श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी69. भक्तों के साथ प्रेम-रसास्वादन
अद्वैताचार्य के चेहरे पर दु:ख, शोक या विषण्णता अणुमात्र भी नहीं दिखायी देती थी। उलटे वे अधिकाधिक हर्षोन्नमत्त- से होते जाते थे। खटपट और मार की आवाज सुनकर भीतर से आचार्य की धर्मपत्नी सीता देवी भी निकल आयीं। उन्होंने प्रभु को आचार्य के शरीर पर प्रहार करते देखा तो घबड़ा गयीं और अधीर होकर कहने लगीं-‘हैं, हैं, प्रभु! आप यह क्या कर रहे हैं। बूढ़े आचार्य के ऊपर आपको दया नहीं आती।’ किंतु प्रभु किसी की कुछ सुनते ही न थे। आचार्य भी प्रेम में विभोर हुए मार खाते जाते और नाचते-नाचते गौर-गुणवान करते जाते। इस प्रकार थोड़ी देर के पश्चात प्रभु को मूर्च्छा आ गयी और बेहोश होकर गिर पड़े। बाह्यज्ञान होने पर उन्होंने आचार्य को हर्ष के सहित नृत्य करते और अपने चरणों में लोटते हुए देख, तब आप जल्दी उठकर कहने लगे- ‘श्रीहरि, श्रीहरि! मुझसे कोई अपराध तो नहीं हो गया। मैंने अचेतनावस्था में कोई चंचलता तो नहीं कर डाली। आप तो मेरे पितृतुल्य हैं। मैं तो भाई अच्युत के समान आपका पुत्र हूँ। अचेतनावस्था में यदि कोई चंचलता मुझसे हो गयी हो, तो उसे आप क्षमा कर दें।’ इतना कहकर ये चारों ओर देखने लगे। सामने सीता देवी को खड़ी हुई देखकर आप उनसे कहने लगे- ‘माता जी! बड़ी जोर की भूख लग रही है। जल्दी से भोजन बनाओ।’ यह कहकर आप नित्यानंद जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद! चलो, जब तक हम जल्दी से गंगास्नान कर आवें और तब तक माता जी भात बना रखेंगी।’ इनकी बात सुनकर आचार्य हरिदास तथा नित्यानंद जी इनके साथ गंगा जी की ओर चल पड़े। चारों ने मिलकर खूब प्रेमपूर्वक स्नान किया। स्नान करने के अनन्तर सभी लौटकर आचार्य के घर आ गये। आचार्य के पूजा-गृह में जाकर प्रभु ने भगवान के लिये साष्टांग प्रणाम किया। उसी समय आचार्य प्रभु के चरणों में लोट गये। |