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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
12. गीता में भगवान् का विविध रूपों में प्रकट होना
अवतार के समय भगवान् मुप्तरूप से रहते हैं और सबके सामने अपने-आपको भगवद्रूप से प्रकट नहीं करते।[1] परंतु अर्जुन के भाव को देखते हुए उनके सामने भगवान् गीता में कृपा पूर्वक अनेक रूपों में प्रकट होते हैं जैसे- भक्त मेरे से जो काम कराना चाहता है और मेरे को जिस रूप में देखना चाहता है, मैं वही काम करता हूँ और उसके भाव के अनुसार वैसा ही बन जाता हूँ- इस प्रकार अपने को भक्तों के अधीन बताने के लिए भगवान् पहले अध्याय में अर्जुन के सामने ‘सारथि’ रूप से प्रकट होते हैं।[2] जो मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्-असत् आदि के विषय में उलझा हो, स्वयं कोई निर्णय नहीं कर पा रहा हो, वह मेरी शरण होकर मेरे को पुकारे तो मैं उसको सब बता देता हूँ, उसकी उलझन को सुलझाता देता हूँ- यह बात बताने के लिए भगवान् दूसरे अध्याय में किंकर्तव्यविमूढ़ और शरमापन्न अर्जुन के सामने ‘गुरु’- रूप से प्रकट होते हैं।[3] परिस्थिति के अनुसार मैं जिस वर्ण में प्रकट होता हूँ और जिस आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि) में रहता हूँ, उसी के अनुसार कर्तव्य का पालन करता हूँ- यह बात बताने के लिए भगवान् तीसरे अध्याय में अर्जुन के सामने ‘आदर्श’ रूप से प्रकट होते हैं।[4] मैं चाहे गुणों और कर्मों के अनुसार प्राणियों की रचना करूँ, चाहे सूर्य आदि को उपदेश देने वाला बनूँ, चाहे अवतार लेकर धर्म की स्थापना, दुष्टों का विनाश और भक्तों की रक्षा करूँ, चाहे पुत्र रूप से माता-पिता की आज्ञा का पालन करूँ, चाहे मात्र प्राणियों का मालिक बनूं, पर मेरी ईश्वरता में कुछ भी फर्क नहीं पड़ता- यह बात बताने के लिए भगवान् चौते अध्याय में अर्जुन के सामने ‘ईश्वर’- रूप से प्रकट होते हैं।[5] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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