते हुए ही बलपूर्वक पाप कराने वाला कौन है? उत्तर में भगवान ने काम (कामना) को पाप कराने वाला वताया और उसको जीतने की, उसके रहने के स्थान की और उसको मारने की बातें अपनी ओर से बतायी। चौथे अध्याय के आरम्भ 'मैने ही यह उपदेश सूर्य को दिया था'- यह बात भगवान ने अपनी ओर से ही कही। इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया, तो उत्तर में भगवान् ने अपने अवतार और कर्मो की बात कहकर कर्मो कि तत्त्व को जानने की और यज्ञों की बहुत-सी बातें अपनी ओर से ही कहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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