विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
63. गीता में द्विविधा भक्ति
भगवान् ने गीता में अपनी भक्ति के कई प्रकार बताते हुए भी मुख्यता से दो प्रकार बताये हैं- भक्ति का पहला प्रकार वह है, जिसमें क्रिया भी भगवद्विषयक है और भाव भी भगवद्विषयक है; जैसे- जप-ध्यान, पाठ-पूजा, सत्संग स्वाध्याय, भगवत्संबंधी ग्रंथों का पठन-पाठन, श्रवण मनन आदि सभी क्रियाएँ भगवत्संबंधी हैं और उनको करने में भगवद्भाव है ही।[1] भक्ति का दूसरा प्रकार वह है, जिसमें क्रिया तो सांसारिक है, पर भाव भगवद्विषयक है; जैसे- अपने-अपने वर्णन आश्रम के अनुसार कर्तव्य का पालन आदि ‘जीविका-संबंधी’ क्रियाएँ हैं, तथा खाना-पीना, उठना बैठाना, चलना फिरना, सोना-जागना, हँसना-बोलना आदि ‘शरीर-संबंधी’ क्रियाएँ हैं, पर उनको करने में भाव भगवत्- प्रसन्नता का भगवत्पूजन का है,[2] आदि। तात्पर्य यह हुआ कि भक्ति के उपर्युक्त दोनों प्रकारों की क्रियाओं में अंतर- भिन्नता है अर्थात् एक की क्रिया भगवत्संबंधी है और दूसरे की क्रिया संसार-संबंधी है, पर दोनों ही क्रियाएँ भगवदर्थ होने से, भगवान् की प्रसन्नता के लिए होने से दोनों का भाव एक ही है। क्रियाएँ चाहे भगवत्संबंधी हों, चाहे संसार-संबंधी हों, पर सांसारिक आकर्षण न होने से, केवल भगवान् में आकर्षण होने से दोनों ही प्रकार की भक्ति भगवान् में एक हो जाती है। जैसे सबकी भूख एक होती है और भोजन के बाद तृप्ति भी एक होती है, पर भोजन की रुचि सबकी अलग-अलग होती है। ऐसे ही दोनों प्रकार के भक्तों का उद्देश्य आरंभ में एक भगवत्प्राप्ति का ही रहने से अंत में प्राप्ति भी दोनों को एक ही होती है, पर साधनों में अंतर रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज