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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
58. गीता में गुणों का वर्णन
दूसरे अध्याय के ग्यारहवें से तीसवें श्लोक तक भगवान् ने सत् की महिमा बताने के लिए और असत् से अलग होने के लिए सत्-असत् का वर्णन किया है। ऐसे ही दूसरे अध्याय के उनतालीसवें से तिरपनवें श्लोक तक भगवान् ने निष्कामभाव की महिमा बताने के लिए और कामना का त्याग करने के लिए व्यवसायी (निष्काम) और अव्यवसायी (सकाम) मनुष्यों का वर्णन किया। वेदों में वर्णित भोग और ऐश्वर्य को प्राप्त करने में लगे हुए मनुष्य अव्यवसायी हैं। वेदों के जिस भाग में भोग और ऐश्वर्य का वर्णन हुआ है, उस भाग को ‘त्रैगुण्यविषयाः’[1] कहा गया है। उस भोग और ऐश्वर्य से हटाकर अर्जुन को व्यवसायी (निष्काम) बनाने के लिए भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! तू तीनों गुणों के कार्यरूप संसार से अर्थात् भोग और ऐश्वर्य से अलग हो जा- ‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’[2] प्रकृति के परवश हुए प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं, जिससे उनको क्रिया करनी ही पड़ती है अर्थात् वे कर्म किए बिना नहीं रह सकते- ‘कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः’[3] प्रकृति के गुणों के द्वारा ही संपूर्ण क्रियाएँ होती हैं- ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’[4] अर्थात् स्वयं का इन क्रियाओं के साथ कोई संबंध नहीं है। परंतु अहंकार से मोहित अंतःकरण वाला मनुष्य अपने को कर्ता मान लेता है; अतः वह बँध जाता है। गुणों और कर्मों के विभाग[5] को जानने वाला मनुष्य ‘गुण ही गुणों में बरत रहे हैं’- ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’[6] अर्थात् सब परिवर्तन गुणों में ही हो रहा है, क्रिया और कर्तापन केवल गुणों में ही है, अपने में नहीं- ऐसा जानकर उनमें आसक्त नहीं होता; अतः वह बंधन से छूट जाता है। परंतु गुणों से मोहित हुआ पुरुष उनमें आसक्त होने से बंध जाता है- ‘प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मेसु’[7] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।45)
- ↑ (2।45)
- ↑ (3।5)
- ↑ (3।27)
- ↑ गुणों का कार्य होने से शरीर-इंद्रियाँ मन बुद्धि आदि सब 'गुण विभाग है और इन शरीरादि से होने वाली क्रिया 'कर्म विभाग' है।
- ↑ (3।28)
- ↑ (3।29)
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