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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
24. गीता में सृष्टि-रचना
गीता में सृष्टि-रचना का वर्णन चार प्रकार से हुआ है, जो इस तरह है- 1. महासर्ग-ब्रह्मा जी की और सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति महासर्ग में होती है। यह महासर्ग भगवान के संकल्प से होता है। भगवान का संकल्प क्यों होता है? महाप्रलय में सम्पूर्ण जीव अपने-अपने कर्मो के संस्कारो कि साथ कारण शरीर सहित प्रकृति में लीन होते हैं और प्रकृति उन सम्पूर्ण प्राणियों सहित भगवान में लीन होती है। प्रकृति में लीन हुए उन प्राणियों के कर्म जब परिफ्क्व होकर फल देने के लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब भगवान में 'बहु स्यां प्रजायेय'[1] 'मैं अकेला ही बहुत हो जाऊँ'- ऐसा संकल्प होता है। ऐसा संकल्प होते ही भगवान अपनी प्रकृति को स्वीकार करने ब्रह्मा जी की[2], सम्पूर्ण जीवों के शरीरों की सम्पूर्ण लोकों की रचना करते हैं। परंतु रचना-रूप से परिणति तो प्रकृति में ही होती है अर्थात सम्पूर्ण जीवों के शरीरों का निर्माण तो प्रकृति से ही होता है। इसलिये भगवान ने गीता में दो बाते कही हैं कि मैं महासर्ग प्राणियों के शरीरों का निर्माण करता हूँ तो प्रकृति को स्वीकार करके ही करता हूँ।[3] और प्रकृति प्राणियों के शरीरों का निर्माण करती है तो मेरी अध्यक्षता से अर्थात मेरे से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही करती है।[4] महासर्ग वर्णन गीता में दूसरी जगह इस प्रकार आया है- [5]मैंने सूर्य से कहा था' और तीसरे श्लोक में 'वही यह पुरातन [6] योग मैंने आज तुमसे कहा है' ऐसा कहकर भगवान ने महासर्ग का वर्णन किया है। चौथे अध्याय के ही तेरहवें श्लोक में भगवान के द्वारा गुणों और कर्मो के अनुसार चारों वर्णों की रचना की बात आयी है, जो कि महासर्ग का समय है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (तैत्तिरीय. 2।6)
- ↑ कभी तो भगवान् स्वयं ब्रह्मा रूप से प्रकट होते हैं और कभी जीव अपने-पुण्य कर्म के कारण ब्रह्मा बन जाता है।
- ↑ (9।7-8)
- ↑ (9।10)
- ↑ चौथे अध्याय के पहले श्लोक में 'यह अविनाशी योग पहले (महासर्ग के आदि में)
- ↑ (महासर्ग के आदि में कहा हुआ)
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