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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
102. गीता में काव्यगत विशेषताएँ
(क)काव्य में स्नेहपूर्वक, प्यार से उपदेश दिया जाता है। गीता ‘प्रभुसम्मित वाक्य[1] होते हुए भी इसमें अर्जुन को बड़े प्यार से घबराकर भगवान् से पूछते हैं कि अंतकाल में किसी कारणवश साधन से विचलित मन हुआ साधक छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता है,[2] तो भगवान् बड़े प्यार से कहते हैं कि ‘हे प्यारे! कल्याणकरी काम करने वाले किसी भी मनुष्य की दुर्गति नहीं होती’- ‘न हि कल्याणकृत्ककश्चिद् तात् गच्छति’[3] जो योग (समता) को प्राप्त करना चाहता है, वह भी वेदों में कहे हुए सकाम अनुष्ठानों का अतिक्रमण कर जाता है, फिर योगभ्रष्ट का तो कहना ही क्या है!- ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’[4] गीतोपदेश के अंत में भगवान् कहते हैं कि तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में मनवाला हो जा, मेरा ही पूजन कर और मेरे को ही नमस्कार कर, फिर तू मेरे को ही प्राप्त हो जाएगा, ऐसी मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरे को अत्यंत प्यारा है।[5] तू संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरण प्राप्त कर; मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिंता मत कर।[6] तात्पर्य है कि काव्य से केवल सांसारिक लाभ होता है जो अनित्य है, ठहरने वाला नहीं है। परंतु गीता का पठन-पाठन, श्रवण-श्रावण, विचार-मनन, अनुष्ठान करने से कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। इससे उस पारमार्थिक लाभ की प्राप्ति होता है, जिससे बढ़कर दूसरा कोई लाभ है ही नहीं[7] क्योंकि वह पारमार्थिक लाभ नित्य है, सदा रहने वाला है। संसार में जितने भी काव्य हैं, साहित्य हैं, उन सबसे गीतारूप ग्रंथ श्रेष्ठ है। कारण कि गीता में इतनी विलक्षणता है कि हरेक संप्रदायवाला, भाषावाला, देशवाला मनुष्य इस पर मुग्ध हो जाता है, इसी ओर आकृष्ट हो जाता है और उसको गीता से पारमार्थिक लाभ होता है। गीता स्वयं भगवान् की वाणी है। आज तक गीता पर जितनी टीकाएँ लिखी गयी हैं, उनती टीकाएं अन्य किसी भी ग्रंथ पर नहीं लिखी गयी है। अतः यह सबसे अधिक आदरणीय है। जिस काव्य में भगवान् और उनके चरित्रों का वर्णन होता है, उसके पठन-पाठन आदि से भी मनुष्यों का कल्याण होता है। परंतु कल्याण होने से महिमा भगवान् और उनके चरित्रों की ही है, काव्य की नहीं। इसके सिवाय दूसरे काव्य सुंदर हो सकते हैं और उनको पढ़ने से तात्कालिक प्रसन्नता भी हो सकती, पर उनसे कल्याण नहीं होता। कारण कि उन काव्यों का प्रयोजन सांसारिक होता है। अतः उनसे होने वाला लाभ सीमित ही होता है, असीम नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वाक्य तीन तरह का होता है- प्रभुसम्मित, मित्रसम्मित और कान्तासम्मित। वेद की वाणी ‘प्रभुसम्मित’ है अर्थात् वेद ने कह दिया कि ‘ऐसा काम करो, ऐसा काम मत करो’; अतः इसमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी है, प्रत्युत वेद ने जैसा कहा है, वैसा ही करना है। गीता भी वेद की तरह होने से ‘प्रभुसम्मित’ है। पुराण, इतिहास, स्मृतियाँ आदि ‘मित्रसम्मित’ हैं; क्योंकि ये मित्र की तरह समझाते हैं। साहित्य, काव्य ‘सान्नासम्मित’ है; क्योंकि ये स्त्री की तरह प्यार से समझाते हैं।
- ↑ (6।37-38)
- ↑ (6।40)
- ↑ (6।44)
- ↑ (18।65)
- ↑ (18।66)
- ↑ (6।22)
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