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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
74. गीता में प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक साधन
कर्मयोग2. निवृत्तिपरक कर्मयोग- जिसमें कर्मों से उपरति रहती है और पदार्थों का त्याग रहता है, वह निवृत्तिपरक कर्मयोग है। यह कर्मों से उपराम होना और पदार्थों का त्याग करना भी केवल लोगों के हित (कल्याण) के लिए ही होता है अर्थात् निवृत्तिरूप कर्म भी संसार के हित क लिए ही होता है, इसमें अपना कुछ भी मतलब नहीं होता। जैसे, शरीर और अंतःकरण को वश में करने वाला, सब प्रकार के संग्रह का त्याग करने वाला और संसार की आशा से रहित कर्मयोगी केवल शरीर संबंधी कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं।[1] ज्ञानयोग1. प्रवृत्तिपरक ज्ञानयोग- गुण ही गुणों में बरत रहे हैं गुणों के सिवाय अन्य कोई कर्ता नहीं है; संपूर्ण क्रियाएँ गुणों में, इंद्रियों में ही हो रही हैं- ऐसा समझकर कर्तृत्वाभिमन से रहित होकर क्रियाएँ करना प्रवृत्तिपरक ज्ञानयोग है। जैसे, गुण-कर्म के विभाग को जानने वाला ज्ञानयोगी ‘संपूर्ण क्रियाएं गुणों में ही हो रही हैं’- ऐसा मानकर कर्म करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होता[2]; जो पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को ठीक-ठीक जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी बंधन को प्राप्त नहीं होता[3]; जिसमें अहंकृतभाव और फलेच्छा नहीं है, वह संपूर्ण प्राणियों को मारने पर भी अर्थात् घोर से घोर कर्म करने पर भी उस कर्म से बँधता नहीं[4]; आदि। 2. निवृत्तिपरक ज्ञानयोग- सांसारिक प्रवृत्ति से, कर्मों से निवृत्त होकर एकान्त में केवल अपने स्वरूप का, परमात्मा का ध्यान-चिंतन करना निवृत्तिपरक ज्ञानयोग है। जैसे, सात्त्विकी बुद्धि से युक्त, वैराग्य के आश्रित, एकान्त में रहने के स्वभाव वाला और नियमित भोजन करने वाला ज्ञानयोगी साधक धैर्यपूर्वक इंद्रियों का नियमन करके, शरीर-वाणी मन को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर निरंतर परमात्मा के ध्यान में लगा रहता है, वह अहंकार, हठ, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रह का त्याग करके तथा ममतारहित एवं शांत होकर ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है[5] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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