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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
102. गीता में काव्यगत विशेषताएँ
(क)काव्य की रचना जिस सांसारिक धन की प्राप्ति के लिए की जाती है, वह धन केवल जीवन निर्वाह के लिए सहायक होता है। उस धन से तृष्णा, कामना नहीं मिटती। कितना ही धन क्यों न मिल जाय, फिर भी आपूर्ति (कमी) ही रहती है, पूर्ति कभी होती ही नहीं। परंतु गीता के उपदेश को जीवन में उतारने से संतोषरूपी महान् धन की प्राप्ति हो जाती है- ‘यदृच्छालाभसंतुष्टः’,[1] ‘संतुष्टः सततं योगी’,[2] ‘संतुष्टो येन केनचित्’[3] फिर धन की आशा, तृष्णा, कामना आदि दोष सदा के लिए मिट जाते हैं- ‘विहाय कामान्यः सर्वन्पुमांश्चरति निःस्पृहः’[4] सदा के लिए अभाव मिट जाता है और पूर्ति हो जाती है। काव्य सांसारिक व्यवहार जानने के लिए उपयोगी होता है। सांसारिक व्यवहार में स्वार्थ, पक्षपात, काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या आदि दोष रहते हैं, जो वास्तविक उन्नति में बाधक होते हैं। परंतु गीता के अनुसार जीवन बनाने से स्वार्थ, पक्षपात, काम, क्रोध आदि दोष मिटकर मनुष्य का जीवन सर्वथा निर्मल हो जाता है। फिर उसके द्वारा जो कुछ भी व्यवहार होता है, वह सर्वथा निर्दोष होता है। उसमें समता आ जाने से वह सबमें एक समरूप परमात्मा को ही देखता है- ‘पंडिताः समदर्शिनः’,[5] पर उसका व्यवहार सबके साथ यथायोग्य ही होता है। उसके व्यवहार से प्राणिमात्र का हित होता है– ‘सर्वभूतहिते रताः’[6] तात्पर्य है कि काव्य से जीवन में इतनी निर्मलता नहीं आती, जितनी निर्मलता गीता के अनुसार चलने से आती है। काव्य दुःखों के नाश के लिए और सुख प्राप्ति के लिए बनाया जाता है; परंतु काव्य की रचना करने से, उसको पढ़ने-पढ़ाने से सब दुःखों का नाश नहीं होता और सदा रहने वाला सुख भी नहीं मिलता। हाँ, इष्टदेव की स्तुति प्रार्थना से तात्कालिक शांति मिलती है और रोग आदि भी दूर होते हैं, पर सर्वथा दुःख निवृत्ति और निरतिशय सुख की प्राप्ति नहीं होती। परंतु गीता के अनुसार चलने वाले को रोग, अपमान आदि का दुख कभी होता ही नहीं। उसको सदा रहने वाले परम सुख की प्राप्ति हो जाती है- ‘सुखमक्षयमश्रुते’,[7] ‘सुखमात्यन्तिकम्’,[8] ‘अत्यंत सुखमश्रुते’[9] गीता का पाठ करने से, मनन करने से प्रत्यक्ष शांति मिलती है, हृदय की हलचल मिटती है, हृदय की शंकाएँ मिट जाती हैं और समाधान हो जाता है। गीता का अध्ययन करने मात्र से भगवान् अपने को ज्ञानयज्ञ से पूजित मानते हैं।[10] गीता को सुनने मात्र से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त होकर वैकुण्ठ, साकेत, गोलोक आदि लोकों को प्राप्त हो जाता है।[11] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (4।22)
- ↑ (12।14)
- ↑ (12।19)
- ↑ (2।71)
- ↑ (5।18)
- ↑ (5।25; 12।4)
- ↑ (5।21)
- ↑ (6।21)
- ↑ (6।28)
- ↑ (18।70)
- ↑ (18।71)
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