श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी69. भक्तों के साथ प्रेम-रसास्वादन
भोजन तैयार था, सभी ने साथ बैठकर बड़े ही प्रेम के साथ भोजन किया। रात्रिभर नित्यानंद जी के सहित प्रभु ने आचार्य के घर पर ही निवास किया। दूसरे दिन आप गंगा को पार करके उस पार कालना नामक स्थान में पहुँचे। वहाँ पर परम वैष्णव गौरीदास जी धरवार छोड़कर एकांत में गंगा जी के किनारे रहकर भजन-भाव करते थे। प्रभु विचित्र वेश से उनके पास पहुँचे। प्रभु के कंधे पर नाव खेने का एक डांड़ रखा हुआ था, वे मल्लाओं की तरह हिलते-हिलते गौरीदास जी के समीप पहुँचे। गौरीदास जी ने प्रभु की प्रशंसा तो बहुत दिनों से सुन रखी थी; किंतु उन्हें प्रभु के दर्शनों का सौभाग्य अभी तक नहीं प्राप्त हुआ था। प्रभु का परिचय पाकर उन्होंने इनकी पूजा की और अन्य सामग्रियों से उनका सत्कार किया। प्रभु ने उन्हें वह डाँड़ देते हुए कहा- ‘आप इसके द्वारा संसार सागर में डूबे हुए लोगों का उद्धार कीजिये और उन्हें संसार सागर से पार उतारिये।’ उसे प्रभु की प्रसादी समझकर उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार किया। उनके परलोगमन के अनन्तर उस डाँड़ के अधिपति उनके पट्टशिष्य-श्रीहृदय चैतन्य महाराज हुए। उन्होंने उस डांड़ की बड़ी महिमा बढ़ायी उनके उत्तराधिकारी महात्मा श्री श्यामानंद जी ने तो सम्पूर्ण उड़ीसा प्रान्त में ही गौर-धर्म का बड़ा भारी प्रचार किया। सम्पूर्ण उड़ीसा-देश में जो आज गौर-धर्म का इतना अधिक प्रचार है, उसका सब श्रेय महात्मा श्यामानंद जी को ही है। उन्होंने लाखों उड़ीसा-प्रांत निवासियों को गौर-भक्त बनाकर उन्हें भगवन्नामोपदेश किया। सचमुच प्रभु-प्रदत्त वह डाँड़ लोगों को संसार सागर से पार उतारने का एक प्रधान कारण बन सका। कालना से चलकर प्रभु फिर नवद्वीप में ही आकर रहने लगे। आचार्य भी बीच-बीच में प्रभु के दर्शनों को नवद्वीप आते थे। इसी प्रकार एक दिन श्रीवास पण्डित अपने घर में पितृश्राद्ध करके पितरों की प्रसन्नता के निमित्त विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ कर रहे थे। उसी समय प्रभु वहाँ आ उपस्थित हुए। पाठ सुनते-सुनते ही प्रभु को वहाँ फिर नृसिंहावेश हो आया और वे नृसिंहवेश में आकर हुंकार देने लगे और चारों और इधर-उधर दौड़ने लगे। प्रभु की हुंकार और गर्जना को सुनकर सभी लोग भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। लोगों को भयभीत देखकर श्रीवास पण्डित ने प्रभु से भाव-संवरण करने की प्रार्थना की। श्रीवास की प्रार्थना पर प्रभु मूर्च्छित होकर गिर पड़े और थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हो गये। |