विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
74. गीता में प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक साधन
भक्तियोग1. प्रवृत्तिपरक भक्तियोग- जिसमें कर्म तो सांसारिक होते हैं, पर वे भगवान् की प्रसन्नता के लिए, भगवान् के आश्रित होकर, भगवत्पूजन की दृष्टि से किए जाते हैं, वह प्रवृत्तिपरक भक्तियोग है। जैसे, तू जो कुछ कर्म करता है, वह सब मेरे अर्पण कर[1]; मेरे लिए कर्म करता हुआ तू सिद्धि को प्राप्त हो जाएगा[2]; मनुष्य अपने-अपने कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन करके सिद्धि को प्राप्त हो जाता है[3]; मेरा भक्त मेरे आश्रित होकर सब कर्म सदा करता हुआ मेरी कृपा से अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है[4]; आदि। 2. निवृत्तिपरक भक्तियोग- जिसमें सांसारिक कर्मों से उपराम होकर केवल भगवत्संबंधी जप-ध्यान, कथा-कीर्तन आदि कर्म किए जाते हैं, वह निवृत्तिपरक भक्तयोग है। जैसे, निरंतर मेरे में लगे हुए वे दढ़व्रती भक्त भक्तिपूर्वक मेरे नाम का कीर्तन करते हैं, मेरी प्राप्ति के लिए उत्कण्ठापूर्वक साधन करते हैं और मेरे को नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं[5]; तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में ही मनवाला हो जा, मेरा ही पूजन करने वाला हो जा और मेरे में मनवाले, मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्त आपस में मेरे गुण, प्रभाव आदि को जानते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य-निरंतर संतुष्ट रहते हैं[6]; आदि तात्पर्य यह है कि साधन करने की शैली दो तरह की है, एक में तो व्यवहार को रखते हुए परमात्मा की तरफ चलते हैं। व्यवहार को रखते हुए साधन करना प्रवृत्तिपरक है और व्यवहार का त्याग करके साधन करना निवृत्तिपरक है। जैसे मनु जनक आदि राज प्रवृत्तिपरक हुए हैं और सनकादि, शुकदेव जी आदि निवृत्तिपरक हुए हैं। वास्तव में देखा जाए तो कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- इन तीनों ही साधनों में निवृत्ति है अर्थात् प्रवृत्ति में भी निवृत्ति है और निवृत्ति में भी निवृत्ति है। कारण कि इन तीनों ही साधनों में संसार के संबंध (राग) का त्याग और परमात्मा से संबंध होता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज