गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
17. गीता और वेद
वेद नाम ज्ञान का है[1]। उस ज्ञान से ही सबका व्यवहार चलता है, सबका हित होता है अर्थात् साधारण व्यवहार से लेकर गोक्ष तक उसी ज्ञान से सिद्ध होता है। वही ज्ञान संसार में ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद- इन चार संहिताओं के रूप में प्रसिद्ध है। पुराणों, स्मृतियों, इतिहासों आदि में तथा अलग-अलग सम्प्रदायों में अनेक रूपों से जो कुछ ज्ञान मिलता है, वह सब ज्ञान मूल में वेद का ही है। अत: उस ज्ञान का कोई खण्डन (निरादर) कर ही नहीं सकता। यदि कोई उसका खण्डन करता है तो वह वास्तव में खुद का ही खण्डन (निरादर) करता है। भगवान ने गीता में वेदों का बहुत आदर किया है। भगवान ने कहा है कि जिनसे लौकिक और परमार्थिक सिद्धि होती है, उन सब कर्मों की विधि का ज्ञान वेदों से ही होता है- 'कर्म ब्रह्मोद्धवम्' [2]; बहुत से यज्ञ अर्थात परमात्म प्राप्ति के साधन वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं- 'एवं बहुविधा यज्ञा विवता ब्रह्मणो मुखे'[3] भगवान ने अपने लिये भी कहा है कि ऋक, साम और यजु: मैं ही हू- 'ऋक्साम यजुरेव च'[4] वेदों में सामवेद मेरा स्वरूप है- 'वेदानां सामवेदोऽस्मि'[5] वेदों की माता गायत्री मेरा ही स्वरूप है- 'गायत्री छन्दसामहम्'[6] संपूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ अर्थात् चारों वेदों में मेरे ही स्वरूप का प्रतिपादन है तथा वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ- ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्’[7]; शास्त्रों में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से मैं ही प्रसिद्ध हूँ- ‘अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः’[8] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'वेद' शब्द 'विद ज्ञाने' धातु से बना है।
- ↑ (3।15)
- ↑ (4।32)
- ↑ (9।17)
- ↑ (10।22)
- ↑ (10।35)
- ↑ (15।15)
- ↑ (15।18)
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