- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 33वें अध्याय में 'आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन' हुआ हैं, जो इस प्रकार है-[1]
सम्बन्ध - अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करते हुए भगवान् ने अर्जुन को चौथे से छठै श्लोक तक प्रभाव सहित सगुण- निराकार स्वरूप से तत्व समझाया। फिर उसके बाद सातवें से दसवें श्लोक तक सृष्टि रचनादि समस्त कर्मो की दिव्यता के तत्वों को बतलाया। अब कृष्ण अपने सगुण साकार रूप का महत्त्व‚ उसकी भक्ति का प्रकार और उसके गुण और प्रभाव का तत्त्व समझाने के लिये पहले दो श्लोको में उसके प्रभाव को न जानने वाले असुर प्रकृति के मनुष्यों की निन्दा करते हैं।
कृष्ण कहते हैं -हे अर्जुन! मेरे परम भाव को न जानने वाले[2] मूढ[3] लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिये मनुष्य रूप से विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं।[4] वे व्यर्थ आशा‚[5] व्यर्थ कर्म[6] और व्यर्थ ज्ञान वाले[7] विक्षिप्त चित्त अज्ञानीजन राक्षसी‚ आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं।[8]
सम्बन्ध - भगवान् का प्रभाव न जानने वाले आसुरी प्रकृति के मनुष्यों की निन्दा करके अब सगुण रूप की भक्ति का तत्त्व समझाने के लिये भगवान् के प्रभाव को जानने वाले‚ दैवी प्रकृति आश्रित‚ उच्च श्रेणी के अनन्य भक्तों के लक्षण बतलाते हैं कृष्ण कहते हैं -परन्तु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के आश्रित[9] महात्माजन[10] मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाश रहित अक्षर स्वरूप जानकर[11] अनन्य मन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।[12][1] वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरन्तर[13] मेरे नाम और गुणों[14] का कीर्तन[15] करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिये यत्न[16] करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम[17] करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त[18] होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।[19]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 9-13
- ↑ चौथे से छठे श्लोक तक भगवान् के जिस ‘सर्वव्यापकʼ आदि प्रभाव का वर्णन किया गया है जिसको ‘ऐश्वर योगʼ कहा है तथा गीता के सातवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में जिस ‘परम भावʼ को न जानने की बात कही हैं‚ भगवान के उस सर्वोत्तम प्रभाव का ही वाचक यहाँ ‘परमʼ विशेषण के सहित ‘भावʼ शब्द है। सर्वाधार‚ सर्वव्यापी‚ सर्वशक्तिमान और सबके हर्ताकर्ता परमेश्वर ही सब जीवों पर अनुग्रह करके सबको अपनी शरण प्रदान करने और धर्म- संस्थापन‚ भक्त उद्धार आदि अनेकों लीला-कार्य करने के लिये अपनी योग माया से मनुष्य रूप में अवतीर्ण हुए हैं (गीता 4।6‚ 7‚ 8) इस रहस्य को न समझना और इस पर विश्वास न करना ही उस परम भाव को न जानना है।
- ↑ गीता के सोलहवें अध्याय के चौथे तथा सातवें से बीसवें श्लोक तक जिनके विविध लक्षण बतलाये गये हैं‚ ऐसे ही आसुरी सम्पदा वाले मनुष्यों के लिये ‘मूढ़ा:ʼ पद का प्रयोग हुआ है।
- ↑ महाभारत में भीष्म पर्व के छासठवें अध्याय में बतलाया है-‘‘सब लोकों के महान ईश्वर भगवान् वासुदेव सब के पूजनीय हैं। उन महान् वीर्यवान शंख चक्र गदाधारी वासुदेव को मनुष्य समझकर कभी भी उनकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिये। वे ही परम गुह्म‚ परम पद, परम ब्रह्म और परम यश: स्वरूप हैं। वे ही अक्षर हैं अव्यक्त हैं‚ सनातन हैं‚ परम तेज हैं‚ परम सुख हैं‚ और परम सत्य हैं। देवता‚ इन्द्र और मनुष्य‚ किसी को भी उन अमित पराक्रमी प्रभु वासुदेव को मनुष्य मानकर उनका अनादर नहीं करना चाहिये। जो मूढमति लोग उन हृषीकेश को मनुष्य बतलाते हैं‚ वे नराधम हैं। जो मनुष्य इन महात्मा योगेश्वर को मनुष्य देहधारी मानकर इनका अनादर करते हैं और जो इन चराचर के आत्मा श्रीवत्स के चिह्न वाले महान तेजस्वी पद्मनाभ भगवान् को नहीं पहचानते वे तामसी प्रकृति से युक्त हैं। जो इन कौस्तुभ किरीटधारी और मित्रों को अभय करने वाले भगवान् का अपमान करता है‚ वह अत्यन्त भयानक नरक में पड़ता है।
- ↑ भगवान् के प्रभाव को न जानने वाले आसुर मनुष्य ऐसी निरर्थक आशाएं करते रहते हैं‚ जो कभी पूर्ण नहीं होतीं (गीता 16।10 से 12) इसीलिये उनको ‘मोघाशाʼ कहते हैं।
- ↑ भगवान् और शास्त्रों पर विश्वास न करने वाले लोग शास्त्र विधि का त्याग करके अश्रद्धापूर्वक जो मनमाने यज्ञादि कर्म करते हैं‚ उन कर्मो का उन्हें इस लोक या परलोक में कुछ भी फल नहीं मिलता। (गीता 16।17‚23;17।28) इसीलिये उनको ‘मोघकर्माण:ʼ कहा गया है।
- ↑ जिनका ज्ञान व्यर्थ हो‚ तात्विक अर्थ से शून्य हो और युक्तियुक्त न हो (गीता 28।22)‚ उनको ‘मोघज्ञाना:ʼ कहते है।
- ↑ राक्षसों की भाँति बिना ही कारण के दूसरों के अनिष्ठ करने का और उन्हें कष्ट पहॅुचाने का स्वभाव है‚ उसे ‘राक्षसी प्रकृतिʼ कहते हैं। काम और लोभ के वश होकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दूसरों को क्लेश पहॅुचाने और उनके स्वतहरण करने का जो स्वभाव है‚ उसे ‘आसुरी प्रकृति‘ कहते हैं और प्रमाद या मोह के कारण किसी भी प्राणी को दुःख पहॅुचाने का जो स्वभाव है‚ उसे ‘मोहिनी प्रकृतिʼ कहते हैं। ऐसे दुष्ट स्वभाव का त्याग करने के लिये चेष्टा न करना‚ वरं उसी को उत्तम समझकर पकड़े रहना ही ‘उसे धारण करनाʼ कहते हैं। भगवान् के प्रभाव को न जानने वाले मनुष्य प्रायः ऐसा ही करते हैं‚ इसीलिये उनको उक्त प्रकृतियों के आश्रित बतलाया है।
- ↑ देव अर्थात भगवान् से सम्बन्ध रखने वाले और उनकी प्राप्ति करा देने वाले जो सात्त्विक गुण और आचरण हैं‚ गीता के सोलहवें अध्याय में पहले से तीसरे श्लोक तक जिनका अभय आदि छब्बीस नामों से वर्णन किया गया है‚ उन सबको भली-भाँति धारण कर लेना ही ‘दैवी प्रकृति के आश्रित होनाʼ है।
- ↑ यहाँ ‘‘महात्मानःʼ पद का प्रयोग उन निष्काम अनन्य प्रेमी भगवद भक्तों के लिये किया गया है‚ जो भगवत्प्रेम में सदा सरोबार रहते हैं और भगवत्प्राप्ति के सर्वथा योग्य हैं।
- ↑ ‘‘माम्ʼ पद यहाँ भगवान् के सगुण पुरुषोत्तम रूप का वाचक है। उस सगुण परमेश्वर से शरीर‚ इन्द्रिय‚ मन‚ बुद्धि‚ भोगसामग्री और सम्पूर्ण लोकों के सहित समस्त चराचर प्राणियों की उत्पत्ति‚ पालन और संहार होता है (गीता 7।6; 9।18;10।2‚4‚5‚6‚8) इस तत्व को सम्यक् प्रकार से समझ लेना ही भगवान् को ‘सब भूतों का आदिʼ समझना है और वे भगवान् अजन्मा तथा अविनाशी हैं‚ केवल लोगो पर अनुग्रह करने के लिये ही लीला से मनुष्य आदि रूप में प्रकट और अन्तर्धान होते है; उन्हीं को अक्षर‚ अविनाशी परब्रह्म परमात्मा कहते हैं और समस्त भूतों का नाश होने पर भी भगवान् का नाश नहीं होता (गीता 8।20) इस बात को यथार्थतः समझना ही ‘भगवान् को अविनाशी समझनाʼ है।
- ↑ जिनका मन भगवान् के सिवा अन्य किसी भी वस्तुओं में नही रमता और क्षण मात्र का भी भगवान् का वियोग जिनको असह्य प्रतीत होता है‚ ऐसे भगवान् के अनन्य प्रेमी भक्त निरन्तर भगवान् को भजते रहते हैं।
- ↑ ‘‘सततमʼ पद यहाँ ‘नित्य निरन्तरʼ समय का वाचक है और इसका खास सम्बन्घ उपासना के साथ है। कीर्तन नमस्कार आदि सब उपासना के ही अगं होने के कारण प्रकारन्तर से उन सबके साथ भी इसका सम्बन्घ हैं। अभिप्राय यह है कि भगवान् के प्रेमी भक्त कभी कीर्तन करते हुए‚ कभी नमस्कार करते हुए‚ कभी सेवा आदि प्रयत्न करते हुए तथा सदा सर्वदा भगवान् का चिन्तन करते हुए निरन्तर उनकी उपासना करते रहते हैं।
- ↑ ‘यतन्तःʼ पद का यह भाव है कि वे प्रेमी भक्त भगवान् की पूजा सबको भगवान् का स्वरूप समझकर उनकी सेवा और भगवान् के भक्तों द्वारा भगवान् के गुण‚ प्रभाव और चरित्र आदि का श्रवण आदि उत्साह और तत्परता के साथ करते रहते हैं।
- ↑ कथाए, व्याख्यान आदि के द्वारा भक्तों के सामने भगवान् के गुण, प्रभाव, महिमा और चरित्र आदि का वर्णन करना; अकेले अथवा दूसरे बहुत से लोगो के साथ मिलकर, भगवान् को अपने सम्मुख समझते हुए उनके पवित्र नामों का जप अथवा उच्चस्वर से कीर्तन करना; और दिव्य स्तोत्र तथा सुन्दर पदों के द्वारा भगवान् की स्तुति प्रार्थना करना आदि भगवन्नाम - गुणगान सम्बन्धी सभी चेष्टाएं कीर्तन के अन्तर्गत है।
- ↑ भगवान् के प्रेमी भक्तों का निश्चय‚ उनकी श्रद्धा‚ उनके विचार और नियम - सभी अत्यन्त दृढ़ होते हैं। बड़ी से बड़ी विपत्तियों और प्रबल विघ्नों के समूह भी उन्हें अपने साधन और विचार से विचलित नहीं कर सकते। इसीलिये उनको ‘दृढ़व्रताःʼ (दृढ निश्चयवाले) कहा गया है।
- ↑ भगवान् के मन्दिरों में जाकर अर्चा-विग्रह रूप भगवान् को, अपने घर में भगवान् की प्रतिमा या चित्रपट को, भगवान के नामों को, भगवान् के चरण और चरण पादुकोणओं को, एवं सबको भगवान् का स्वरूप समझकर या सबके हृदय में भगवान् विराजित हैं - ऐसा जानकर सम्पूर्ण प्राणियो को यथा योग्य विनयपूर्वक श्रद्धा - भक्ति के साथ गदगद होकर मन, वाणी और शरीर के द्वारा नमस्कार करना - यही ‘भगवान को प्रणाम करना’ है।
- ↑ जो चलते फिरते‚ उठते बैठते‚ सोते-जागते और सब कुछ करते समय तथा एकान्त में ध्यान करते समय नित्य निरन्तर भगवान् का चिन्तन करते रहते हैं, उन्हें ‘नित्ययुकतात्ः’ कहते हैं।
- ↑ श्रद्धा और अनन्य प्रेम के साथ उपर्युक्त साधनों को निरन्तर करते रहना ही अनन्य प्रेम से भगवान् की उपासना करना है।
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भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना
| कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ
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| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध
| भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध
| शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम
| विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम
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| कौरव सेना की व्यूह रचना
| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
| भीष्म और अर्जुन का युद्ध
| धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध
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| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
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| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
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| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
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| अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति
| भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन
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| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
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| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
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| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
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| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
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| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
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| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
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| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
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| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
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| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
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| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
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| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
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| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
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| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
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| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
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| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
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