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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
5. गीता में अवतारवाद
जैस खेल में कोई स्वाँग बनाता है तो वह हरेक को अपना वास्तविक परिचय नहीं देता। अगर वह अपना वास्तविक परिचय दे दे तो खेल बिगड़ जाएगा। ऐसे ही जब भगवान् अवतार लेते हैं, तब वे सबके सामने अपने आपको प्रकट नहीं करते, सबको अपना वास्तविक परिचय नहीं देते[1] अगर वे अपना वास्तविक परिचय दे दें तो फिर वे लीला नहीं कर सकते। जैसे खेल खेलने वाले का स्वांग देखकर उसका आत्मीय मित्र डर जाता है तो वह स्वांगधारी अपने मित्र को संकेतरूप से अपना असली परिचय देता है कि ‘अरे! तू डर मत, मैं वही हूँ।’ ऐसे ही भगवान् के अवतारी शरीरों को देखकर कोई भक्त डर जाता है तो भगवान् उसको अपना असली परिचय देते हैं कि ‘भैया! तू डर मत, मैं तो वही हूँ।’ दो मित्र थे। एक ने बाजार में अपनी दूकान फैला रखी थी, जिससे लोग माल देखें और खरीदें। दूसरा राजकीय सिपाही का स्वाँग धारण करके उसके पास गया और उसको खूब धमकाने लगा कि ‘अरे! तूने यहाँ रास्ते में दूकान क्यों लगा रखी है? जल्दी उठा, नहीं तो अभी राज में तेरी खबर करता हूँ।’ उसकी बातों से वह दूकानदार मित्र बहुत डर गया और अपनी दूकान समेटने लगा। उसको भयभीत देखकर सिपाही बना हुआ मित्र बोला- ‘अरे! तू डर मत, मै तो वही तेरा मित्र हूँ।’ ऐस ही अर्जुन के सामने भगवान् विश्वरूप से प्रकट हो गये तो अर्जुन डर गये। तब भगवान् ने अपना असली परिचय देकर अर्जुन को सांत्वना दी। यहाँ एक शंका होती है कि वर्तमान में धर्म का ह्रास हो रहा है और अधर्म बढ़ रहा है तथा श्रेष्ठ पुरुष दुःख पा रहे हैं, फिर भी भगवान् अवतार क्यों नहीं ले रहे हैं? इसका समाधान यह है कि अभी भगवान् के अवतार क्यों नहीं ले रहे हैं? इसका समाधान यह है कि अभी भगवान् के अवतार का समय नहीं आया है। कारण कि शास्त्रों में कलियुग में जैसा बर्ताव होना लिखा है, उससे भी ज्यादा बर्ताव गिर जाता है, तब भगवान् अवतार लेते हैं। अभी ऐसा नहीं हुआ है। त्रेतायुग में तो राक्षसों ने ऋषि मुनियों को खा-खाकर हड्डियों का ढेर कर दिया था, तब भगवान् ने अवतार लिया था। अभी कलियुग को देखते हुए वैसा अन्याय अत्याचार नहीं हो रहा है। धर्म का थोड़ा ह्रास होने पर भगवान् कारक पुरुषों को भेजकर उसको ठीक कर देते हैं अथवा जगह-जगह संत महात्मा प्रकट होकर अपने आचरणों एवं वचनों के द्वारा मनुष्यों को सन्मार्ग पर लाते हैं। एक दृष्टि से भगवान् का अवतार नित्य है। इस संसार रूप से भगवान् का ही अवतार है। साधकों के लिए साध्य और साधन रूप स भगवान् का अवतार है। भक्तों के लिए भक्तिरूप से, ज्ञानयोगियों के लिए ज्ञेयरूप से और कर्मयोग के लिए कर्तव्य रूप से भगवान् का अवतार है। भूखों के लिए अन्न रूप से, प्यासों के लिए जलरूप से, नंगों के लिए वस्त्र रूप से और रोगियों के लिए औषधि रूप से भगवान् का अवतार है। भोगियों के लिए भोगरूप से और लोभियों के लिए रूपये, वस्तु आदि के रूप में भगवान् का अवतार है। गरमी में छाया रूप से और सरदी में गरम कपड़ों के रूप में भगवान् का अवतार है। तात्पर्य है कि जड़ चेतन, स्थावर जंगम आदि के रूप में भगवान् का ही अवतार है; क्योंकि वास्तव में भगवान् के सिवाय दूसरी कोई चीज है ही नहीं- ‘वासुदेवः सर्वम्’[2] ‘सदसच्चाहम्’[3] परंतु जो संसार रूप से प्रकट हुए प्रभु को भोग्य मान लेता है, अपने को उसका मालिक मान लेता है, उसका पतन हो जाता है, वह जन्मता मरता रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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