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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
30. गीता में एक निश्चय की महिमा
जीवात्मा में एक तो परमात्मा का अंश है और एक प्रकृति का अंश है। जब यह जीवात्मा परमात्मा को लेकर चलता है, तब इसमें व्यावसायित्मका (एक निश्चयवाली) बुद्धि एक होती है और जब यह प्रकृति के अंश शरीर-संसार को लेकर चलता है, तब इसमें अव्यवसायात्मिका बुद्धियाँ अनन्त होती हैं।[1] तात्पर्य है कि पारमार्थिक साधक का ‘मेरे को तो परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है, चाहे जो हो जाय’- इस तरह का एक ही निश्चय होता है। परंतु जो सांसारिक धन-संपत्ति का संग्रह करना और भोग भोगना चाहते हैं, ऐसे मनुष्यों का परमात्म प्राप्ति का एक निश्चय होता ही नहीं, प्रत्युत सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिए अनन्त विचार होते हैं। इसका कारण यह है कि प्रापणीय परमात्मा एक ही हैं अतः उनकी प्राप्ति का निश्चय भी एक ही होता है। सांसारिक भोग अनेक हैं तथा उनको भोगने के साधन (धन संपत्ति आदि) भी अनेक हैं। अतः उनकी प्राप्ति का निश्चय भी एक नहीं होता। परमात्मा के सगुण, निर्गुण आदि स्वरूपों का भेद होने पर भी वे सभी स्वरूप तत्त्वतः एक ही हैं और नित्य हैं। अतः उनमें किसी एक स्वरूप की प्राप्ति का जो निश्चय होता है वह भी एक ही होता है। परमात्मप्राप्ति का एक निश्चय होने पर सभी साधन सुगम हो जाते हैं, सरल हो जाते हैं और उद्देश्य की सिद्धि के लिए तत्परता भी स्वतः हो जाती है। जैसे, कोई अपने को ईश्वर का भक्त मानता है, तो ईश्वर की भक्ति करना उसके लिए स्वाभाविक हो जाता है अर्थात भक्ति की बात तो वह तत्काल पकड़ लेता है और भक्ति की विरोधी बात वह तत्काल छोड़ देता है। कारण कि वह यही सोचता है कि मैं भक्त हूँ, इसलिए भक्ति विरुद्ध काम मुझे नहीं करना है। परंतु जिसका लक्ष्य संसार है, उसमें कभी किसी की तो कभी किसी की नयी-नयी इच्छा पैदा होती रहती है। उन इच्छाओं का कभी अंत नहीं आता क्योंकि ज्यों-ज्यों इच्छाओं की पूर्ति होती है, त्यों ही त्यों नयी-नयी इच्छाएँ उत्पन्न होती चली जाती हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।41)
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