श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी73. भक्तों की लीलाएँ
ब्रह्मचारी जी की कुटिया बिलकुल गंगा जी के तट पर ही थी। छत पर गंगाजी के शीतल कणों से मिली हुई ठण्डी-ठण्डी वायु आ रही थी। नित्यानन्द जी के सहित प्रभु वहाँ आसन बिछाकर लेट गये। जिनका लेख सुन्दर होता, वे पुस्तकें लिखकर ही अपना जीवन-निर्वाह करते थे। विजय भी पुस्तकें ही लिखा करते थे। प्रभु के प्रति इनके हृदय में बड़ी भक्ति थी। प्रभु भी अत्यधिक प्यार करते थे। इन्होंने प्रभु की बहुत-सी पुस्तकें लिखी थीं। सोते-ही-सोते इन्हें एक दिव्य हाथ दिखायी देने लगा। वह हाथ चिन्मय था, उसकी उंगलियों में भाँति-भाँति के दिव्य रत्न दिखायी दे रहे थे। आखरिया को उस चिन्मय हस्त के दर्शन से परम कुतूहल हुआ। वह उठकर चारों ओर देखने लगे। तब भी उन्हें वह हाथ ज्यों-का-त्यों ही प्रतीत होने लगा। वह उस अद्भुत रूप-लावण्युक्त दिव्य हस्त के दर्शन से पागल-से हो गये। प्रभु ने हंसकर पुछा- ‘विजय! क्या बात है? क्यों इधर-उधर देख रहे हो? कोई अद्भुत वस्तु दिखायी दे रही है क्या? शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी बड़े भगवत-भक्त हैं, इनके यहाँ श्रीकृष्ण सदा सशरीर विराजते हैं। तुम्हें उन्हीं के तो दर्शन नहीं हो रहे हैं?’ प्रभु की बात सुनकर विजय ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उत्तर दें भी तो कहाँ से? उन्हें तो अपने शरीर तक का होश नहीं था, प्रभु की बातें सुनकर वह पागलों की भाँति कभी तो हंसते, कभी रोते और कभी आप ही बड़बड़ाने लगते। ब्रह्मचारी जी तथा नित्यानन्द जी ने भी उठकर उनकी ऐसी दशा देखी। वे समझ गये, प्रभु की इनकी ऊपर कृपा हो गयी है। इस प्रकार विजय सात दिन तक इसी तरह पागलों की-सी चेष्टाएँ करते रहे। उन्हें शरीर का कुछ भी ज्ञान नहीं था। न तो कुछ खाते-पीते ही थे और न रात्रि में सोते ही थे। पागलों की तरह सदा रोते ही रहते और कभी-कभी जोरों से हंसने भी लगते। सात दिन के बाद उन्हें बाह्य ज्ञान हुआ। तब उन्होंने अन्तरंग भक्तों पर यह बात प्रकट की। |