- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 65वें अध्याय में 'भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति कथन' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
भीष्म का दुर्योधन के प्रश्न का उत्तर देना
संजय कहते हैं भारत! जब दुर्योधन ने भीष्म से कहा -हे पितामाह! मेरा ऐसा विश्वास है कि आप सब लोग मिल जायं तो तीनो लोकोंपर भी विजय पाने में समर्थ हो सकते हैं, परंतु पाण्डवों के पराक्रम के सामने आप सब लोग टिक नहीं पाते हैं। इसका क्या कारण है? इस विषय में मुझे बड़ा भारी संदेह है; अत: मेरे प्रश्न के अनुसार आप उसका उत्तर दीजिये। किसका आश्रय लेकर ये कुंती के पुत्र क्षण-क्षण में हम लोगों पर विजय पा रहे हैं। भीष्म ने कहा-कुरूनंदन! नरेश्वर! मेरी बात सुनो। इस विषय में जो यथार्थ बात है, उसे बताता हूँ। मैंने अनेक बार पहले भी तुमसे ये बातें कहीं है, परंतु तुमने उन्हें माना नहीं है। भरतश्रेष्ठ! तुम पाण्डवों के साथ संधि कर लो। प्रभो! इसी में मैं तुम्हारा और भूमण्डल का कल्याण समझता हूँ। राजन्! तुम अपने सभी शत्रुओं को संताप और बंधु-बांधवों को आनन्द प्रदान करते हुए भाइयों के साथ मिलकर सुखी रहो और इस पृथ्वी का राज्य भोगो।[2] तात! इस तरह की बातें मैंने पहले पुकार-पुकारकर कही है, परंतु तुमने उन सबको अनसुनी कर दिया है। तुम जो पाण्डवों का अपमान करते आये हो, आज उसी का यह फल प्राप्त हुआ है। महाबाहो! प्रभो! अनायास ही महान् कर्म करने वाले पाण्डवों के अवध्य होने में जो हेतु है, उसे बताता हूं, सुनो।
लोक में ऐसा कोई प्राणी न हुआ है, न है और न होगा,जो शार्ङ्ग धनुष धारण करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित इन सब पाण्डवों पर विजय पा सके तथा देवता, असुर और मनुष्यों में ऐसा भी कोई नहीं है, जो उन भगवान् श्रीहरि को यथार्थ रूप से जान सके। तात धर्मज्ञ! पवित्र अंत:करण वाले मुनियों ने मुझसे जो पुराण प्रतिपादित यथार्थ बातें कही है, उन्हें बताता हूं, सुनो।
ब्रह्मा द्वारा कृष्ण की स्तुति करना
पहले की बात है, समस्त देवता और महर्षि गन्धमादन पर्वत पर आकर पितामह ब्रह्माजी के पास बैठे। उस समय उनके बीच में बैठे हुए प्रजापति ब्रह्मा ने आकाश में खड़ा हुआ एक श्रेष्ठ विमान देखा, जो अपने तेज से प्रज्वलित हो रहा था। अपने मन को संयम में रखने वाले ब्रह्माजी ने ध्यान से यथार्थ बात जानकर हाथ जोड़ लिये और प्रसन्नचित्त होकर उन परम पुरुष परमेश्वर को नमस्कार किया। ऋषि तथा देवता ब्रह्माजी को खडे़ (और हाथ जोड़े) हुए देख स्वयं भी उस परम अद्भुत तेज का दर्शन करते हुए हाथ जोड़कर खडे़ हो गये। ब्रह्म वत्ताओं में श्रेष्ठ, परम धर्मज्ञ, जगग्स्रष्ठा ब्रह्माजी ने उन तेजोमय परम पुरुष का यथावत् पूजन करके उनकी स्तुति की।
प्रभो! आप सम्पूर्ण विश्व को आच्छादित करने वाले, विश्वरूप और विश्वस्वामी हैं। विश्व में सब ओर आपकी सेना है। यह विश्व आपका कार्य है। आप सबको अपने वश में रखने वाले है। इसीलिये आपको विश्वेश्वर और वासुदेव कहते है। आप योगस्वरूप देवता हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ। विश्वरूप महादेव! आपकी जय हो, लोकहित में लगे रहने वाले परमेश्वर! आपकी जय हो। सर्वत्र व्याप्त रहने वाले योगीश्वर! आपकी जय हो। योग के आदि और अंत! आपकी जय हो। आपकी नाभि से आदि कमल की उत्पत्ति हुई है, आपके नेत्र विशाल हैं, आप लोकेश्वरों के भी ईश्वर है; आपकी जय हो। भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी! आपकी जय हो। आपका स्वरूप सौम्य है, मैं स्वयम्भू ब्रह्मा आपका पुत्र हूँ। आप असंख्य गुणों के आधार और सबको शरण देने वाले हैं, आपकी जय हो। शार्ङ्ग-धनुष धारण करने वाले नारायण! आपकी महिमा का पार पाना बहुत ही कठिन है, आपकी जय हो। आप समस्त कल्याणमय गुणों से सम्पन्न, विश्वमूर्ति और निरामय हैं; आपकी जय हो। जगत् का अभीष्ट साधन करने-वाले महाबाहु विश्वेश्वर! आपकी जय हो। आप महान् शेषनाग और महावाराह-रूप धारण करने-वाले हैं, सबके आदि कारण हैं। हरिकेश! प्रभो! आपकी जय हो, आप पीताम्बरधारी, दिशाओं के स्वामी, विश्व के आधार, अप्रमेय और अविनाशी हैं। व्यक्त और अव्यक्त-सब आपही का स्वरूप है, आपके रहने का स्थान असीम-अनंत है, आप इन्द्रियों के नियंता हैं। आपके सभी कर्म शुभ-ही-शुभ हैं। आपकी कोई इयत्ता नहीं हैं, आप आत्मस्वरूप के ज्ञाता, स्वभावत: गम्भीर और भक्तों की कामनाएं पूर्ण करने वाले हैं; आपकी जय हो।[1] ब्रह्मन्! आप अनंत बोधस्वरूप हैं, नित्य हैं और सम्पूर्ण भूतों को उत्पन्न करने वाले हैं। आपको कुछ करना बाकी नहीं है, आपकी बुद्धि पवित्र है, आप धर्म का तत्त्व जानने वाले और विजयप्रदाता हैं। पूर्ण योगस्वरूप परमात्मन्! आपका स्वरूप गूढ गोता हुआ भी स्पष्ट है। अब तक जो हो चुका है और जो हो रहा है, सब आपका ही रूप है। आप सम्पूर्ण भूतों के आदि कारण और लोकतत्त्व के स्वामी हैं। भूतभावन! आपकी जय हो। आप स्वयम्भू हैं, आपका सौभाग्य महान् है। आप इस कल्प का संहार करने वाले एवं विशुद्ध परब्रह्म हैं। ध्यान करने-से अंत:करण में आपका आविर्भाव होता है, आप जीवमात्र के प्रियतम परब्रह्म हैं, आपकी जय हो।
आप स्वभावत: संसार की सृष्टि में प्रवृत्त रहते हैं, आप ही सम्पूर्ण कामनाओं के स्वामी परमेश्वर हैं। अमृत ही उत्पत्ति के स्थान, सत्यस्वरूप, मुक्तात्मा और विजय देने वाले आप ही हैं। देव! आप ही प्रजापतियों के भी पति, पद्मनाभ और महाबली हैं। आत्मा और महाभूत भी आप ही हैं। सत्त्व-स्वरूप परमेश्वर! सदा आपकी जय हो। पृथ्वी देवी आपके चरण हैं, दिशाएं बाहु है और द्युलोक मस्तक है। मैं ब्रह्मा आपका शरीर, देवता अङ्ग-प्रत्यङ्ग और चन्द्रमा तथा सूर्य नेत्र हैं। तप और सत्य आपका बल है तथा धर्म और कर्म आपका स्वरूप है। अग्नि आपका तेज, वायु सांस और जल पसीना है। अश्विनी कुमार आपके कान और सरस्वती देवी आप की जिह्वा हैं। वेद आपकी संस्कार निष्ठा हैं। यह जगत् सदा आपही के आधार पर टिका हुआ है। योग-योगीश्वर! हम न तो आपकी संख्या जानते हैं, न परिणाम। आपके तेज, पराक्रम और बल का भी हमें पता नहीं है। हम यह भी नहीं जानते कि आपका आविर्भाव कैसे होता है। देव! हम तो आपकी उपासना में लगे रहते हैं। आपके नियमों का पालन करते हुए आपके ही चरण हैं। विष्णों! हम सदा आप परमेश्वर एवं महेश्वर का पूजन ही करते हैं। आपकी ही कृपा से हमने पृथ्वी पर ऋषि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, पिशाच, मनुष्य, मृग, पक्षी तथा कीडे़-मकोडे़ आदि की सृष्टि की है। पद्मनाभ! विशाललोचन! दु:खहारी श्रीकृष्ण! आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आश्रय और नेता हैं, आप ही संसार के गुरु हैं। देवेश्वर! आपकी कृपादृष्टि होने से ही सब देवता सदा सुखी रहते हैं। देव! आपके ही प्रसाद से पृथ्वी सदा निर्भय रही है, इसलिये विशाललोचन! आप पुन: पृथ्वी पर यदुवंश में अवतार लेकर उसकी कीर्ति बढा़इये। प्रभो! धर्म की स्थापना, दैत्यों के वध और जगत् की रक्षा के लिये हमारी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कीजिये। वासुदेव! आप ही पूर्णतम परमेश्वर हैं। आपका जो परम गुह्य यथार्थरूप है, उसी का यहाँ इस रूप में आपकी कृपा से ही गान किया गया हैं।[3]
श्रीकृष्ण! आपने आत्माद्वारा स्वयं अपने आपको ही संकर्षण देव के रूप में प्रकट करके अपने ही द्वारा आत्माजस्वरूप प्रद्युम्न की सृष्टि की है। प्रद्युम्न से आपने ही उन अनिरुद्ध को प्रकट किया है जिन्हें ज्ञानीजन अविनाशी विष्णुरूप से जानते हैं। उन विष्णुरूप अनिरुद्ध ने ही मुझ लोकधाता ब्रह्मा की सृष्टि की है। प्रभो! इस प्रकार आपने ही मेरी सृष्टि की है। आपसे अभिन्न होने के कारण मैं भी वासुदेवमय हूँ। लोकेश्वर! इसलिये याचना करता हूँ कि आप अपने आपको स्वयं ही (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध) इन चार रूपों में विभक्त करके मानव-शरीर ग्रहण कीजिये। वहाँ सब लोगों के सुख के लिये असुरों का वध करके धर्म और यश का विस्तार कीजिये। अन्त में अवतार का उद्देश्य पूर्ण करके आप पुन: अपने पारमार्थिक स्वरूप से संयुक्त हो जायंगे। अमित पराक्रमी परमेश्वर! संसार में महर्षि और देवगण एकाग्रचित्त हो उन-उन लीलानुसारी नामों द्वारा आपके परमात्म स्वरूप का गान करते रहते हैं। सुबाहो! आप वर दायक प्रभु का ही आश्रय लेकर समस्त प्राणिसमुदाय आप में ही स्थित हैं। ब्राह्मण लोग आपको आदि, मध्य और अन्त से रहित, किसी सीमा के सम्बन्ध से शू्न्य (असीम) तथा लोकमर्यादा की रक्षा के लिये सेतु स्वरूप बताते हैं।[4]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 65 श्लोक 38-53
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 65 श्लोक 19-37
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 65 श्लोक 54-69
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 65 श्लोक 70-75
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| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
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| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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