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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
96. गीता पर विहंगम दृष्टि
गीता का अठारहवाँ अध्याय ही पूरी गीता का सार है। इसमें भगवान द्वारा पहले कहे हुए विषयों का उपसंहार किया गया है, जिसमें तीन बातें विशेषता से मालूम देती है-
भगवान् के उपदेश में मुख्यता से दो निष्ठाओं का ही वर्णन हुआ है, जिनका भगवान् ने ‘ऐषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु’[1] पदों में संकेत रूप से और ‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा.... ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्’[2] पदों में स्पष्ट रूप से वर्णन किया है। उन्हीं दो निष्ठाओं को तत्त्व से जानने के लिए अर्जुन ने अठारहवें अध्याय के आरंभ में प्रश्न किया। अतः उन्हीं दो निष्ठाओं में आये हुए विषयों का इस अठारहवें अध्याय में संक्षेप से, विस्तार से अथवा प्रकारान्तर से उपसंहार किया गया है। जिस भगवद्भक्ति का सातवें से बारहवें अध्याय तक विशेषता से वर्णन हुआ है, वह भगवान् के अपने हृदय की बात है और दोनों निष्ठाओं से विलक्षण है। वह सांख्यनिष्ठा या योगनिष्ठा नहीं है, प्रत्युत भगवन्निष्ठा है, जिसमें केवल भगवत्परायणता है। इसी भगवन्निष्ठा के वर्णन में भगवान् ने अपने उपदेश का उपसंहार किया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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