निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 28वें अध्याय में 'निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

कृष्ण का अर्जुन से निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों का वर्णन करना

सम्बन्ध- गीता के तीसरे अध्‍याय के चौथे श्लोक से लेकर उन्तीसवें श्लोक तक भगवान ने बहुत प्रकार से विहित कर्मों के आचरण की आवश्‍यकता का प्रतिपादन करके तीसवें श्लोक में अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग की‍ विधि से ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके भगवदर्पणबुद्धि से कर्म करने की आज्ञा दी। उसके बाद इकतीसवें पैंतीसवें श्लोक तक उस सिद्धान्त के अनुसार कर्म करने वालों की प्रशंसा और न करने वालों की निन्दा करके राग-द्वेष के वश में न होने के लिये कहते हुए स्‍वधर्मपालन पर जोर दिया। फिर छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन के पूछने पर सैंतीसवें अध्‍याय-समाप्तिपर्यंत काम को सारे अनर्थों का हेतु बतलाकर बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों और मन को वश में करके उसे मारने की आज्ञा दी; परंतु कर्मयोग का तत्त्‍व बड़ा ही गहन है, इसलिये अब भगवान पुन: उसके संबंध में बहुत-सी बातें बतलाने के उद्देश्‍य से उसी का प्रकरण आरम्‍भ करते हुए पहले तीन श्लोकों में उस कर्मयोग की परम्‍परा बतलाकर उसकी अनादिता सिद्ध करते हुए प्रशंसा करते है- श्रीभगवान बोले- मैंने इस विनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्‍वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परम्‍परा से प्राप्‍त इस योग को राजर्षियों ने जाना; किंतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्‍वीलोक में लुप्‍तप्राय हो गया।[2] तू मेरा भक्‍त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातनयोग आज मैंने तुझको कहा है; क्‍योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्‍य है अर्थात गुप्‍त रखने योग्‍य विषय है।[3]

अर्जुन बोले- आपका जन्‍म तो अर्वाचीन-अभी हालका है और सूर्य का जन्‍म बहुत पुराना है अर्थात कल्‍प के आदि में हो चुका था; तब मैं इस बात को कैसे समझूं कि आप ही ने कल्‍प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था? श्रीभगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्‍म हो चुके हैं।[4] उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ। संबंध- भगवान के मुख से यह बात सुनकर कि अ‍ब तक मेरे बहुत-से जन्‍म हो चुके हैं, यह जानने की इच्‍छा होती है कि आपका जन्‍म किस प्रकार होता है ओर आप के जन्‍म में तथा अन्‍य लोगों के जन्‍म में क्‍या भेद है। अतएव इस बात को समझाने के लिये भगवान अपने जन्‍म का तत्त्‍व बतलाते हैं- मैं अजन्‍मा ओर अविनाशीस्‍वरूप होते हुए भी तथा समस्‍त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृत्ति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।[5] संबंध-इस प्रकार भगवान के मुख से उनके जन्‍म का तत्त्‍व सुनने पर यह जिज्ञासा होती है कि आप किस-किस समय और भगवान दो श्लाकों में अपने अवतार के अवसर, हेतु और उद्देश्‍य बतलाते हैं- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है[6] तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकाररूप से लोगों के सम्‍मुख प्रकट होता हूँ। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप-कर्म करने-वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्‍छी तरह से स्‍थापना करने के लिये[7] मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।[8][1]

हे अर्जुन! मेरे जन्‍म और कर्म दिव्‍य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्‍य तत्त्‍व से जान लेता है[9] वह शरीर को त्‍यागकर फिर जन्‍म को प्राप्‍त नहीं होता; किंतु मुझे ही प्राप्‍त होता है। पहले भी जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्‍ट हो गये थे ओर जो मुझमें अनन्यप्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।[10] हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हैं;[11] क्योंकि सभी मनुष्‍य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।[12] सम्बन्ध- यदि यह बात है, तो फिर लोग भगवान को न भजकर अन्य देवताओं की उपासना क्यों करते हैं? इस प्रकार कहते हैं- इस मनुष्‍यलोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍व और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।[13] भी मुझ अविनाशी परमेश्‍वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।[14]

कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता।[15] पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये है।[16] इसलिये तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही कर। कर्म क्या हैं? और अकर्म क्या है?- इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्म तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूंगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा। कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये[17] स्वरूप भी जानना चाहिये[18] तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये;[19] क्योंकि कर्म की गति गहन है। सम्बन्ध- इस प्रकार श्रोता के अन्त:करण में रुचि और श्रद्धा उत्पन्न करने के लिये कर्मतत्त्व को गहन एवं उसका जानना आवश्‍यक बतला‍कर अब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान कर्म का तत्त्व समझाते हैं- जो मनुष्‍य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्‍यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है। [20] सम्बंध- इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्मदर्शन का महत्त्व बतलाकर अब पांच श्लोकों में भिन्न-भिन्न शैली से उपर्युक्त कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म-दर्शनपूर्वक कर्म करने वाले सिद्ध ओर साधक पुरुषों की असंगता का वर्णन करके उस विषय को स्पष्‍ट करते हैं[21]-

जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं[22] तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप और अकर्म का अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं,[23] उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं। जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्यतृप्त हैं,[24] वह कर्म में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। जिसका अन्त:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होगा।[25] जो बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्‍ट रहता है, जिसमें ईर्ष्‍या का सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला[26] कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता।[27]

जिसकी आसक्ति नष्‍ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल यज्ञ सम्‍पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्‍य के सम्‍पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।[28][29]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-8
  2. परमात्‍मा की प्राप्ति के साधनरूप कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि जितने भी साधन हैं- सभी नित्‍य हैं; इनका कभी अभाव नहीं होता। जब परमेश्वरनित्‍य हैं, तब उनकी प्राप्ति के लिये उन्‍हीं के द्वारा निश्चित किये हुए अनादि नियम अनित्‍य नहीं हो सकते। जब-जब जगत का प्रादुर्भाव होता है, तब-तब भगवान के समस्‍त नियम भी साथ-ही-साथ प्रकट हो जाते हैं और जब जगत का प्रलय होता है, उस समय नियमों का भी तिरोभाव हो जाता है; परंतु उनका अभाव कभी नहीं होता। इस प्रकार इस कर्मयोग की अनादिता सिद्ध करने के लिये पूर्वश्लोक में उसे अविनाशी कहा गया है। अतएव इस श्लोक में जो यह बात कही गयी कि वह योग बहुत काल से नष्‍ट हो गया है- इसका यही अभिप्राय समझना चा‍हिये कि बहुत समय से इस पृथ्‍वी लोक में उसका तत्त्‍व समझने वाले श्रेष्‍ठ पुरुषों का अभाव-सा हो गया है, इस कारण वह अप्रकाशित हो गया है, उसका इस लोक में तिरोभाव हो गया है; यह नहीं कि उसका अभाव हो गया है।
  3. इस कथन से भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि यह योग सब प्रकार के दु:खों से और बंधनों से छुड़ाकर परमानंदस्‍वरूप मुझ परमेश्वर को सुगमतापूर्वक प्राप्‍त करा देने वाला है, इसलिये अत्‍यंत ही उत्तम ओर बहुत ही गोपनीय है; इसके सिवा इसका यह भाव भी है कि अपने को सूर्यादि के प्रति इस योग का उपदेश करने वाला बतलाकर और वही योग मैंने तुझसे कहा है, तू मेरा भक्‍त है- यह कहकर मैंने जो अपना ईश्वर भाव प्रकट किया है, यह बड़े रहस्‍य की बात है।
  4. यहाँ भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि मैं और तुम अभी हुए हैं, पहले नहीं थे- ऐसी बात नहीं है। हम लोग अनादि और नित्‍य हैं। मेरा नित्‍य स्‍वरूप तो है ही; उसके अतिरिक्‍त मैं अनेक रूपों में पहले प्रकट हो चुका हूँ। इसलिये मैंने जो यह बात कही है कि यह योग पहले सूर्य से मैंने ही कहा था, इसका यही अभिप्राय समझना चाहिये कि कल्‍प के आदि में मैंने नारायण रूप से सूर्य को यह योग कहा था।
  5. इससे भगवान ने यह दिखलाया है कि यद्यपि मैं अजन्‍मा और अविनाशी हूं- वास्‍तव में मेरा जन्‍म और विनाश कभी नहीं होता है, तो भी मैं साधारण व्‍यक्ति की भाँति जन्‍मता और विनष्‍ट होता-सा प्र‍तीत होता हूं; इसी तरह समस्‍त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी एक साधारण व्‍यक्ति-सा ही प्रतीत होता हूँ। अभिप्राय यह है कि मेरे अवतार-तत्त्व को न समझने वाले लोग जब मैं मत्‍स्‍य, कच्‍छप, वाराह और मनुष्‍यादि रूप में प्रकट होता हूं, तब मेरा जन्‍म हुआ मानते हैं और जब मैं अंतर्धान हो जाता हूं, उस समय मेरा विनाश समझ लेते हैं तथा जब मैं उस रूप में दिव्‍य लीला करता हूं, तब मुझे अपने जैसा ही साधारण व्‍यक्ति समझकर मेरा तिरस्‍कार करते हैं। (गीता 1:11) वे बेचारे इस बात को नहीं समझ पाते कि ये सर्वशक्तिमान्, सर्वेश्वर, नित्‍य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्‍त–स्‍वभाव साक्षात पूर्णब्रह्म परमात्‍मा ही जगत का कल्‍याण करने के लिये इस रूप में प्रकट होकर दिव्‍य लीला कर रहे हैं; क्‍योंकि मैं उस समय अपनी योगमाया के परदे में छिपा रहता हूँ। (गीता 7।25)
  6. ऋषिकल्प, धार्मिक, ईश्वरप्रेमी, सदाचारी पुरुषों तथा निरपराधी, निर्बल प्राणियों पर बलवान और दुराचारी मनुष्‍यों का अत्‍याचार बढ़ जाना तथा उसके कारण लोगों में सद्गुणों और सदाचार का अत्‍यंत हृास होकर दुर्गुण और दुराचार का अधिक फैल जाना ही धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि का स्‍वरूप है।
  7. स्‍वयं शास्त्रानुकूल आचरण कर, विभिन्‍न प्रकार से धर्म का महत्त्‍व दिखलाकर और लोगों के हृदय में प्रवेश करने वाली अप्रितिम प्रभावशालिनी वाणी के द्वारा उपदेश-आदेश देकर सबके अंतकरण में वेद, शास्त्र, परलोक, महापुरुष और भगवान पर श्रद्धा उत्‍पन्‍न कर देना तथा सद्गुणों में और सदाचारों में विश्वास तथा प्रेम उत्‍पन्‍न करवाकर लोगों में इन सबको दृढ़तापूर्वक भलीभाँति धारण करा देना आदि सभी बातें धर्म की स्‍थापना के अंतर्गत हैं।
  8. यद्यपि भवगान बिना ही अवतार लिये अनायास ही सब कुछ कर सकते हैं और करते भी है ही; किंतु लोगों पर विशेष दया करके अपने दर्शन, स्‍पर्श और भाषणादि के द्वारा सुगमता से लोगों को उद्धार का सुअवसर देने के लिये एवं अपने प्रेमी भक्तों का अपनी दिव्‍य लीलादि का आस्‍वादन कराने के लिये भगवान साकाररूप से प्रकट होते हैं। उन अवतारों में धारण किये हुए रूप का तथा उनके गुण, प्रभाव, नाम, माहात्‍म्‍य और दिव्‍यकर्मों का श्रवण, कीर्तन और स्‍मरण करके लोग सहज ही संसार-समुद्र से पार हो सकते हैं। यह काम बिना अवतार के नहीं हो सकता।
  9. सर्वशक्तिमान् पूर्णब्रह्म परमेश्वर वास्‍तव में जन्‍म और मृत्‍यु से सर्वथा अतीत है। उनका जन्‍म जीवों की भाँति नहीं है। वे अपने भक्‍तों पर अनुग्रह करके अपनी दिव्‍य लीलाओं के द्वारा उनके मन को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये, दर्शन, स्‍पर्श और भाषणादि के द्वारा उनको सुख पहुँचाने के लिये, संसार में अपनी दिव्‍य कीर्ति फैलाकर उसके श्रवण, कीर्तन और स्‍मरण द्वारा लोगों के पापों का नाश करने के लिये तथा जगत में पापाचारियों का विनाश करके धर्म की स्‍थापना करने के लिये जन्‍म-धारण की केवल लीलाभाव करते हैं। उनका वह जन्‍म निर्दोष और अलौकिक है। जगत का कल्‍याण करने के लिये ही भगवान इस प्रकार मनुष्‍यदि के रूप में लोगों के सामने प्रकट होते है; उनका वह विग्रह प्राकृत उपादानों से बना हुआ नहीं भगवान इस प्रकार मनुष्‍यादि के रूप में लोगों के सामने प्रकट होते है; उनके जन्‍म में गुण और कर्म-संस्‍कार हेतु नहीं होते; वे माया के वश में होकर जन्‍म धारण नहीं करते, किंतु अपनी प्रकृति के अधिष्‍ठाता होकर योगशक्ति से मनुष्‍यादि के रूप में केवल लोगों पर दया करके ही प्रकट होते हैं- इस बात को भलीभाँति समझ लेना ही भगवान के जन्‍म को तत्त्‍व से दिव्‍य समझना है। भगवान के सृष्टि रचना और अवतार लीलादि जितने भी कर्म करते हैं, उनमें उनका किंचिन्‍मात्र भी स्‍वार्थ का संबंध नहीं है; केवल लोगों पर अनुग्रह करनेके लिये ही वे मनुष्‍यादि अवतारों में नाना प्रकार के कर्म करते हैं (गीता 3।22-23)। भगवान अपनी प्रकृति द्वारा समस्‍त कर्म करते हुए भी उन कर्मो के प्रति कर्तृत्‍वभाव न रहने के कारण वास्‍तव में न तो कुछ भी करते हैं और न उनके बंधन में पड़ते है; भगवान की उन कर्मों के फल में किंचिन्‍मात्र भी स्‍पृहा नहीं होती (गीता 4।23-24)। भगवान के द्वारा जो कुछ भी चेष्‍टा होती है, लो‍कहितार्थ ही होती है (गीता 4:8); उनके प्रत्‍येक कर्म में लोगों का हित भरा रहता है। वे अनंत कोटि ब्रह्मण्‍डों के स्‍वामी होते हुए भी सर्वसाधारण के साथ अभिमान रहित दया और प्रेमपूर्ण समता का व्‍यवहार करते हैं (गीता 9:29); जो कोई मनुष्‍य जिस प्रकार उनको भजता है, वे स्‍वयं उसे उसी प्रकार भजते हैं (गीता 4:11); अपने अनन्‍यभक्‍तों का योगक्षेम भगवान स्‍वयं चलाते हैं (गीता 9:22), उनको दिव्‍य ज्ञान प्रदा करते हैं (गीता 10:10-11) और भक्तिरूपी नौका पर बैठै हुए भक्तों का संसार समुद्र से शीघ्र ही उद्धार करने के लिये स्वयं उनके कर्णधार बन जाते हैं (गीता 12:7)। इस प्रकार भगवान के समस्त कर्म आसक्ति, अहंकार और कामनादि दोषों से सर्वथा रहित निर्मल और शुद्ध तथा केवल लोगों का कल्याण करने एवं नीति, धर्म शुद्ध प्रेम आदि भक्ति आदि का जगत में प्रचार करने के लिये ही होते हैं; इन सब कर्मों को करते हुए भी भगवान का वास्तव में उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, वे उनसे सर्वथा अतीत और अकर्ता हैं- इस बात को भली-भाँति समझ लेना, इसमें किचिन्मात्र भी असम्भावना या‍ विपरीत भावना न रहकर पूर्ण विश्वास हो जाना ही भगवान के कर्मों की तत्त्व से दिव्य समझना हैं।
  10. यहाँ सांख्‍ययोग का प्रसंग नहीं हैं भक्ति का प्रकरण है तथा पूर्वश्लोक में भगवान के जन्म-कर्मों को दिव्य समझने का फल भगवान की प्राप्ति बतलाया गया है; उसी के प्रमाण में यह श्लोक है। इस कारण यहाँ ‘ज्ञानतपसा’ पद में ज्ञान का अर्थ आत्मज्ञान न मानकर भगवान के जन्म-कर्मों को दिव्य समझ लेना रूप ज्ञान ही माना गया हैं। इस ज्ञान रूप तप के प्रभाव से मनुष्‍य का भगवान में अनन्य प्रेम हो जाता हैं, उसके समझ पाप-ताप नष्‍ट हो जाते हैं, अन्त:करण में सब प्रकार के दुगुर्णों का सर्वथा अभाव हो जाता हैं और समस्त कर्म भगवान के कर्मों की भाँति दिव्य हो जाते हैं तथा वह कभी भगवान से अलग नहीं होता, उसको भगवान सदा ही प्रत्यक्ष रहते हैं- यही उन भ‍क्तों का ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर भगवान के स्वरूप को प्राप्त हो जाना है।
  11. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे भक्तों के भजन के प्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं। अपनी-अपनी भावना के अनुसार भक्त मेरे पृथक्-पृ‍थक् रूप मानते हैं और अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार मेरा भजन-स्मरण करते हैं, अतएव मैं भी उनको उनकी भावना के अनुसार उन उन रूपों में ही दर्शन देता हुं तथा वे जिस प्रकार जिस-जिस भाव से मेरी उपासना करते हैं, मैं उनके उस-उस प्रकार ओर उस-उस भावना का ही अनुसरण करता हूँ। जो मेरा चिन्तन करता है उसका में चिन्तन करता हूं, जो मेरे लिये व्याकुल होता है उसके लिये मैं भी व्याकुल हो जाता हूं, जो मेरा वियोग सहन नहीं कर सकता मैं भी उसका वियोग नहीं सहन कर सकता। जो मुझे अपना सर्वस्व अर्पण कर देता हैं, मैं भी उसे अपना सर्वस्व अर्पण कर देता हूँ। जो ग्वाल-बालों की भाँति मुझे अपना सखा मानकर मेरा भजन करते हैं, उनके साथ मैं मित्र-के-जैसा व्यवहार करता हूँ। जो नन्द-यशोदा की भाँति पुत्र मानकर मेरा भजन करते हैं, उनके साथ पुत्रों के जैसा बर्ताव करके उनका कल्याण करता हूँ। इसी प्रकार रुक्मिणी की तरह पति समझकर भजने वालों के साथ पति-जैसा, हनुमान की भाँति स्वामी समझकर भजने वालों के साथ स्वामी जैसा और गोपियों की भाँति माधुर्यभाव से भजने वालों के साथ प्रियतम-जैसा बर्ताव करके मैं उनका कल्याण करता हूँ और उनको दिव्य लीला-रस का अनुभव करता हूँ।
  12. इससे भगवान ने यह दिखलाया है कि लोग मेरा अनुसरण करते हैं, इसलिये यदि मैं इस प्रकार प्रेम और सौहार्द का बर्ताव करूंगा तो दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी ऐसे ही नि:स्वार्थभाव से एक दूसरों के साथ यथायोग्य प्रेम ओर सुहृदता का बर्ताव करेंगे। अतएव इस नीति का जगत में प्रचार करने के लिये भी ऐसा करना मेरा कर्तव्य है।
  13. अनादि काल से जीवों के जो जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए कर्म हैं, जिनका फलयोग नहीं हो गया हैं, उन्हीं के अनुसार उनमें यथायोग्य तत्त्व, रज और तमोगुण की न्यूनाधिकता होती है। भगवान जब सृष्टि-रचना के समय मनुष्‍यों का निर्माण करते हैं, तब उन-उन गुण और कर्मों के अनुसार उन्हें ब्राह्मणादि वर्णों में उत्पन्न करते हैं। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि देव, पितर और तिर्यक आदि दूसरी-दूसरी योनियों की रचना भी भगवान जीवों के गुण और कर्मों के अनुसार ही करते हैं। इसलिये इन सृष्टि-रचनादि कर्मों में भगवान की किंचिन्मात्र भी विषमता नहीं हैं, यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि मेरे द्वारा चारों वर्णों की रचना उनके गुण और कर्मों के विभागपूर्वक की गयी है। आजकल लोग यह पूछा करते हैं कि ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग जन्म से मानना चाहिये या कर्म से? तो उसका इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर उत्तर यह हो सकता है कि यद्यपि जन्म और कर्म दोनों ही वर्ण के अंग होने के कारण वर्ण की पूर्णता तो दोनों से ही होती हैं परंतु इन दोनों में प्रधानता जन्म की हैं, इसलिये जन्म से ही ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग मानना चाहिये; क्योंकि यदि माता-पिता एक वर्ग के हों और किसी प्रकार से भी जन्म में संकरता न आये तो सहज ही कर्म में भी प्राय: संकरता नहीं आती; परंतु संगदोष, आहारदोष ओर दूषित शिक्षा-दीक्षादि कारणों से कर्म में कहीं कुछ व्यतिक्रम भी हो जाय तो जन्म से वर्ण मानने पर वर्णरक्षा हो सकती है, तथापि कर्मशुद्धि की कम आवश्‍यकता नहीं है। कर्म के सर्वथा नष्‍ट हो जाने पर वर्ण की रक्षा बहुत ही कठिन हो जाती है। अत: जीविका और विवाहादि व्यवहार के लिये तो जन्म की प्रधानता तथा कल्याण की प्राप्ति में कर्म की प्रधानता माननी चाहिये; क्योंकि जाति से ब्राह्मण होने पर यदि उसके कर्म ब्राह्मणोचित्त नहीं है तो उसका कल्याण नहीं हो सकता तथा सामान्य धर्म के अनुसार शम-दमादि का पालन करने वाला और अच्छे आचरण वाला शुद्र भी आदि ब्राह्मणाचित्त यज्ञादि कर्म करता है और उससे अपनी जीविका चलाता है तो पाप का भागी होता है।
  14. इससे भगवान के कर्मों की दिव्यता का भाव प्रकट किया गया है। अभिप्राय यह है कि भगवान का किसी भी कर्म में राग-द्वेष या कर्तापन नहीं होता। वे सदा ही उन कर्मों से सर्वथा अतीत हैं, उनके सकाश से उनकी प्रकृत्ति ही समस्त कर्म करती है। इस कारण लोकव्यवहार में भगवान उन कर्मों के कर्ता माने जाते हैं; वास्तव में भगवान सर्वथा उदासीन हैं, कर्मों से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं (गीता 9।9-10)।
  15. उपर्युक्त वर्णन के अनुसार जो यह समझ लेना है कि विश्व-रचनादि समस्त कर्म करते हुए भी भगवान वास्तव में अकर्ता ही हैं- उन कर्मों से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, उनके कर्मों में विषमता लेशमात्र भी नहीं हैं, कर्मफल में उनकी किंचिन्मात्र भी आ‍सक्ति, ममता या कामना नहीं हैं, अतएव उनको वे कर्म बन्धन में नहीं डाल सकते- यही भगवान को उपर्युक्त प्रकार से तत्त्वत: जानना है और इस प्रकार भगवान के कर्मों का रहस्य यथार्थरूप से समझ लेने वाले महात्मा के कर्म भी भगवान की ही भाँति ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अंहकार के बिना केवल लोकसंग्रह के लिये ही होते हैं; इसलिये वह भी कर्मों से नहीं बंधता।
  16. जो मनुष्‍य जन्म-मरणरूप संसारबन्धन से मुक्त होकर परमानन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, जो सांसारिक भोगों को दु:खमय ओर क्षणाभंगुर समझकर उनसे विरक्त हो गया है और जिसे इस लोक या परलोक के भोगों की इच्छा नहीं है- उसे ‘मुमुक्ष’ कहते हैं। अर्जुन भी मुमुक्ष थे, वे कर्मबन्धन के भय से स्वधर्मरूप कर्तव्य कर्म का त्याग करना चाहते थे; अतएव भगवान ने इस श्लोक में पूर्वकाल के मुमुक्षओं का उदाहरण देकर यह बात समझायी है कि कर्मों को छोड़ देने मात्र से मनुष्‍य उनके बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता, इसी कारण पूर्वकाल के मुमुक्षओं ने भी मेरे कर्मों की दिव्यता का तत्त्व समझकर मेरी ही भाँति कर्मों में ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार त्याग करके निष्‍कामभाव से अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार उनका आचरण ही किया है।
  17. साधारणत: मनुष्‍य यही जानते हैं कि शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों का नाम कर्म है; किंतु इतना जान लेने मात्र से कर्म का स्वरूप नहीं जाना जा सकता, क्योंकि उसके आचरण में भाव का भेद होने से उसके स्वरूप में भेद हो जाता हैं। अत: अपने अधिकार के अनुसार वर्णाश्रमो‍चित्त कर्तव्य-कर्मों को आचरण में लाने के लिये कर्मों का तत्त्व को समझना चाहिये।
  18. साधारणत: मनुष्‍य यही समझते हैं कि मन, वाणी और शरीर द्वारा की जाने वाली क्रियाओं का स्वरूप से त्याग कर देना ही अकर्म यानी कर्मों से रहित होना हैं; किंतु इतना समझ लेने मात्र से अकर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जाना जा सकता; क्योंकि भाव के भेद से इस प्रकार का अकर्म भी कर्म या विकर्म के रूप में बदल जाता है। अत: किस भाव से किस प्रकार की हुई कौन-सी क्रिया या उसके त्याग का नाम अकर्म है एवं किस स्थिति में किस मनुष्‍य को किस प्रकार उसका आचरण करना चाहिये, इस बात को भलीभाँति समझकर साधन करना चाहिये।
  19. साधारणत: झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि पापकर्मों का नाम ही विकर्म है- यह प्रसिद्ध है; पर इतना जान लेने मात्र से विकर्म का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना जा सकता, क्योंकि शास्त्र के तत्त्व को न जानने वाले अज्ञानी पुण्‍य को भी पाप मान लेते हैं और पाप को भी पुण्‍य मान लेते हैं। वर्ण, आश्रम और अधिकार के भेद से जो कर्म एक के लिये विहित होने से कर्तव्य (कर्म) है, वही दूसरे के लिये निषिद्ध होने से पाप (विकर्म) हो जाता है- जैसे सब वर्णों की सेवा करके जीविका चलाना शुद्र के लिये विहित कर्म हैं, किंतु वही ब्राह्मण के लिये निषिद्ध कर्म है; जैसे दान लेकर, वेद पढा़कर और यज्ञ कराकर जीविका चलाना ब्राह्मण के लिये कर्तव्य कर्म हैं किंतु दूसरे वर्णों के लिये पाप हैं; जैसे गृहस्थ के लिये न्यायोपार्जित द्रव्यसंग्रह करना और ॠतुकाल में स्वपत्नीगमन करना धर्म हैं, किंतु संन्यासी के लिये काञ्चन और कामिनी का दर्शन स्पर्श करना भी पाप है। अत: शूद्र, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि जो सर्वसाधारण के लिये निषिद्ध हैं तथा अधिकार भेद से जो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिये निषिद्ध हैं- उन सबका त्याग करने के लिये विकर्म के स्वरूप को भलीभाँति समझना चाहिये।
  20. यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका और शरीर-निर्वाहसम्बन्धी जितने भी शास्त्रविहित कर्म हैं- उन सबमें आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकार का त्याग कर देने से वे इस लोक या परलोक में सुख-दु:खादि फल भुगताने के ओर पुर्नजन्म के हेतु नहीं बनते, बल्कि मनुष्‍य के पूर्वकृत समस्त शुभाशुभ कर्मों का नाश करके उसे संसार-बन्धन से मुक्त करने वाले होते हैं- इस रहस्य को समझ लेना ही कर्म में अकर्म देखना है। इस प्रकार कर्म में अकर्म देखने वाला मनुष्‍य आसक्ति, फलेच्छा ओर ममता के त्यागपूर्वक ही विहित कर्मों का यथायोग्य आचरण करता है। अत: वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता, इसलिये वह मनुष्‍यों में बुद्धिमान है; वह परमात्मा को प्राप्त है, इसलिये योगी है और उसे कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता- वह कृतकृत्य हो गया है, इ‍सलिये वह समस्त कर्मों को करने वाला है। लोकप्रसिद्धि में मन, वाणी और शरीर के व्यापार को त्याग देने का ही नाम अकर्म है; यह त्यागरूप अकर्म भी आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकारपूर्वक किया जाने पर पुनर्जन्म का हेतु बन जाता है; इतना ही नही, कर्तव्य कर्मों की अवहेलना से या दम्भाचार के लिये किया जाने पर तो यह विकर्म (पाप) के रूप में बदल जाता है- इस रहस्य को समझ लेना ही अकर्म में कर्म देखना है।
  21. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 9-18
  22. स्त्री, पुरुष, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्‍ठा और स्वर्ग-सुख आदि इस लोक और परलोक के जितने भी विषय (पदार्थ) हैं, उनमें से किसी का किंचिन्मात्र भी इच्छा करने का नाम ‘कामना’ हैं तथा किसी विषय को ममता, अहंकार, राग-द्वेष एवं रमणीय बुद्धि से स्मरण करने का नाम ‘संकल्प’ है। कामना संकल्प का कार्य है और संकल्प उसका कारण है। विषयों का स्मरण करने से ही उनमें आसक्ति होकर कामना की उत्पत्ति होती है। (गीता 2:62) जिन कर्मों में किसी वस्तु के संयोग-वियोग की किंचिन्मात्र भी कामना नहीं है; जिनमें ममता, अहंकार और आसक्ति का सर्वथा अभाव है और जो केवल लोक-संग्रह के लिये चेष्‍टामात्र किये जाते हैं- वे सब कर्म कामना और संकल्प से रहित हैं।
  23. जैसे अग्नि द्वारा भुने हुए बीज केवल नाममात्र के ही बीज रह जाते हैं, उनमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा जो समस्त कर्मों में फल उत्पन्न करने की शक्ति का सर्वथा नष्‍ट हो जाना है- यही उन कर्मों का ज्ञानरूप अग्नि से भस्म हो जाना है।
  24. आसक्ति का सर्वथा त्‍याग करके शरीर में अहंकार और ममता से सर्वथा रहित हो जाना और किसी भी सांसारिक वस्‍तु के या मनुष्‍य के आश्रित न होना अर्थात अमुक वस्‍तु या मनुष्‍य से ही मेरा निर्वाह होता है, यही आधार है, इसके बिना काम ही नहीं चल सकता-इस प्रकार के भावों का सर्वथा अभाव हो जाना ही ‘निराश्रय’ हो जाना है। ऐसा हो जाने पर मनुष्‍य को किसी भी सांसारिक पदार्थ की किंचिन्‍मात्र भी आवश्‍यकता नहीं रहती, वह पूर्णकाम हो जाता है; उसे परमानंद स्‍वरूप परमात्‍मा की प्राप्ति हो जाने के कारण वह निरंतर आनंद में मग्‍न रहता है, उसकी स्थिति में किसी भी घटना से कभी जरा भी अंतर नहीं पड़ता। यही उसका ‘नित्‍यतृप्‍त’ हो जाना है।
  25. उपर्युक्त पुरुष को न तो यज्ञादि कर्मों का अनुष्‍ठान न करने से होने वाला प्रत्‍यवायरूप पाप लगता है और न शरीर-निर्वाह के लिये की जाने वाली क्रियाओं में होने वाले पापों से ही उसका संबंध होता है; यही उसका ‘पाप’ को प्राप्‍त न होना है।
  26. यज्ञ, दान और तप आदि किसी भी कर्तव्‍यकर्म का निर्विघ्रता से पूर्ण हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकार विघ्न-बाधा के कारण उसका पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इसी प्रकार जिस उद्देश्‍य से कर्म किया जाता है, उस उद्देश्‍य का पूर्ण हो जाना सिद्धि है ओर पूर्ण न होना ही असिद्धि है। इस प्रकार की सिद्धि और असिद्धि में भेदबुद्धि का न होना अर्थात सिद्धि में हर्ष और आसक्ति आदि तथा असिद्धि में द्वेष और शोक आदि विकारों का न होना, दोनों में एक-सा भाव रहना ही सिद्धि और असिद्धि में सम रहना है।
  27. जिस प्रकार केवल शरीर संबंधी कर्मों को करने वाला परिग्रहरहित सांख्‍ययोगी अन्‍य कर्मों का आचरण न करने पर भी कर्म न करने के पाप से लिप्‍त नहीं होता, उसी प्रकार कर्मयोगी विहित कर्मों का अनुष्‍ठान करके भी उनसे नहीं बंधता।
  28. अपने वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्‍य का जो शास्‍त्रदृष्टि से विहित कर्तव्‍य है, वही उसके लिये यज्ञ है। उस शास्‍त्रविहित यज्ञ का सम्‍पादन करने के उद्देश्‍य से ही जो कर्मों का करना है- अर्थात किसी प्रकार के स्‍वार्थ का संबंध न रखकर केवल लोकसंग्रहरूप यज्ञ की परम्‍परा सुरक्षित रखने के लिये ही जो कर्मों का आचरण करना है, वही यज्ञ के लिये कर्मों का आचरण करना है। उपर्युक्‍त प्रकार से कर्म करने वाले पुरुष के कर्म उसको बांधने वाले नहीं होते, इतना ही नहीं; किंतु जैसे किसी घास की ढेरी में आग में जलाकर गिराया हुआ घास स्‍वयं भी जलकर नष्‍ट हो जाता है और उस घास की ढेरी को भी भस्‍म कर देता है- वैसे ही आसक्ति, फलेच्‍छा, ममता और अभिमान के त्‍यागरूप अग्नि में जलाकर किये हुए कर्म पूर्व-संचित समस्‍त कर्मों के सहित विलीन हो जाते हैं, फिर उसके किसी भी कर्म में किसी प्रकार का फल देने की शक्ति नहीं रहती।
  29. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 19-30

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जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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