श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी73. भक्तों की लीलाएँ
शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी प्रभु के अनन्य भक्तों में से थे। वे कभी-कभी ऐसा अनुभव करते थे कि प्रभु की हमारे ऊपर जैसी होनी चाहिये वैसी कृपा नहीं है। उनके मनोगत भाव को समझकर प्रभु ने एक दिन उनसे कहा- ‘ब्रह्मचारी जी! कल हम तुम्हारें ही यहाँ भोजन करेंगे, हमारे लिये और श्रीपाद नित्यानन्द के लिये तुम ही कल भोजन बना रखना।’ ब्रह्मचारी जी को इस बात से हर्ष भी अत्यधिक हुआ और साथ ही दु:ख भी। हर्ष तो इसलिये हुआ कि प्रभु ने हमें भी अपनी सेवा का योग्य समझा और दु:ख इसलिये हुआ कि प्रभु कुलीन ब्राह्मण हैं, वे हमारे भिक्षुक के हाथ का भात कैसे खायेंगे? इसीलिये उन्होंने दीन-भाव से कहा- ‘प्रभो! हम तो भिक्षुक हैं, आपको भोजन कराने के योग्य नहीं हैं। नाथ! हम इतनी कृपा के सर्वथा अयोग्य हैं।’ प्रभु ने आग्रह के साथ कहा- ‘तुम चाहे मानो, चाहे मत मानो, हम तो कल तुम्हारे ही यहाँ खायेंगें। वैसे न दोगे, तो तुम्हारी थाली में से छीनकर खायेंगे।’ यह सुनकर ब्रह्मचारी जी बड़े असमंजस में पड़े। उन्होंने और भी दो-चार अन्तरंग भक्तों से इस सम्बन्ध में पूछा। भक्तों ने कहा- ‘प्रेम में नेम कैसा? प्रभु के लिये कोई नियम नहीं है। वे अनन्य भक्तों के तो जूठे अन्न को खाकर भी बड़े प्रसन्न होते हैं, आप प्रेमपूर्वक भात बनाकर प्रभु को खिलाइये।’ |