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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
72. गीता में साध्य औ साधन की सुगमता
गीता में साधकों की दृष्टि से साध्य के दो भेद माने जा सकते हैं- 1. सगुण- सगुण की उपासना में अनन्यभाव की मुख्यता होती है। अनन्यभाव वाले भक्तों के लिए भगवान् सुलभ हैं। वह अनन्यभाव क्या है? अन्य का न होना। अन्य क्या है? भगवान् के सिवाय धन, संपत्ति, वैभव, घटना, परिस्थिति, स्त्री, पुत्र, परिवार, मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर आदि जो कुछ भी है, वह सब ‘अन्य’ है। उन सबसे विमुख होकर अर्थात् उनके आश्रय का, महत्त्व का, प्रियता का त्याग करके केवल भगवान् के सम्मुख हो जाना, भगवान् की शरण हो जाना और उनमें ही महत्त्व, प्रियता का हो जाना ‘अनन्यभाव’ है। मैं भगवान् का ही हूँ और भगवान् ही मेरे हैं, मैं संसार का नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है- इस तरह अपनी कहलाने वाली वस्तु, शरीर आदि को और अपने-आपको भी भगवान् के अर्पण कर देना ‘अनन्यभाव’ है। अनन्यभाव से भगवान् सुलभ हो जाते हैं,[1] भक्तों के योगक्षेम का वहन करते हैं,[2] भक्तों का बहुत जल्दी मृत्युरूपी संसार सागर से उद्धार कर देते हैं।[3] इसी अनन्यभाव से भक्त भगवान् को देख सकते हैं, जान सकते हैं और प्राप्त कर सकते हैं।[4] इसलिए भगवान् कहते हैं कि तुम मेरे में ही मन और बुद्धि को लगा दो, फिर तुम मेरे में ही निवास करोगे[5]; तुम मेरे में ही मन और बुद्धि को अर्पण कर दो, फिर तुम निःसंदेह मेरे को प्राप्त हो जाओगे[6] 2. निर्गुण- निर्गुण की उपासना में विवेक की मुख्यता होती है। इसमें विवेकपूर्वक जड़ता का त्याग होता है। निर्गुणोपासक को भी परमात्मतत्त्व की प्राप्ति सुगमता से हो जाती है।[7] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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