- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 69वें अध्याय में 'कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह की रचना करना
संजय कहते हैं- महाराज! भीष्म द्वारा कृष्ण की महिमा का वर्णन सुनने के बाद दुर्योधन भीष्म को प्रणाम करके अपने शिविरा में चला गया और अपनी शुभ्र शय्या पर सो गया। वह रात बीतने पर जब सूर्योदय हुआ, तब दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने आकर युद्ध के लिए डट गयी। सबने एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रोध में कुमन्त्रणा के फलस्वरूप् आपके पुत्र और पाण्डव एक दूसरे को देखकर कुपित हो सब-के-सब अपने सहायकों के साथ आकर सेना की व्यूह-रचना करके हर्ष और उत्साह में भरकर परस्पर प्रहार करने को उद्यत हो गये। राजन्! भीष्म सेना का मकरव्यूह बनाकर सब ओर से उसकी रक्षा करने लगे। इसी प्रकार पाण्डवों ने भी अपने व्यूह की रक्षा की। स्वयं अजातशत्रु युधिष्ठिर ने घौम्य मुनि की आज्ञा से श्येन व्यूह की रचना करके शत्रुओं के हृदय में कँपकँपी पैदा की दी। भारत! अग्नि चयन सम्बन्धी कमों में रहते हुए उन्हें श्येनव्यूह का विशेष परिचय था।
आपके बुद्धिमान पुत्र की सेना का मकरनामक महाव्यूह निर्मित हुआ था। द्रोणाचार्य की अनुमति लेकर उसने स्वयं सारी सेनाओं द्वारा उस व्यूह की रचना की थी। फिर शान्तनुनन्दन भीष्म ने व्यूह की विधि के अनुसार निर्मित हुए उस महाव्यूह का स्वयं भी अनुसरण किया था। महाराज! रथियों में श्रेष्ठ आपके ताऊ भीष्म विशाल रथसेना से घिरे हुए युद्ध के लिए निकले। फिर यथाभाग खड़े हुए रथी, पैदल, हाथीसवार और घुड़सवार सब एक दूसरे का अनुसरण करते हुए चल दिये।
शत्रुओं को युद्ध के लिये उद्यत हुए देख यशस्वी पाण्डव युद्ध में अजेय व्यूहराज श्येन के रूप में संगठित हो शोभा पाने लगे। उस व्यूह के मुख भाग में महाबली भीमसेन शोभा पा रहे थे। ने़त्रों के स्थान में दुर्धर्ष वीर शिखण्डी तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न खड़े थे। शिरोभाग में सत्य पराक्रमी वीर सात्यकि और ग्रीवाभाग में गाण्डीव-धनुष की टंकार करते हुए कुन्तीकुमार अर्जुन खड़े हुए। पुत्रसहित श्रीमान महात्मा द्रुपद एक अक्षौहिणी सेना के साथ युद्ध में बायें पंख के स्थान में खडे़ थे। एक अक्षौहिणी सेना के अधिपति केकय दाहिने पंख में स्थित हुए। द्रौपदी के पाँचों पुत्र और पराक्रमी सुभद्राकुमार अभिमन्यु- ये पृष्ठभाग में खड़े हुए। उत्तम पराक्रम से सम्पन्न स्वयं श्रीमान् वीर राजा युधिष्ठिर भी अपने दो भाई नकुल और सहदेव के साथ पृष्ठभाग में ही सुशोभित हुए। तद्नन्तर भीमसेन ने रणक्षेत्र में प्रवेश करके मकरव्यूह के मुखभाग में खड़े हुए भीष्म को अपने सायकों से आच्छांदित कर दिया।
भारत! तब उस महासमर में पाण्डवों की उस व्यूहबद्व सेना को मोहित करते हुए भीष्म ने उस पर बड़े-बड़े अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। उस समय अपनी सेना को मोहित होती देख अर्जुन ने बड़ी उतावली के साथ युद्ध के मुहाने पर एक हजार बाणों की वर्षा करके भीष्म को घायल कर दिया। संग्राम में भीष्म के छोड़े हुए सम्पूर्ण अस्त्रों का निवारण करके हर्ष में भरी हुई अपनी सेना के साथ वे युद्ध के लिये उपस्थित हुए।
दुर्योधन तथा द्रोणाचार्य संवाद
तब बलवानों में श्रेष्ठ महारथी राजा दुर्योंधन ने पहले जो अपनी सेना का घोर संहार हुआ था, उसको दृष्टि में रखते हुए और युद्ध में भाइयों के वध का स्मरण करते हुए भरद्वाज नन्दन द्रोणाचार्य से कहा- निष्पाप आचार्य! आप सदा ही मेरा हित चाहने वाले है। हम लोग आप तथा पितामह भीष्म की शरण लेकर देवताओं को भी समरभूमि में जीतने की अभिलाषा रखते हैं, इसमें सशंय नहीं है। फिर जो बल और पराक्रम में हीन है, उन पाण्डवों को जीतना कौन सी बड़ी बात है। आपका कल्याण हो। आप ऐसा प्रयत्न करें जिससे पाण्डव मारे जायँ।[1] आर्य! आपके पुत्र दुर्योधन के ऐसा कहने पर द्रोणाचार्य कुछ कुपित से हो उठे और लंबी सांस खीचते हुए राजा दुर्योधन से बोले। द्रोणाचार्य ने कहा- तुम नादान हो- पाण्डवों का पराक्रम कैसा है, यह नहीं जानते। महाबली पाण्डवों को युद्ध में जीतना असम्भव है, तथापि मैं अपने बल और पराक्रम के अनुसार तुम्हारा कार्य कर सकता हूँ। संजय कहते हैं- राजन् आपके पुत्र से ऐसा कहकर द्रोणाचार्य पाण्डवों की सेना का सामना करने के लिये गये।[2]
कौरव तथा पांडव योद्धाओं का युद्ध
वे सात्यकि के देखते-देखते पाण्डव सेना को विदीर्ण करने लगे। भारत! उस समय सात्यकि ने आगे बढ़कर द्रोणाचार्य को रोका। फिर तो उन दोनों में अत्यंत भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया। प्रतापी द्रोणाचार्य ने युद्ध में कुपित होकर सात्यकि के गले की हंसली में हँसते हुए से पैने बाणों द्वारा प्रहार किया। राजन्! तब भीमसेन ने कुपित होकर शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य से सात्यकि की रक्षा करते हुए आचार्य को अपने बाणों से बींध डाला। आर्य! तदनन्तर द्रोणाचार्य, भीष्म तथा शल्य तीनों ने कुपित होकर भीमसेन को युद्धस्थल में अपने बाणों से ढक दिया। महाराज! तब वहाँ क्रोध में भरे हुए अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्रों ने आयुध लेकर खड़ें हुए उन सब कौरव महारथियों को तीखे बाणों से घायल कर दिया। उस समय कुपित होकर आक्रमण करते हुए महाबली द्रोणाचार्य और भीष्म का उस महासमर में सामना करने के लिए महाधनुर्धर शिखण्डी आगे बढ़ा। उस वीर ने मेघ के समान गंभीर घोष करने वाले अपने धुनष को बलपूर्वक खींचकर बड़ी शीघ्रता के साथ इतने बाणों की वर्षा की कि सूर्य भी आच्छादित हो गये। भरतकुल के पितामह भीष्म ने शिखण्डी के सामने पहुँचकर उसके स्त्रीत्व का बार-बार स्मरण करते हुए युद्ध बंद कर दिया।
महाराज! यह देखकर द्रोणाचार्य ने युद्ध में आपके पुत्र के कहने से भीष्म की रक्षा के लिए शिखण्डी की ओर दौड़े। शिखण्डी प्रलयकाल की प्रचण्ड अग्नि के समान शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ द्रोण का सामना पड़ने पर भयभीत हो युद्ध छोड़कर चल दिया। प्रजानाथ! तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन महान् यश पाने की इच्छा रखता हुआ अपनी विशाल सेना के साथ भीष्म के पास पहुँचकर उनकी रक्षा करने लगा। राजन् इसी प्रकार पाण्डय भी विजय प्राप्ति के लिये दृढ़ निश्चय करके अर्जुन को आगे कर भीष्म पर ही टूट पड़े। उस युद्ध में विजय तथा अत्यन्त अद्भुत यश की अभिलाषा रखने वाले पाण्डवों का कौरवों के साथ उसी प्रकार भयंकर युद्ध हुआ, जैसे देवताओं का दानवों के साथ हुआ था।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-20
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 69 श्लोक 21-34
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