युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 43वें अध्याय में 'युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होने का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का कौरव सेना में भीष्म के निकट जाना

संजय कहते है- राजन! तदनन्तर अर्जुन को गाण्डीव धनुष और बाण धारण किये देख पाण्डव महारथियों, सोमकों तथा उनके अनुगामी सैनिकों ने पुनः बड़े जोर से सिंहनाद किया। साथ ही उन सभी वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक समुद्र से प्रकट होने वाले शंखों को बजाया। तदनन्तर भेरी, पेशी, क्रकच और नरसिंहे आदि बाजे सहसा बज उठे। इससे वहाँ महान शब्द गूंजने लगा। नरेश्वर! उस समय देवता, गन्धर्व, पितर, सिद्ध, चारण तथा महाभाग महर्षिगण देवराज इन्द्र को आगे करके उस भीषण मार-काट को देखने के लिये एक साथ वहाँ आये। राजन! तदनन्तर वीर राजा युधिष्ठिर ने समुद्र के समान उन दोनों सेनाओं को युद्ध के लिये उपस्थित और चंचल हुई देख कवच खोलकर अपने उत्तम आयुधों को नीचे डाल दिया और रथ से शीघ्र उतरकर वे पैदल ही हाथ जोडे़ पितामह भीष्म को लक्ष्य करके चल दिये। धर्मराज युधिष्ठिर मौन एवं पूर्वाभिमुख हो शत्रुसेना की और चले गये। कुन्तीपुत्र धनंजय उन्हें शत्रु-सेना की ओर जाते देख तुरन्त रथ से उतर पड़े और भाईयों सहित उनके पीछे-पीछे जाने लगे। भगवान श्रीकृष्ण भी उनके पीछे गये तथा उन्हीं में चित्त लगाये रहने वाले प्रधान-प्रधान राजा भी उत्सुक होकर उनके साथ गये। अर्जुन ने पूछा- राजन! आपने क्या निश्चय किया है कि हम लोगों को छोड़कर आप पूर्वाभिमुख हो पैदल ही शत्रुसेना की ओर चल दिये हैं। भीमसेन ने भी पूछा- महाराज! पृथ्वीराज! कवच और आयुध नीचे डालकर भाईयों को भी छोड़कर कवच आदि से सुसज्‍ज्‍ति हुई शत्रु-सेना में कहां जायेंगे? नकुल ने पूछा- भारत! आप मेरे बड़े भाई हैं। आपके इस प्रकार शत्रु सेना की ओर चल देने पर भारी भय मेरे हृदय को पीड़ित कर रहा है। बताईये, आप कहां जायेंगे? सहदेव ने पूछा- नरेश्वर! इस रणक्षेत्र में जहाँ शत्रु सेना का समूह जुटा हुआ है और महान भय उपस्थित है, आप हमे छोड़कर शत्रुओं की ओर कहां जायेंगे?[1]

संजय कहते है- राजन! भाईयों के इस प्रकार कहने पर भी कुरुकुल को आनन्दित करने वाले राजा युधिष्ठिर उनसे कुछ नहींं बोले। चुपचाप चलते ही गये। तब परम बुद्धिमान महामना भगवान वासुदेव ने उन चारों भाईयों से हंसते हुए से कहा- ‘इनका अभिप्राय मुझे ज्ञात हो गया है। ये राजा युधिष्ठिर भीष्म द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और शल्य- इन समस्त गुरुजनों से आज्ञा लेकर शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। सुना जाता है कि प्राचीन काल में जो गुरुजनों की अनुमति लिये बिना ही युद्ध करता था, वह निश्चय ही उन माननीय पुरुषों की दृष्टि में गिर जाता था। जो शास्त्र की आज्ञा के अनुसार माननीय पुरुषों से आज्ञा लेकर युद्ध करता है, उसकी उस युद्ध में अवश्य विजय होती है ऐसा मेरा विश्वास है’। जब भगवान श्रीकृष्ण ये बातें कह रहे थे, उस समय दुर्योधन की सेना की ओर आते हुए युधिष्ठिर को सब लोग अपलक नेत्रों से देख रहे थे। कहीं महान हाहाकार हो रहा था और कहीं दूसरे लोग मुंह से एक शब्द भी नहींं बोलकर चुप हो गये थे। युधिष्ठिर को दूर से ही देखकर दुर्योधन के सैनिक आपस में इस प्रकार बातचीत करने लगे- ‘यह युधिष्ठिर तो अपने कुल का जीता-जागता कलंक ही है। देखो, स्पष्ट ही दिखायी दे रहा है कि वह राजा युधिष्ठिर भयभीत की भाँति भाईयों सहित भीष्म जी के निकट शरण मांगने के लिये आ रहा है। पाण्डुनन्दन धनंजय, वृकोदर भीम तथा नकुल-सहदेव जैसे सहायकों के रहते हुए युधिष्ठिर के मन में भय कैसे हो गया। निश्चय ही यह भूमण्डल में विख्यात क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न नहींं हुआ है। इसका मानसिक बल अत्यन्त अल्प है; इसीलिये युद्ध के अवसर पर इसका हृदय इतना भयभीत है’। तदनन्तर वे सब सैनिक कौरवों की प्रशंसा करने लगे और प्रसन्नचित्त हो हर्ष में भरकर अपने कपड़े हिलाने लगे। प्रजानाथ! आपके वे सब योद्धा भाईयों तथा श्रीकृष्ण सहित युधिष्ठिर की विशेष रूप से निंदा करते थे। राजन! इस प्रकार युधिष्ठिर को धिक्कार देकर पुन: शीघ्र ही चुप हो गयी। सब लोग मन-ही-मन सोचने लगे कि वह राजा क्या कहेगा और भीष्म जी क्या उत्तर देंगे? युद्ध की श्लाघा रखने वाले भीमसेन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन भी क्या कहेंगे?[2]

भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को युद्ध के लिए आज्ञा देना

राजन! दोनों ही सेनाओं में युधिष्ठिर के विषय में महान संशय उत्पन्न हो गया था। सब सोचते थे कि राजा युधिष्ठिर क्या कहना चाहते हैं। बाण और शक्तियों से भरी हुई शत्रु की सेना में घुसकर भाईयों से घिरे हुए युधिष्ठिर तुरंत ही भीष्म जी के पास जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने अपने दोनों हाथों से पितामह के चरणों को दबाया और युद्ध के लिये उपस्थित हुए उन शांतनुनन्दन भीष्म से इस प्रकार कहा। युधिष्ठिर बोले- दुर्धर्ष वीर पितामह! मै आपसे आज्ञा चाहता हूं, मुझे आपके साथ युद्ध करना है। तात! इसके लिये आप आज्ञा और आर्शीवाद प्रदान करें। भीष्म जी बोले- पृथ्वीपते! भरतकुलनन्दन! महाराज! यदि उस युद्ध के समय तुम इस प्रकार मेरे पास नहींं आते तो मैं तुम्हें पराजित होने के लिये शाप दे देता।[2] पाण्डुनन्दन! पुत्र! अब मै प्रसन्न हूँ और तुम्हे आज्ञा देता हूँ। तुम युद्ध करो और विजय पाओ। इसके सिवा और भी जो तुम्हारी अभिलाषा हो, वह इस युद्धभूमि में प्राप्त करो। पार्थ! वर मांगो! तुम मुझसे क्या चाहते हो? महाराज! ऐसी स्थिति में तुम्हारी पराजय नहींं होगी। महाराज! पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। यह सच्ची बात है। मै कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। कुरुनन्दन! इसीलिये आज मै तुम्हारे सामने नपुंसक के समान वचन बोलता हूँ। कौरव! धृतराष्ट्र के पुत्रों ने धन के द्वारा मेरा भरण-पोषण किया है; इसलिये (तुम्हारे पक्ष में होकर) उनके साथ युद्ध करने के अतिरिक्त तुम क्या चाहते हो, यह बताओ।

युधिष्ठिर बोले- महाबाहो! आप सदा मेरा हित चाहते हुए मुझे अच्छी सलाह दें और दुर्योधन के लिये युद्ध करें। मैं सदा के लिये यही वर चाहता हूँ। भीष्म बोले- राजन! कुरुनन्दन! मैं यहाँ तुम्हारी क्या सहायता करूं? युद्ध तो मै इच्छानुसार तुम्हारे शत्रु की ओर से ही करूंगा; अतः बताओ, तुम क्या कहना चाहते हो? युधिष्ठिर बोले- पितामह! आप तो किसी से पराजित होने वाले हैं नहीं, फिर मै आपको युद्ध में कैसे जीत सकूंगा? यदि आप मेरा कल्याण देखते और सोचते हैं तो मेरे हित की सलाह दीजिए। भीष्म ने कहा- कुन्तीनन्दन! मै ऐसे किसी वीर को नहीं देखता, जो संग्रामभूमि में युद्ध करते समय मुझे पराजित कर सके। युद्धकाल में कोई पुरुष, साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो, मुझे परास्त नहींं कर सकता। युधिष्ठिर बोले- पितामह! आपको नमस्कार है। इसलिये अब मैं आप से पूछता हूं, आप युद्ध में शत्रुओं द्वारा अपने मारे जाने का उपाय बताइये। भीष्म बोले- बेटा! जो समरभूमि मुझे जीत ले, ऐसे किसी वीर को मैं नहीं देखता हूँ। अभी मेरा मृत्युकाल भी नहीं आया है; अतः अपने इस प्रश्न का उत्तर लेने के लिये फिर कभी आना।[3]

युधिष्ठिर का द्रोणाचार्य से आज्ञा लेना

संजय बोले- कुरुनन्दन! तदनन्तर महाबाहु युधिष्ठिर ने भीष्म की आज्ञा को शिरोधार्य किया और पुनः उन्हें प्रणाम करते वे द्रोणाचार्य के रथ की ओर गये। सारी सेना देख रही थी और वे उसके बीच से होकर भाईयों सहित द्रोणाचार्य के पास जा पहुँचे। वहाँ राजा ने उन्‍हें प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और उन दुर्जय वीर-शिरोमणि से अपने हित बात पूछी- ‘भगवन! मै सलाह पूछता हूं, किस प्रकार आपके साथ निरपराध एवं पापरहित होकर युद्ध करूंगा? विप्रवर! आपकी आज्ञा से मैं समस्त शत्रुओं को किस प्रकार जीतूं? द्रोणाचार्य बोले- महाराज! यदि युद्ध का निश्चय कर लेने पर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हारी सर्वथा पराजय होने के लिये शाप दे देता। निष्पाप युधिष्ठिर! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुमने मेरा बड़ा आदर किया। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूं, शत्रुओं से लड़ो और विजय प्राप्त करो। महाराज! मैं तुम्हारी कामना पूर्ण करूंगा। तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ क्या है? वर्तमान परिस्थिति में मैं तुम्हारी ओर से युद्ध तो कर नहीं सकता; उसे छोड़कर तुम बताओ, क्या चाहते हो?[3] पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है मैं कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। इसीलिये आज नपुंसक की तरह तुमसे पूछता हूँ कि तुम युद्ध के सिवा और क्या चाहते हो? मै दुर्योधन के लिये युद्ध करुंगा; परन्तु जीत तुम्हारी ही चाहूंगा। युधिष्ठिर बोले- ब्रह्मन! आप मेरी विजय चाहे और मेरे हित की सलाह देते रहे; युद्ध दुर्योधन की ओर से ही करे। यही वर मैंने आप से मांगा है। द्रोणाचार्य ने कहा- राजन! तुम्हारी विजय तो निश्चित है; क्योंकि साक्षात भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे मंत्री है। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध में शत्रुओं को उनके प्राणों से विमुक्त कर दोगे। यहाँ धर्म है, यहाँ श्रीकृष्ण है और जहाँ श्रीकृष्ण है, वही विजय है। कुन्तीकुमार! जाओ, युद्ध करो। और भी पूछो, तुम्हें क्या बताऊँ।

युधिष्ठिर बोले- द्विजश्रेष्ठ! मै आपसे पूछता हूँ। आप मेरे मनोवांछित प्रश्नों को सुनिये। आप किसी से भी परास्त होने वाले नहीं हैं; फिर आपको मैं युद्ध में कैसे जीत सकुंगा? द्रोणाचार्य बोले- राजन! मैं जब तक समरभूमि मैं युद्ध करुंगा, तब तक तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। तुम अपने भाईयों सहित ऐसा प्रयत्न करो, जिससे शीघ्र मेरी मृत्यु हो जाये। युधिष्ठिर बोले- महाबाहु आचार्य! इसलिये अब आप अपने वध का उपाय मुझे बताईये। आपको नमस्कार है। मै आपके चरणों में प्रणाम करके यह प्रश्न कर रहा हूँ। द्रोणाचार्य बोले- तात! जब मैं रथ पर बैठकर कुपित हो बाणों की वर्षा करते हुए युद्ध में संलग्न रहूँ उस समय जो मुझे मार सके, ऐसे किसी शत्रु को नहीं देख रहा हूँ। राजन! जब मैं हथियार डालकर अचेत-सा होकर आमरण अनशन के लिये बैठ जाऊ, उस अवस्था को छोड़कर और किसी समय कोई मुझे कोई मुझे नहीं मार सकता। उसी अवस्था में कोई श्रेष्ठ योद्धा युद्ध में मुझे मार सकता है; यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। यदि मैं किसी विश्वसनीय पुरुष से युद्धभूमि में कोई अत्यन्त अप्रिय समाचार सुन लूं तो हथियार नीचे डाल दूंगा। यह मैं तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ।[4]

युधिष्ठिर का कृपाचार्य व शल्य के निकट जाना

संजय कहते हैं- महाराज! परम बुद्धिमान द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर उनका सम्मान करके राजा युधिष्ठिर कृपाचार्य के पास गये। उन्हें नमस्कार करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने दुर्द्धर्ष वीर कृपाचार्य से कहा- ‘निष्पाप गुरुदेव! मै पापरहित रहकर आपके साथ युद्ध कर सकूं, इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। आपका आदेश पाकर मैं समस्त शत्रुओं को संग्राम में जीत सकता हूँ। कृपाचार्य बोले- महाराज! यदि युद्ध का निश्चर्य कर लेने पर तुम मेरे पास नहीं आते तो मै तुम्हारी सर्वथा पराजय होने के लिये तुम्हे शाप दे देता। पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। मै कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूँ। महाराज! मै निश्चय कर चुका हूँ कि मुझे उन्‍हीं के लिये युद्ध करना है; अतः तुमसे नपुंसक की तरह पूछ रहा हूँ कि तुम युद्ध सम्बन्धी सहयोग को छोड़कर मुझसे क्या चाहते हो?[4] युधिष्ठिर बोले- आचार्य! इसलिये अब मै आपसे पूछता हूँ। आप मेरी बात सुनिये। इतना कहकर राजा युधिष्ठिर व्यथित और अचेत-से होकर उनसे कुछ भी न बोल सके। संजय कहते है- पृथ्वीपते! कृपाचार्य यह समझ गये कि युधिष्ठिर क्या कहना चाहते हैं; अतः उन्होंने उनसे इस प्रकार कहा- ‘राजन! मै अवश्य हूँ। जाओ, युद्ध करो और विजय प्राप्त करो।

‘नरेश्वर! तुम्हारे इस आगमन से बड़ी प्रसन्नता हुई है; अतः सदा उठकर मैं तुम्हारी विजय के लिये शुभकामना करूंगा। यह तुमसे सच्ची बात कहता हूँ। महाराज! प्रजानाथ! कृपाचार्य की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी अनुमति ले जहाँ मद्रराज शल्य थे, उस ओर चले गये। दुर्जय वीर शल्य को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात राजा युधिष्ठिर ने उनसे अपने हित की बात कही- ‘दुर्धर्ष वीर! मै पापरहित एवं निरपराध रहकर आपके साथ युद्ध करुंगा; इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूँ। राजन! आपकी आज्ञा पाकर मैं समस्त शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर सकता हूं’। शल्य बोले- महाराज! यदि युद्ध का निश्चय कर लेने पर तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं युद्ध में तुम्हारी पराजय के लिये तुम्हे शाप दे देता। अब मैं बहुत संतुष्ट हूँ। तुमने मेरा बड़ा सम्मान किया। तुम जो चाहते हो, वह पूर्ण हो। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध करो और विजय प्राप्त करो। वीर! तुम कुछ और बताओ, किस प्रकार तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा? मैं तुम्हें क्या दूं? महाराज! इस परिस्थिति में युद्ध विषयक सहयोग को छोड़कर तुम मुझसे और क्या चाहते हो? पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। महाराज! यह सच्ची बात है। कौरवों के द्वारा मैं अर्थ से बँधा हुआ हूँ। इसलिये मैं तुमसे नपुंसक की भाँति कह रहा हूँ। बताओ, तुम युद्धविषयक सहयोग के सिवा और क्या चाहते हो? मेरे भानजे! मैं तुम्हारा अभीष्ठ मनोरथ पूर्ण करूंगा।

युधिष्ठिर बोले- महाराज! मैं आपसे यही वर माँगता हूँ कि आप प्रतिदिन उत्तम हित की सलाह मुझे देते रहें। अपने इच्छानुसार युद्ध दूसरे के लिये करें। शल्य बोले- नृपश्रेष्ठ! बताओ, इस विषय में मैं तुम्हारी क्या सहायता करूं? कौरवों द्वारा मैं अर्थ से बँधा हुआ हूं; अतः अपने इच्छानुसार युद्ध तो मैं तुम्हारे विपक्षी की ओर से ही करूंगा। युधिष्ठिर बोले- मामा जी! जब युद्ध के लिये उद्योग चल रहा था, उन दिनों आपने मुझे जो वर दिया था, वही वर आज भी मेरे लिये आवश्यक है। सूतपुत्र का अर्जुन के साथ युद्ध हो तो उस समय आपको उसका उत्साह नष्ट करना चाहिये। मामा जी! मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि उस युद्ध में दुर्योधन आप- जैसे शूरवीर को सूतपुत्र के सारथी का कार्य करने के लिये अवश्य नियुक्त करेगा। शल्य बोले- कुन्तीनन्दन! तुम्हारा यह अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। जाओ, निश्चिन्त होकर युद्ध करो। मैं तुम्हारे वचन का पालन करने की प्रतिज्ञा करता हूँ। संजय कहते हैं- राजन! इस प्रकार अपने मामा मद्रराज शल्य की अनुमति लेकर भाईयों से घिरे हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर उस विशाल सेना से बाहर निकल गये।[5]

कृष्ण का कर्ण को समझाना एव पांडवों का लौटना

इसी समय भगवान श्रीकृष्ण उस युद्ध में राधानन्दन कर्ण के पास गये। वहाँ जाकर उन गजाग्रज ने पाण्डवों के हित के लिये उससे इस प्रकार कहा- ‘कर्ण! मैंने सुना है, तुम भीष्म से द्वेष होने के कारण युद्ध नहीं करोगे। राधानन्दन! ऐसी दशा में जब तक भीष्म मारे नहीं जाते हैं, तब तक हम लोगों का पक्ष ग्रहण कर लो। ‘राधेय! जब भीष्म मारे जायें, उसके बाद तुम यदि ठीक समझो तो युद्ध में पुनः दुर्योधन की सहायता के लिये चले जाना’। कर्ण बोला- केशव! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं दुर्योधन की हितैषी हूँ। उसके लिये अपने प्राणों को निछावर किये बैठा हूं; अतः मै उसका अग्रिम कदापि नहीं करूंगा। संजय कहते हैं- भारत! कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण लौट आये और युधिष्ठिर आदि पाण्डवों से जा मिले। तदनन्तर ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने सेना के बीच में खडे़ होकर पुकारा- ‘जो कोई वीर सहायता के हमारे पक्ष में आना स्वीकार करें, उसे मैं भी स्वीकार करुंगा। उस समय आपके पुत्र युयुत्सु ने पाण्डवों की ओर देखकर प्रसन्नचित्त हो धर्मराज कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- ‘महाराज! निष्पाप नरेश! यदि आप मुझे स्वीकार करें तो मैं आप लोगों के लिये युद्ध में धृतराष्ट्र के पुत्रों से युद्ध करुंगा।

युधिष्ठिर बोले- युयुत्स! आओ, आओ। हम सब लोग मिलकर तुम्हारे इन मुर्ख भाईयों से युद्ध करेंगे। यह बात हम और भगवान श्रीकृष्ण सभी कह रहे हैं। महाबाहो! मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये युद्ध करो। राजा धृतराष्ट्र की वंशपरम्परा तथा पिण्डोदक-क्रिया तुम पर ही अवलम्बित दिखायी देती है। महातेजस्वी राजकुमार! हम तुम्हें अपनाते हैं। तुम भी हमे स्वीकार करो। अत्यन्त क्रोधी दुर्बुद्धि दुर्योधन अब इस संसार में जीवित नहीं रहेगा। संजय कहते है- राजन! तदनन्तर युयुत्सु युधिष्ठिर की बात को सच मानकर आपके सभी पुत्रों को त्याग कर डंका पीटता हुआ पाण्डवों की सेना में चला गया। वह दुर्योधन के पापकर्म की निन्दा करता हुआ युद्ध का निश्चय करके पाण्डवों के साथ उन्हीं की सेना में रहने लगा। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने भाईयों सहित अत्यन्त प्रसन्न हो सोने का बना हुआ चमकीला कवच धारण किया। फिर वे सभी श्रेष्ठ पुरुष अपने-अपने रथ पर आरुढ़ हुए; इसके बाद उन्होंने पुनः शत्रुओं के मुकाबले में पहले की भाँति ही अपनी सेना की व्यूह-रचना की। उन श्रेष्ठ पुरुषों ने सैकड़ों दुन्दुभियां और नगाड़े बजाने तथा अनेक प्रकार से सिंह-गर्जनाएं की।

पुरुषसिंह पाण्डवों को पुनः रथ पर बैठे देख धृष्टद्युम्न आदि राजा बड़े हुए। माननीय पुरुषों का सम्मान करने वाले पाण्डवों के उस गौरवों को देखकर सब भूपाल उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। सब राजा महात्मा पाण्डवों के सौहार्द, कृपाभाव, समयो-चित कर्तव्य के पालन तथा कुटुम्बियों के प्रति परम दयाभाव की चर्चा करने लगे। यशस्वी पाण्डवों के लिये सब ओर से उनकी स्तुति प्रशंसा से भरी हुई ‘साधु-साधु’ की बातें निकलती थी। उन्हें ऐसी पवित्र वाणी सुनने को मिलती थी, जो मन और हृदय के हर्ष को बढ़ाने वाली थी। वहाँ जिन-जिन म्लेच्छों और आर्यो ने पाण्डवों का वह बर्ताव देखा तथा सुना, वे सब गद्गदकण्ठ होकर रोने लगे। तदनन्तर हर्ष में भरे हुए सभी मनस्वी पुरुषों ने सैकड़ों और हजारों बड़ी-बड़ी भेरियों तथा गोदुग्ध के समान श्वेत शंखों को बजाया।[6]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 20-38
  3. 3.0 3.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 39-55
  4. 4.0 4.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 56-72
  5. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 73-88
  6. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 89-109

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भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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