त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

अर्जुन का कृष्ण को अपनी इच्छा प्रकट करना

सम्बन्ध-गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से गीता के उपदेश का आरम्भ हुआ। वहाँ से आरम्भ करके तीसवें श्लोक तक भगवान् ने अर्जुन को ज्ञान योग का उपदेश दिया। और प्रसंगवश क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की कर्तव्यता का प्रतिपादन करके उन्चालीसवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त कर्मयोग का उपदेश दिया, उसके बाद तीसरे अध्याय से सतरहवें अध्याय तक कहीं ज्ञानयोग की दृष्टि से और कही कर्मयोग की दृष्टि से परमात्मा की प्राप्ति के बहुत से साधन बतलाये। उन सबको सुनने के अनन्तर अब अर्जुन इस अठारहवें अध्याय में समस्त अध्यायों के उपदेश का सार जानने के उद्देश्य से भगवान् के सामने संन्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग यानी फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँति अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट करते हैं- अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक जानना चाहता हूँ।[2]

श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के[3] त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं।[4] कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त है, इसलिये त्यागने के योग्य है[5] और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है।[6]

कृष्ण का त्याग के विषय में अर्जुन को बतलाना

सम्बन्ध- इस प्रकार संन्यास और त्याग के विषयों में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाकर अब भगवान् त्याग के विषय में अपना निश्चय बतलाना आरम्भ करते हैं, कृष्ण कहते हैं- हे पुरुष अर्जुन! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन; क्‍योंकि त्याग सात्त्विक, राजस और तामस-भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है[7] क्‍योंकि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले है।[1] इसलिये हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।[8][9]

सम्बन्ध-अब तीन श्लोकों में क्रम से उपर्युक्त तीन प्रकार के त्यागों के लक्षण बतलाते हैं-(निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परंतु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है।[10] इसलिये मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।[11] जो कुछ कर्म है वह सब दुःखस्वरूप ही है-ऐसा समझ कर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दे,[12] तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता।[13] हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है।[14]

सम्बन्ध-उपयुक्त प्रकार से सात्त्विक त्याग करने वाले पुरुष का निषिद्ध और काम्यकर्मों स्वरूप से छोडने में और कर्तव्य कर्मों के करने में कैसा भाव रहता है, इस जिज्ञासा पर सात्त्विक त्यागी पुरुष की अंतिम स्थिति के लक्षण बतलाते है’- जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता[15] और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता,[16] वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है।[17] क्‍योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है;[18] इसलिये जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है।[19] कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् अवश्य होता है;[20] किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।[21][9]

कृष्ण का सांख्ययोग तत्त्व के विषय में अर्जुन को समझाना

सम्बन्ध-पहले श्लोक में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट की थी। उसका उत्तर देते हुए भगवान् ने दूसरे और तीसरे श्लोकों में इस विषय पर विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत बतलाकर अपने मत के अनुसार चौथे श्लोक से बारहवें श्लोक तक त्याग का यानी कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँति समझाया अब संयास का यानी सांख्ययोग का तत्त्व समझाने के लिये पहले सांख्य-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों को सिद्धि में पांच हेतु बतलाते है- हे महाबाहो! सम्‍पूर्ण कर्मों की सिद्धि ये पांच हेतु कर्मों का अन्त करने के लिये उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गये हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान। इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान[22] और कर्ता[23] तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण[24] एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएं[25] और वैसे ही पांचवां हेतु दैव[26] है। मनुष्य,[27] मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरित जो कुछ भी कर्म करता है, उसके ये पांचों कारण हैं।[28]

सम्बन्ध- इस प्रकार सांख्ययोग के सिद्धान्त से समस्त कर्मों की सिद्धि अधिष्ठानादि पांच कारणों का निरूपण करके अब, वास्तव में आत्मा का कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है, आत्मा सर्वथा शुद्ध निर्विकार और अकर्ता है- यह बात समझाने के लिये आत्मा को कर्ता मानने वाले की निंदा करके अकर्ता मानने वाले की स्तुति करते हैं। परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्धस्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलिन बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता।[29] जिस पुरुष के अन्तःकारण ‘मैं कर्ता हूं’ ऐसा भाव नहीं है[30] तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती[31] वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बंधता है।[32][33]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-5
  2. अर्जुन के प्रश्न का यह भाव है कि संन्यास (ज्ञानयोग) का क्या स्वरूप है, उसमें कौन-कौन से भाव और कर्म सहायक एवं कौन-कौन से बाधक है, उपासना सहित सांख्ययोग का और केवल सांख्ययोग का साधक किस प्रकार किया जाता है इसी प्रकार त्याग (फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग) का क्या स्वरूप है; केवल कर्मयोग साधन किस प्रकार होता है, क्या करना इसके लिये उपयोगी है और क्या करना इसमें बाधक है; भक्तिमिश्रित एवं भक्तिप्रधान कर्मयोग कौन सा है; भक्तिप्रधान कर्म योग कौन-सा है तथा लौकिक और शास्त्रीय कर्म करते हुए भक्तिमिश्रित एवं भक्तिप्रधान कर्मयोग का साधन किस प्रकार किया जाता है- इन सब बातों को भी मै भलीभाँति जानना चाहता हूँ।
    उत्तर में भगवान् इस अध्याय के तेरहवें से सतरहवें श्लोक तक संन्यास (ज्ञानयोग) का स्वरूप बतलाया है। उन्नीसवें से चालिसवें श्लोक तक जो सात्त्विक भाव और कर्म बतलाये हैं, वे इसके साधन में उपयोगी है और राजस, तामस इसके विरोधी है। पचासवें से पचपनवें तक उपासना सहित सांख्ययोग की विधि और फल बतलाया है तथा सतरहवें श्लोक में केवल सांख्ययोग का साधन करने का प्रकार बतलाया है।
    इसी प्रकार छठे श्लोक में (फलासक्ति त्यागरूप) कर्मयोग का स्वरूप बतलाया है। नवें श्लोक में सात्त्विक त्याग के नाम से केवल कर्मयोग के साधन की प्रणाली बतलायी है। सैतालीसवें और अडतालीसवें श्लोको में स्वधर्म के पालन को इस साधन में उपयोगी बतलाया है और सातवें तथा आठवें श्लोको में वर्णित तामस, राजस त्याग को इसमें बाधक बतलाया है। पैतालिसवें और छियालिसवें श्लोकों में भक्तिमिश्रित कर्मयोग का और छप्पनवें से छाछठवें श्लोक तक भक्तिप्रधान कर्मयोग का वर्णन है। छियालीसवें श्लोक में लौकिक और शास्त्रीय समस्त कर्म करते हुए भक्तिमिश्रित कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलायी है और सत्तावनवें श्लोक में भगवान् ने भक्तिप्रधान कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलायी हैं।
  3. स्त्री, पुरुष, धन और स्वर्गदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिये और रोग संकटादि अप्रिय की निवृत्ति के लिये यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि जिन शुभ कर्मों का शास्त्रों में विधान किया गया है- ऐसे शुभ कर्मों का नाम ‘काम्यकर्म’ है।
  4. ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पिता गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका के कर्म और शरीर सम्बन्धी खान-पान इत्यादि जितने भी शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म है, उनके अनुष्ठान से प्राप्त होने वाले स्त्री, पुरुष, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग सुख आदि जितने भी इस लोक और परलोक के भोग हैं- उन सबकी कामना का सर्वथा त्याग कर देना ही समस्त कर्मो के फल का त्याग करना है।
  5. आरम्भ (क्रिया) मात्र में ही कुछ-न-कुछ पाप का सम्बन्ध हो जाता है, अतः विहित कर्म भी सर्वथा निर्दोष नहीं है इस भाव को लेकर कितने ही विद्वानों का कहना है कि कल्याण चाहने वाले मनुष्य को नित्य, नैमित्तिक और काम्य आदि सभी कर्मों का स्वरूप त्याग कर देना चाहिये।
  6. बहुत-से विद्वानों के मत में यज्ञ, दान, तपरूप कर्म वास्तव में दोषयुक्त नहीं है। वे मानते हैं कि उन कर्मों के निमित्त किये जाने वाले आरम्भ में जिन अवश्यम्भावी हिंसादि पापों का होना देखा जाता है, वे वास्तव में पाप नहीं है। इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्य को निषिद्ध कर्मों का ही त्याग करना चाहिये, शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।
  7. शास्त्रों में अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जिसके लिये जिस कर्म का विधान है- जिसको जिस समय जिस प्रकार यज्ञ करने के लिये, दान देने के लिये और तप करने के लिये कहा गया है- उसे उसका त्याग नहीं करना चाहिये, यानी शास्त्र-आज्ञा की अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्‍योंकि इस प्रकार के त्याग से किसी प्रकार का लाभ होना तो दूर रहा, उल्टा प्रत्यवाय होता है। इसलिये इन कर्मों का अनुष्ठान मनुष्य को अवश्य करना चहिये।
  8. भगवान् के कथन का भाव यह है कि ऊपर विद्वानों के मतानुसार जो त्याग और संन्यास के लक्षण बतलाये गये है, वे पूर्ण नहीं है क्‍योंकि केवल काम्य कर्मों का स्वरूप त्याग कर देने पर भी अन्य नित्य-नैमित्तिक कर्मों में और उनके फल में मनुष्य की ममता, आसक्ति और कामना रहने से वे बन्धन हेतु बन जाते हैं। सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग कर देने पर भी उन कर्मों में ममता और आसक्ति और रह जाने से वे बन्धनकारक हो सकते है। अहंता, ममता, आसक्ति और कामना त्याग किये बिना यदि समस्त कर्मों को दोषयुक्त समझकर कर्तव्यकर्मों का भी स्वरूप त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता क्‍योंकि ऐसा करने पर वह विहित कर्म के त्यागरूप प्रत्यवाय का भागी होता है। इसी प्रकार यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को करते रहने पर भी यदि उसमें आसक्ति और उनके फल की कामना का त्याग न किया जाय तो वे बन्धन के हेतु बन जाते है। इसलिये उन विद्वानों के बतलाये हुए लक्षणों वाले संन्यास और त्याग से मनुष्य कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता; क्‍योंकि कर्म स्वरूपतः बन्धनकारक नहीं है, उनके साथ ममता, आसक्ति और फल का सम्बन्ध ही बन्धनकारक है। अतः कर्मों में जो ममता और फलासक्ति का त्याग है, वही वास्तविक त्याग है; क्‍योंकि इस प्रकार कर्म करने वाला मनुष्य समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त होकर परमपद्र को प्राप्त हो जाता है।
  9. 9.0 9.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 6-12
  10. वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये यज्ञ, दान, तप, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, युद्ध, प्रजापालन, पशुपालन, कृषि, व्यापार, सेवा और खान-पान आदि जो-जो कर्म शास्त्रों में अवश्यकर्तव्य बतलाये गये हैं, उसके लिये वे नियत कर्म है। ऐसे कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाला मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन न करने के कारण पाप का भोगी होता है; क्‍योंकि इससे कर्मों की परम्परा टूट जाती हैं; क्‍योंकि इससे कर्मों की परम्परा टूट जाती है और समस्त जगत में विफल हो जाता है। (गीता 3/23/24) इसलिये नियत कर्मों का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है।
  11. कर्तव्य कर्म के त्याग को भूल से मुक्ति का हेतु समझकर त्याग करना मोहपूर्वक होने के कारण तामस त्याग है; इसलिये उपर्युक्त त्याग ऐसा त्या नहीं है; जिसके करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। यह तो प्रत्यवाय का हेतु होने से उल्‍टा अधोगति को ले जाने वाला है।
  12. कर्तव्य कर्मों के अनुष्ठान में मन, इन्द्रिय और शरीर को परिश्रम होता है; अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं; बहुत सी साम्रगी एकत्र करनी पड़ती है; शरीर के आराम का त्याग करना पड़ता है; व्रत,उपवास आदि करके कष्ट सहन करना पड़ता है और बहुत-से भिन्न-भिन्न नियमों का पालन करना पड़ता है-इस कारण समस्त कर्मों को दुःख रूप समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर के परिश्रम से बचने के लिये तथा आराम करने की इच्छा से जो यज्ञ, दान और तप आदि शास्त्रविहित कर्मों का त्याग करना है- यही उनको दुःखरूप समझकर शारीरिक क्लेश के भय से उनका त्याग करना है।
  13. जब तक मनुष्य मन, इन्द्रिय और शरीर में ममता और आसक्ति रहती है, तब तक वह किसी प्रकार भी कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। अतः यह राजस त्याग नाममात्र का ही त्याग है, सच्चा त्याग नहीं है। इसलिये कल्याण चाहने वाले साधनों को ऐसा त्याग नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि मन, इन्द्रिय और शरीर के आराम में आसक्ति होना रजोगुण-का कार्य है। अतएव ऐसा त्याग करने वाला मनुष्य वास्तविक त्याग के फल को, जो कि समस्त कर्मबन्धनों से छूटकर परमात्मा को पा लेना है, नहीं पाता।
  14. वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो जो कर्मशास्त्र में अवश्य कर्तव्य बतलाये गये हैं, वे समस्त कर्म ही नियम कर्म है, निषिद्ध और काग्य कर्म नियत कर्म नहीं हैं। नियत कर्मों को न करना भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करना है- इस भाव से भावित होकर उन कर्मों में और उनके फलरूप इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके उत्साहपूर्वक विधिवत् उनको करते रहना ही सात्त्विक त्याग है; क्‍योंकि कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के भोगों में आसक्तिऔर कामना का त्याग ही वास्तविक त्याग है। त्याग का परिणाम कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होना चाहिये और यह परिणाम ममता, आसक्ति और कामना के त्याग से ही हो सकता है-केवल स्वरूप से कर्मों का त्याग करने से नहीं।
  15. शास्त्रनिषिद्ध कर्म और काम्यकर्म सभी अकुशल कर्म है; क्‍योंकि पापकर्म तो मनुष्य को नाना प्रकार की नीच योनियों में और नरकमें गिराने वाले हैं एवं काम्यकर्म भी फलभोग के लिये पुनर्जन्म देने वाले है। सात्त्विक त्यागी में राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण यह तो निषिद्ध और काम्यकर्मों का त्याग करता है, वह द्वेष-बुद्धि से नहीं करता; किंतु शास्त्रदृष्टि से लोकसंग्रह के लिये उनका त्याग करता है।
  16. शास्त्रविहित नित्य-नैमित्तिक यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्म निष्कामभाव से किये जाने पर मनुष्य के पूर्वकृत संचित पापों का नाश करके उसे कर्मबन्धन से छुडा देने में समर्थ है, इसलिये ये कुशल कहलाते है। सात्त्विक त्यागी जो उपर्युक्त शुभ कर्मों का विधिवत् अनुष्ठान करता है, वह आसक्तिपूर्वक नहीं करता; किंतु शास्त्रविहित कर्मों का करना मनुष्य का कर्तव्य है- इस भावस ममता, आसक्ति और फलेच्छा छोडकर लोकसंग्रह के लिये ही उनका अनुष्ठान करता है।
  17. इस प्रकार राग-द्वेष से रहित होकर केवल कर्तव्यबुद्धि से कर्मों का ग्रहण और त्याग करने वाला शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित है, यानी उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि यह कर्मयोग रूप सात्त्विक त्याग ही कर्मबन्धन से छूटकर परमपद को प्राप्त कर लेने का पूर्ण साधन है। इसीलिये वह बुद्धिमान् है और वही सच्चा त्यागी है।
  18. कोई भी देहधारी मनुष्य बिना कर्म किये रह नहीं सकता (गीता 3/5); क्‍योंकि बिना कर्म किये शरीर का निर्वाह ही नहीं हो सकता। (गीता 3/8) इसलिये मनुष्य किसी भी आश्रम में क्‍यों न रहता हो- जब तक वह जीवित रहेगा, तब तक उसे अपनी परिस्थिति के अनुसार खाना-पीना, सोना-बैठना, चलना-फिरना और बोलना आदि कुछ न कुछ कर्म तो करना ही पड़ेगा। अतएव सम्पूर्णता से सब कर्मों का स्वरूप से त्याग किया जाना सम्भव नहीं है।
  19. जो निषिद्ध और काम्य-कर्मों का सर्वथा त्याग करके यथावश्यक शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों का अनुष्ठान करते हुए उन कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना सर्वथा त्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी है।
    ऊपर से इन्द्रियों की क्रियाओं का संयम करके मन से विषयों का चिन्तन करने वाला मनुष्य त्यागी नहीं नहीं है तथा अहंता, ममता और आसक्ति के रहते हुए शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि कर्तव्यकर्मों का स्वरूप त्याग कर देने वाला भी त्यागी नहीं है।
  20. जिन्‍होंने अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का त्याग नहीं किया है; जो आसक्ति और फलेच्छापूर्वक सब प्रकार के कर्म करने वाले है, उनके द्वारा किये हुए शुभ कर्मों का जो स्वर्गादि की प्राप्ति या अन्य किसी प्रकार के सांसारिक इष्ट भोगों की प्राप्ति रूप फल है, वह अच्छा फल है; तथा उनके द्वारा किये हुए पाप-कर्मोंका जो पशु, पक्षी, कीट, पतंग और वृक्ष आदि तियक् योनियां प्राप्ति या नरकों की प्राप्ति अथवा अन्य किसी प्रकार के दुःखों की प्राप्ति रूप फल है- वह बुरा फल है। इसी प्रकार जो मनुष्यादि योनियों में उत्पन्न होकर कभी इष्ट भोगों को प्राप्त होना और कभी अनिष्ट भोगों को प्राप्त होना है, वह मिश्रित फल है।
    उन पुरुषों के कर्म अपना फल भुगतायें बिना नष्ट नहीं हो सकते, जन्म-जन्मान्तरों में शुभाशुभ फल देते रहते है; इसीलिये ऐसे मनुष्य संसारचक्र में घुमते रहते हैं।
  21. कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का जिन्‍होंने सर्वथा त्याग कर दिया है; इस अध्याय के दसवें श्लोक में त्यागी के नामसे जिनके लक्षण बतलाये गये है; गीता के छठे अध्याय के पहले श्लोक में जिनके लिये ‘संन्‍यासी’ और ‘योगी’ दोनों पदों का प्रयोग किया गया है- ऐसे कर्मयोगियो को यहाँ ‘संन्‍यासी’ कहा जाता है।
    इस प्रकार कर्म फल का त्याग कर देने वाले त्यागी मनुष्य जितने कर्म करते है, वे भूने हुए बीज की भाँति होते हैं, उनमें फल उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती तथा इस प्रकार यर्थाथ किये जाने वाले निष्काम कर्मों से पूर्वसंचित समस्त शुभाशुभ कर्मों का भी नाश हो जाता है। (गीता 4/23) इस कारण उनके इस जन्म में या जन्मान्तरों में किये हुए किसी भी कर्म का किसी भी प्रकार का फल किसी भी अवस्था में, जीते हुए या मरने के बाद कभी नहीं होता; वे कर्मबन्धन सर्वथा मुक्त हो जाते है।
  22. ‘अधिष्ठान’ शब्द यहाँ मुख्यता से करण और क्रिया के आधाररूप शरीरों का वाचक है; किंतु गौणरूप से यज्ञादि कर्मों में तद्विषयक क्रिया के आधाररूप भूमि आदि का वाचक भी माना जा सकता है।
  23. यहाँ ‘कर्ता’ शब्द प्रकृतिस्थ पुरुष का वाचक है। इसी को गीता के तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में भोक्ता बतलाया गया है।
  24. मन, बुद्धि और अहंकार भीतर के करण है, तथा पांच ज्ञानेन्द्रिया और पांच कमेन्द्रियां- ये दस बाहर के कारण है; इनके सिवा गौणरूप से जैसे स्त्रुवा आदि उपकारण यज्ञादि कर्मों के करने में सहायक होते है, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कर्मों के करने में जिने भी भिन्न-भिन्न द्वार अथवा सहायक है, उन सबको यहाँ बाह्य करण कहा जा सकता है।
  25. एक स्थान से दूसरे स्थान मे गमन करना, हाथ-पैर आदि अंगों का संचालन, श्वासो का आना-जाना, अंगों को सिकोडना-फैलाना, आंखों को खोलना और मूंदना, मन में संकल्प-विकल्पों का होना, आदि जितनी भी हलचल रूप क्रियाएं है, वे ही नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएं है।
  26. पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों को ‘दैव’ कहते हैं, प्रारब्ध भी इसी के अन्तर्गत है।
  27. मनुष्य शरीर में ही जीव पुण्य और पापरूप नवीन कर्म कर सकता है। अन्य सब भोगयोनियां है; उनमें पूर्वकृत कर्मों का फल भोगा जाता है, नवीन कर्म करने का अधिकार नहीं है।
  28. यहाँ मन, वाणी और शरीर द्वारा किये जाने वाले जितने भी पुण्य और पापरूप कर्म है-जिनका इस जन्म तथा जन्मान्तर में जीव को फल भोगना पड़ता है- उन सबके ‘ये पांचो कारण हैं’- इसमें से किसी एक के न रहने से कर्म नहीं बन सकता। इसीलिये बिना कर्तापन के किया जाने वाला कर्म वास्तव में कर्म नहीं है।
  29. वास्तव में आत्मा, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार और सर्वथा असंग है; प्रकृति से, प्रकृति जनित पदार्थो से या कर्मों से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; किंतु अनादिसिद्ध अविधा के कारण असंग आत्मा का ही इस प्रकृति के साथ सम्बन्ध सा हो रहा है; अतः वह दुर्भति प्रकृति द्वारा सम्पादित क्रियाओं में मिथ्या अभिमान करके (गीता 3/27) स्वयं उन कर्मों का कर्ता बन जाता है। इस प्रकार कर्ता बने हुए पुरुष का नाम ही ‘प्रकृतिस्थ पुरुष’ है; वह उन प्रकृति द्वारा सम्पन्न हुई क्रियाओं का कर्ता बनता है, तभी उनकी कर्म ‘संज्ञा’ होती है। और वे कर्म फल देने वाले बन जाते हैं। इसलिये उस प्रकृतिस्थ पुरुष को अच्छी बुरी योनियों मे जन्म धारण करके उन कर्मों का फल भोगना पड़ता है। (गीता 13/21)। इसलिये चौदहवें श्लोक में कर्मों की सिद्धि के पांच हेतुओं में एक हेतु जो ‘कर्ता’ माना गया है, वह प्रकृति में स्थित पुरुष है और यहाँ आत्मा के केवल यानी संगरहित, शुद्ध स्वरूप का वर्णन है। अतः उसको अर्कता बतलाकर उसके यथार्थ स्वरूप का लक्षण किया गया है। जो आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझ लेता है, उसके कर्मों में ‘कर्ता’ रूप पांचवां हेतु नहीं रहता। इसी कारण उसके कर्मों की कर्म संज्ञा नहीं रहती। यही बात अगले श्लोक में समझायी गयी हैं।
  30. सांख्ययोगी पुरुष में मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा की जाने वाली समस्त क्रियाओं में ‘अमुक कर्म मैंने किया है’ ‘वह मेरा कर्तव्य है’ इस प्रकार के भाव का लेशमात्र भी न रहना- यही ‘मै कर्ता हूं’ इस भाव का न होना है।
  31. कर्मों में और उनके फलरूप स्त्री, पुरुष, धन, मकान, मान, बड़ाई, स्वर्गसुख आदि इस लोक को परलोक के समस्त पदार्थों में ममता, आसक्ति और कामना का अभाव हो जाना, किसी भी कर्म से या उसके फल से अपना किसी प्रकार का भी सम्बन्ध न समझना तथा उन सबको स्वप्र के कर्म और भोगों की भाँति क्षणिक, नाशवान और कल्पित समझ लेने के कारण अन्तःकारण में उनके संस्कारों का संगृही न होना ही बुद्धि का लिपायमान न होना।
  32. उपर्युक्त प्रकार के आत्मस्वरूप को भलीभाँति जान लेने के कारण जिस का अज्ञान जनित अहंभाव सर्वज्ञा नष्ट हो गया है; मन, बुद्धि, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होने वाले कर्मों से या उनके फल से जिसका किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहा, उस पुरुष के मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा जो लोकसंग्रहार्थ प्रारब्धानुसार कर्म होते हैं, वे सब शास्त्रानुकूल और सबका हित करने वाले ही होते हैं। अतः जैसे अग्नि, वायु, और जल आदि के द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की मृत्यु हो जाय तो वे अग्नि, वायु आदि न तो वास्तव में उस प्राणी को मारने वाले हैं। और न वे उस कर्म से बंधते ही है- उसी प्रकार उपर्युक्त महापुरुष शुभकर्मों को करके उनका कर्ता नहीं बनता और उनके फल से नहीं बंधता, इसमें तो कहना ही क्या है; किंतु क्षात्रधर्म जैसे- किसी कारण से योग्यता प्राप्त हो जाने पर समस्त प्राणियों संहाररूप-क्रुर कर्म करके भी उसका वह कर्ता नहीं बनता और उसके फल से भी नहीं बॅधता।
    जैसे भगवान सम्‍पूर्ण जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार आदि कार्य करते हुए भी वास्तव में उसके कर्ता नहीं हैं (गीता 4/13) और उन कर्मों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है (गीता 4/14; 9/9)- उसी प्रकार सांख्ययोगी का भी उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा होने वाले समस्त कार्यों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; किंतु उसका अन्तःकारण अत्यन्त शुद्ध हो जाने के कारण उसके द्वारा अज्ञानमुलक चोरी, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, हिंसा, कपट, दम्भ, आदि पापकर्म नहीं होते।
  33. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 13-17

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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