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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
73. गीता में सर्वश्रेष्ठ साधन
गीता में परमात्मप्राप्ति के लिये बहुत-से साधन बताये गये है और उनको श्रेष्ठ भी बताया गया है। जिस साधन में साधक की रुचि, विश्वास और योग्यता है, वही साधन उस साधक के लिये श्रेष्ठ है क्योंकि उसी साधन को करने से उसको परमात्मा की प्राप्ति हो होती है। गीता में जहाँ-कहीं जिस-किसी साधन को श्रेष्ठ बताया गया है, वह श्रेष्ठता वहाँ के प्रसंग या अधिकार को लेकर बतायी गयी है। बहुत-से साधनों के श्रेष्ठ होने पर भी भगवान ने सर्वश्रेष्ठ साधन भक्ति को माना है। गीता के अनुसार कर्म न करने की अपेक्षा अपने कर्तव्य का पालन करना श्रेष्ठ है[1]; क्योंकि जब तक मनुष्य का प्रकृति (शरीर) के साथ सम्बन्ध है, तब तक वह कर्म किये बिना नहीं रह सकता। वह शरीर, मन और वाणी से कुछ-न-कुछ नहीं करेगा तो अकर्तव्य करेगा, विपरीत काम करेगा, जिससे वह बँध जायगा। अत: कर्म न करने की अपेक्षा कर्तव्य-कर्म करना श्रेष्ठ है। शास्त्रों ने वर्णाश्रम के अनुसार जिस मनुष्य के लिये जिस कर्म को करने की आज्ञा दी है, उसके लिये वह स्वधर्म है; और जिस मनुष्य के लिये उस कर्म को करने का निषेध किया है, उसके लिये वह परधर्म है। अधिक गुणों वाले परधर्म की अपेक्षा गुणों की कमी वाला भी अपना धर्म (स्वधर्म) श्रेष्ठ है। अपने धर्म का पालन करने से मनुष्य को पाप नहीं लगता और अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाय तो भी अपना धर्म कल्याण करने वाला है।[2] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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