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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
15. गीता में ज्योतिष
ज्योतिष में काल मुख्य है अर्थात् काल को लेकर ही ज्योतिष चलता है। उसी काल को भगवान् ने अपना स्वरूप बताया है कि ‘गणना करने वालों में मैं काल हूँ’- ‘कालः कलयतामहम्’[1] उस काल की गणना सूर्य से होती है। इसी सूर्य को भगवान् ने ‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’[2] कहकर अपना स्वरूप बताया है। सत्ताईस नक्षत्र होते हैं। नक्षत्रों का वर्णन भगवान् ने ‘नक्षत्राणामहं शशी’[3] पदों से किया है। इनमें से सवा दो नक्षत्रों की एक राशि होती है। इस तरह सत्ताईस नक्षत्रों की बारह राशियाँ होती हैं। उन बारह राशियों पर सूर्य भ्रमण करता है अर्थात् एक राशि पर सूर्य एक महीना रहता है। महीनों का वर्णन भगवान् ने ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहम्’[4] पदों से किया है। दो महीनों की एक ऋतु होती है, जिसका वर्णन ‘ऋतूनां कुसुमाकरः’ पदों से किया गया है। तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। अयन दो होते हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन जिनका वर्णन आठवें अध्याय के चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में हुआ है। इन दोनों अयनों को मिलाकर एक वर्ष होता है। लाखों वर्षो का एक युग होता है[5] जिसका वर्णन भगवान् ने ‘सम्भवामि युगे युगे’[6] पदो से किया है। ऐसे चार (सत्य, त्रेता) |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (10।30)
- ↑ (10।21)
- ↑ (10।21)
- ↑ (10।35)
- ↑ सत्रह लाख अट्टाईस हजार वर्षों का ‘सत्ययुग’, बारह लाख छियानबे हजार वर्षों का ‘त्रेतायुग’, आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का ‘द्वापर युग’ और चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का ‘कलियुग’ होता है।
- ↑ (4।8)
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