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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
4. गीता में श्रीकृष्ण की भगवत्ता
जो लोग यह मानते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण एक योगी थे, भगवान् नहीं थे, उनका यह मानना बिल्कुल गलत है। योगी वही होता है, जिसमें योग होता है। योग के आठ अंग हैं, जिनमें सबसे पहले ‘यम’ आता है। यह पाँच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अतः जो योगी होगा, वह सत्य ही बोलेगा। अगर वह असत्य बोलता है तो वह योगी नहीं हो सकता; क्योंकि उसने योग के पहले अंग (यम) का भी पालन नहीं किया! अतः भगवान् श्रीकृष्ण को योगी मानने से उसको भगवान भी मानना ही पड़ेगा; क्योंकि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने जगह-जगह अपने-आपको भगवान् कहा है; जैसे- मैं संपूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए ही अवतार लेता हूँ।[1] मैं संपूर्ण प्राणियों के हृदय में अच्छी तरह से स्थित हूँ।[2] जो लोग अपने में और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी ईश्वर के साथ द्वेष करते हैं, उनको मैं आसुरी योनियों में गिराता हूँ।[3] जो अश्रद्धालु मनुष्य दम्भ, अहंकार, कामना, आसक्ति और हठ से युक्त होकर शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं, वे अपने पाञ्चभौतिक शरीर को तथा अंतःकरण में स्थित मुझ ईश्वर को भी कष्ट देते हैं।[4] अन्वय व्यतिरेक से भी अपने ईश्वरपने का वर्णन करते हुए भगवान् ने कहा है कि जो मेरे को संपूर्ण लोकों का महान ईश्वर मानते हैं, वे शांति को प्राप्त होते हैं[5] तथा जो मेरे को अज, अविनाशी और महान् ईश्वर मानते हैं, वे मोह से एवं संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं।[6] परंतु जो मेरे ईश्वर भाव को न जानते हुए मेरे को मनुष्य मानकर मेरी अवहेलना करते हैं, वे मूढ़ (मूर्ख) हैं।[7] जो मेरे को संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता तथा संपूर्ण संसार का मालिक नहीं मानते, उनका पतन हो जाता है।[8] जिस ज्ञेय तत्त्व को जानने से अमरता की प्राप्ति होती है,[9] वह ज्ञेय तत्त्व मैं ही हूँ क्योंकि संपूर्ण वेदों के द्वारा जानने योग्य तत्त्व मैं ही हूँ।[10] मैं संपूर्ण जगत् को पैदा करने वाला हूँ। मेरे सिवाय इस जगत् की रचना करने वाला दूसरा कोई नहीं है। मैं ही संपूर्ण जगत् में ओतप्रोत हूँ।[11] सात्त्विक, राजस और तामस भाव (क्रियां, पदार्थ आदि) मेरे से ही उत्पन्न होते हैं।[12] प्राणियों के बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि भाव मेरे से ही पैदा होते हैं।[13] चर-अचर, स्थावर-जंगम आदि कोई भी वस्तु, प्राणी मेरे से रहित नहीं है[14] संपूर्ण जगत् मेरे किसी एक अंश में स्थित हैं।[15] मैं ही अपनी प्रकृति को वश में करके संसार की रचना करता हूँ[16] अथवा मेरी अध्यक्षता में अर्थात् मेरे से सत्ता स्फूर्ति पाकर प्रकृति संसार की रचना करती है।[17] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (4।6)
- ↑ (15।15)
- ↑ (16।18-19)
- ↑ (17।5-6)
- ↑ (5।29)
- ↑ (10।30)
- ↑ (9।11)
- ↑ (9।24)
- ↑ (13।12)
- ↑ (15।15)
- ↑ (7।6-7)
- ↑ (7।12)
- ↑ (10।4-5)
- ↑ (10।39)
- ↑ (10।42)
- ↑ (9।8)
- ↑ (9।10)
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