गीता दर्पण -रामसुखदास पृ. 426

गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास

97. गीता पाठ की विधियाँ

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वाञ्छन्ति पठिन्तु गीतां क्रमेण विक्रमेण वा ।
तदर्थ विधयः प्रोक्ताः करन्यासादिना सह ।।

मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह जब अति रुचिपूर्वक कोई कार्य करता है, तब वह उस कार्य में तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है। ऐसा स्वभाव होने पर भी वह प्रकृति और उसके कार्य- (पदार्थों, भोगों) के साथ अभिन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वह इनसे सदा से ही भिन्न है। परंतु परमात्मा के नाम का जप, परमात्मा का चिंतन, उसके सिद्धांतों का मनन आदि के साथ मनुष्य ज्यों-ज्यों अति रुचिपूर्वक संबंध जोड़ता है, त्यों-ही-त्यों वह इनके साथ अभिन्न हो जाता हो जाता है, इनमें तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है; क्योंकि वह परमात्मा के साथ सदा से ही स्वतः अभिन्न है। अतः मनुष्य भगवच्चिन्तन करे; भगवद्भविषयक ग्रंथों का पठन-पाठन करे; गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रंथों का पाठ, स्वाध्याय करे, तो अति रुचिपूर्वक तत्परता से करे, तल्लीन होकर करे, उत्साहपूर्वक करे। यहाँ गीता का पाठ करने की विधि बतायी जाती है।

गीता का पाठ करने के लिए कुश का, ऊन का अथवा टाटका आसन बिछाकर उस पर पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए। गीता पाठ के आरंभ में इन मंत्रों का उच्चारण करे-

ऊँ अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य भगवान् वेदव्यास ऋषिः।
अनुष्टुप् छंदः। श्रीकृष्णः परमात्मा देवता।।
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्राज्ञावादांश्च भाष से इति बीजम्।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इति शक्तिः।।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकम्।।

इन मंत्रों की व्याख्या इस प्रकार-

जैसे माला में अनेक मणियाँ अथवा पुष्प पिरोये जाते हैं, ऐसे ही भगवान् के गाये हुए जितने श्लोक अर्थात् मंत्र हैं, वे सभी श्रीमद्भगवद्गीतारूपी माला की मणियाँ हैं। इस श्रीमद्भगवद्गीता रूपी माला के मंत्रों के द्रष्टा अर्थात् सबसे पहले इन मंत्रों का साक्षात्कार करने वाले ऋषि भगवान् वेदव्यास हैं- ‘ऊँ अस्य श्रीमद्भगवद्गीता मालामन्त्रस्य भगवान् वेदव्यास ऋषिः

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता दर्पण -रामसुखदास
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. गीता के प्रत्येक अध्याय का तात्पर्य 1
2. गीता संबंधी प्रश्नोत्तर 13
3. गीता में ईश्वरवाद 35
4. गीता में श्रीकृष्ण की भगवत्ता 42
5. गीता में अवतारवाद 45
6. गीता में मूर्ति-पूजा 51
7. गीता में भगवन्नाम 66
8. गीता में फलसहित विविध उपासनाओं का वर्णन 80
9. गीता में आहारी का वर्णन 102
10. गीता में भगवान् की उदारता 117
11. गीता में भगवान् की न्यायकारिता और दयालुता 122
12. गीता में भगवान् का विविध रूपों में प्रकट होना 125
13. गीता में धर्म 129
14. गीता में सनातनधर्म 131
15. गीता और गुरु तत्व 133
16. गीता और गुरु तत्व 134
17. गीता और वेद 138
18. गीता में जाति का वर्णन 140
19. गीता में चार आश्रम 143
20. गीता में सैनिकों के लिये शिक्षा 145
21. गीता में भगवान की शक्तियाँ 147
22. गीता में विभूति वर्णन 149
23. गीता में विश्वरूप-दर्शन 153
24. गीता में सृष्टि-रचना 155
25. गीता में जीव की गतियाँ 159
26. गीता में मनुष्यों की श्रेणियाँ 163
27. गीता में श्रद्धा 167
28. गीता में देवताओं की उपासना 170
29. गीता में प्राणिमात्र के प्रति हित का भाव 173
30. गीता में एक निश्चय की महिमा 177
31. गीता में द्विध सत्ता का वर्णन 179
32. गीता में द्विविधा की इच्छा 183
33. गीता में त्रिविध वक्षु 186
34. गीता में त्रिविध रतियाँ 188
35. गीता में विविध विद्याएँ 190
36. गीता और संसार में रहने की विद्या 167
37. गीता में विविध आज्ञाएँ 197
38. गीता में विभिन्न मान्यताएँ 200
39. गीता में स्वाभाविक और नये परिवर्तम का वर्णन 206
40. गीता में स्वभाव का वर्णन 208
41. गीता में दैवी और आसुरी सपत्ति 209
42. गीता का योग 216
43. गीतोक्त योग के सब अधिकारी 223
44. गीता में तीनों योगों की समानता 227
45. गीता में तीनों योगों की महत्ता 230
46. गीता में योग और भोग 235
47. गीता में बंध और मोक्ष का स्वरूप 237
48. गीता में समता 244
49. गीता में क्रिया, कर्म और भाव 247
50. गीता में कर्म की व्यापकता 250
51. गीता में ‘यज्ञ’ शब्द की व्यापकता 252
52. गीता में लोकसंग्रह 256
53. गीतोक्त प्रवृत्ति और आरम्भ 261
54. गीता में त्याग का स्वरूप 263
55. गीता में निर्द्वन्द्व होने की महत्ता 268
56. गीता में अहंता ममता का त्याग 271
57. गीता में कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निषेध 276
58. गीता में गुणों का वर्णन 284
59. गीता में परमात्मा और जीवात्मा का स्वरूप 292
60. गीता में परमात्मा और जीवात्मा का स्वरूप 297
61. गीता में सत्, चित् और आनन्द 298
62. गीता में अष्टांगयोग का वर्णन 301
63. गीता में द्विविधा भक्ति 303
64. गीता में नवधा भक्ति 167
65. गीता में भक्तियोग की मुख्यता 306
66. गीता का आरंभ और पर्यवसान शरणागति में 308
67. गीता में आश्रय वर्णन 310
68. गीता में भगवान्‌ का आश्वासन 313
69. गीता में सगुणोपासना के नौ प्रकार 314
70. गीता का गोपनीय विषय 317
71. गीता में साधकों की दो दृष्टियाँ 320
72. गीता में साध्य औ साधन की सुगमता 322
73. गीता में सर्वश्रेष्ठ साधन 324
74. गीता में प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक साधन 327
75. गीता में सिद्धों के लक्षण 330
76. गीता में भगवान और महापुरुष का साधर्म्य 332
77. गीता का तात्पर्य 334
78. गीता में संवाद 336
79. गीता में अर्जुन द्वारा स्तुति, प्रार्थना और प्रश्न 337
80. गीता में अर्जुन की युक्तियाँ और उनका समाधान 339
81. गीता में भगवान के विवेचन की विशेषता 342
82. गीता में भगवान् की विषय प्रतिपादन शैली 345
83. गीता में भगवान की वर्णन-शैली 353
84. गीतोक्त अन्वय व्यतिरेक वाक्यों का तात्पर्य 354
85. गीता में आये परस्पर विरोधी पदों का तात्पर्य 360
86. गीता में आये समान चरणों का तात्पर्य 372
87. गीता में आये समानार्थक पदों का तात्पर्य 386
88. गीता में आये पुनरुक्त समानार्थक वाक्यों का तात्पर्य 398
89. गीता में आये विपरीत क्रम का तात्पर्य 402
90. गीता में आये ‘मत्तः’ पद का तात्पर्य 408
91. गीता में आये ‘अवशः’ पद का तात्पर्य 410
92. गीता में आये ‘तत्त्वतः’ पद का तात्पर्य 412
93. गीता में ‘यत्’ शब्द के दो बार प्रयोग का तात्पर्य 415
94. गीता में आये 'कृत्वा', 'ज्ञात्वा' और 'मत्वा' पदों का तात्पर्य 418
95. गीता में 'तत्' और 'अस्मत्‌' पद से भगवान का वर्णन 420
96. गीता पर विहंगम दृष्टि 422
97. गीता पाठ की विधियाँ 426
98. गीतोक्त श्लोकों के अनुष्ठान की विधि 432
99. गीता में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति की अलिंगता 435
100. गीता का अनुबंध चतुष्टय 437
101. गीता का षड्लिंग 438
102. गीता में काव्यगत विशेषताएँ 440
103. गीता में अलंकार 444
104. गीता में अभिधा आदि शक्तियों का वर्णन 447
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें 449
106. गीता के छन्द 495
107. गीता में आर्ष प्रयोग 509
108. गीता का परिणाम और पूर्ण शरणागति 513

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