- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 36वें अध्याय में 'भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
संजय द्वारा भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन
संबंध- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान की प्राप्ति के लिये अलग-अलग साधन बतलाकर उनका फल परमेश्वर की प्राप्ति बतलाया गया, अतएव भगवान को प्राप्त हुए सिद्ध भक्तों के लक्षण जानने की इच्छा होने पर अब सात श्लोकों में उन भगवत्प्राप्त भक्तों के लक्षण बतलाये जाते हैं- जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है[2] तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, दु:खों की प्राप्ति में सम[3] और क्षमावान[4] है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट है,[5] मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है[6] और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है,[7] वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला[8] मेरा भक्त मुझको प्रिय है।[9]
जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता[10] और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता[11] तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है,[12] वह भक्त मुझको प्रिय है। जो पुरुष आकांक्षा से रहित,[13] बाहर-भीतर से शुद्ध,[14] चतुर,[15] पक्षपात से रहित और दु:खों से छूटा हुआ है,[16] वह सब आरम्भों का त्यागी[17] मेरा भक्त मुझको प्रिय है।[1] जो न कभी हर्षित होता है,[18] न द्वेष करता है,[19] न शोक करता है,[20] न कामना करता है[21] तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है,[22] वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है।[23]
जो शत्रु-मित्र में[24] और मान-अपमान में सम है तथा सरदी-गरमी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों में सम है[25] और आसक्ति से रहित है। जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला,[26] मननशील[27] और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है[28] तथा रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है, वह स्थिर बुद्धि[29]भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है।[30] संबंध- परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध भक्तों के लक्षण बतलाकर अब उन लक्षणों को आदर्श मानकर बड़े प्रयत्न के साथ उनका भलीभाँति सेवन करने वाले, परम श्रद्धालु, शरणागत भक्तों की प्रशंसा करने के लिये, उनको अपना अत्यंत प्रिय बतलाकर भगवान इस अध्याय का उपसंहार करते हैं। परंतु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर[31] इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को[32] निष्काम प्रेम-भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।[33][23]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 36 श्लोक 12-16
- ↑ भक्ति के साधक में आरम्भ से ही मैत्री और दया के भाव विशेषरूप रहते हैं, इसलिये सिद्धावस्था में भी उसके स्वभाव और व्यवहार में वे सहज ही पाये जाते हैं। जैसे भगवान में हेतुरहित अपार दया और प्रेम आदि रहते हैं, वैसे ही उनके सिद्ध भक्त में भी इनका रहना उचित ही है।
- ↑ यहाँ ‘सुख-दु:ख’ हर्ष-शोक के हेतुओं के वाचक हैं न कि हर्ष-शोक के; क्योंकि सुख-दु:ख से उत्पन्न होने वाले विकारों का नाम हर्ष-शोक है। अज्ञानी मनुष्यों की सुख में आसक्ति होती है, इस कारण सुख की प्राप्ति में उनको हर्ष होता है और दु:ख में उनका द्वेष होता है, इसलिये उसकी प्राप्ति में उनको शोक होता है; पर ज्ञानी भक्त का सुख और दु:ख समभाव हो जाने के कारण किसी भी अवस्था में उसके अंत:करण में हर्ष, शोक आदि विकार नहीं होते। श्रुति में भी कहा है- ‘हर्ष-शोकौ जहाति’ (कठोपनिषद 1। 2।12), अर्थात 'ज्ञानी पुरुष हर्ष-शोकों को सर्वथा त्याग देता है।’ प्रारब्ध-भोग के अनुसार शरीर में रोग हो जाने पर उनको पीड़ारूप दु:ख का बोध तो होता है और शरीर स्वस्थ रहने से उसमें पीड़ा के अभाव का बोधरूप सुख भी होता है, किंतु राग-द्वेष का अभाव होने के कारण हर्ष और शोक उन्हें नहीं होते। इसी तरह किसी भी अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थ या घटना के संयोग-वियोग में किसी प्रकार से भी उनको हर्ष-शोक नहीं होते। यही उनका सुख-दु:ख में सम रहना है।
- ↑ अपना अपकार करने वाले को किसी प्रकार का दण्ड देने की इच्छा न रखकर उसे अभय देने वाले को ‘क्षमावान’ कहते हैं। भगवान के ज्ञानी भक्तों में क्षमाभाव भी असीम रहता है। क्षमा की व्याख्या गीता के दसवें अध्याय के चौथे श्लोक की टिप्पणी में विस्तार से की गयी है।
- ↑ भक्तियोग के द्वारा भगवान को प्राप्त हुए ज्ञानी भक्तों को यहाँ ‘योगी’ कहा गया है; ऐसा भक्त परमानंद के अक्षय और अनंत भण्डार श्रीभगवान को प्रत्यक्ष कर लेता है, इस कारण वह सदा ही संतुष्ट रहता है। उसे किसी समय, किसी भी अवस्था में, किसी भी घटना में संसार की किसी भी वस्तु के अभाव में असंतोष का अनुभव नहीं होता; क्योंकि वह पूर्णकाम है, यही उसका निरंतर संतुष्ट रहना है।
- ↑ इससे यह भाव दिखलाया है कि भगवान के ज्ञानी भक्तों का मन और इन्द्रियों सहित शरीर सदा ही उनके वश में रहता है। वे कभी मन और इन्द्रियों के वश में नहीं हो सकते, इसी से उनमें किसी प्रकार के दुर्गुण और दुराचार की सम्भावना नहीं होती।
- ↑ जिसने बुद्धि के द्वारा परमेश्वर के स्वरूप का भलीभाँति निश्चय कर लिया है, जिसे सर्वत्र भगवान का प्रत्यक्ष अनुभव होता है तथा जिसकी बुद्धि गुण, कर्म और दु:ख आदि के कारण परमात्मा के स्वरूप से कभी किसी प्रकार विचलित नहीं हो सकती, उसको ‘दृढ़निश्चय’ कहते हैं।
- ↑ नित्य-निरंतर मन से भगवान के स्वरूप का चिंतन और बुद्धि से उसका निश्चय करते-करते मन और बुद्धि का भगवान के स्वरूप में सदा के लिये तन्मय हो जाना ही उनको ‘भगवान में अर्पण करना’ है।
- ↑ जो उपर्युक्त लक्षणों से सम्पन्न है; जिसका भगवान में अहैतुक और अनन्य प्रेम है, जिसकी भगवान के स्वरूप में अटल स्थिति है, जिसका कभी भगवान से वियोग नहीं होता, जिसके मन-बुद्धि भगवान के अर्पित हैं, भगवान ही जिसके जीवन, धन, प्राण एवं सर्वस्व है, जो भगवान के ही हाथ की कठपुतली है-ऐसे सिद्ध भक्त को भगवान अपना प्रिय बतलाते हैं।
- ↑ सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने के कारण भक्त जान-बूझकर तो किसी को दु:ख, संताप, भय और क्षोभ पहुँचा ही नहीं सकता, बल्कि उसके द्वारा तो स्वाभाविक ही सबकी सेवा और परम हित ही होते हैं। अतएव उसकी ओर से किसी को कभी उद्वेग नहीं होना चाहिये। यदि भूल से किसी व्यक्ति को उद्वेग होता है तो उससे उस व्यक्ति के अपने अज्ञानजनित राग, द्वेष और ईर्ष्यादि दोष ही प्रधान कारण हैं, भगवद्भक्त नहीं; क्योंकि जो दया और प्रेम की मूर्ति है एवं दूसरों का हित करना ही जिसका स्वभाव है, वह परम दयालु प्रेमी भगवत्प्राप्त भक्त तो किसी के उद्वेग का कारण हो ही नहीं सकता।
- ↑ ज्ञानी भक्त को भी प्रारब्ध के अनुसार परेच्छा से दु:ख के निमित्त तो प्राप्त हो सकते हैं, परंतु उसमें राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण बडे़-से-बडे़ दु:ख की प्राप्ति में भी वह विचलित नहीं होता (गीता 6:22); इसीलिये ज्ञानी भक्त को किसी भी प्राणी से उद्वेग नहीं होता।
- ↑ अभिप्राय यह है कि वास्तव में मनुष्य को अपने अभिलषित मान, बड़ाई और धन आदि वस्तुओं की प्राप्ति होने पर जिस तरह हर्ष होता है, उसी तरह अपने ही समान या अपने से अधिक दूसरों को भी उन वस्तुओं की प्राप्ति होते देखकर प्रसन्नता होनी चाहिये; किंतु प्राय: ऐसा न होकर अज्ञान के कारण लोगों को उलटा अमर्ष होता है और यह अमर्ष विवेकशील पुरुषों के चित्त में भी देखा जाता है। वैसे ही इच्छा, नीति और धर्म के विरुद्ध पदार्थों की प्राप्ति होने पर उद्वेग तथा नीति और धर्म के अनुकूल भी दु:खप्रद पदार्थों की प्राप्ति होने पर या उसकी आशंका से भय होता देखा जाता है। दूसरों की तो बात ही क्या, मृत्यु का भय तो विवेकियों को भी होता है; किंतु भगवान के ज्ञानी भक्त की सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाती है और वह सम्पूर्ण क्रियाओं को भगवान की लीला समझता है; इस कारण ज्ञानी भक्त को न अमर्ष होता है, न उद्वेग होता है और न भय ही होता है- यह भाव दिखलाने के लिये ऐसा कहा गया है।
- ↑ परमात्मा को प्राप्त भक्त का किसी भी वस्तु से किंचित भी प्रयोजन नहीं रहता; अतएव उसे किसी तरह की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा, स्पृहा अथवा वासना नहीं रहती। वह पूर्ण काम हो जाता है। यह भाव दिखलाने के लिये उसे आकांक्षा से रहित कहा है।
- ↑ भगवान के भक्त में पवित्रता की पराकाष्ठा होती है। उसके मन, बुद्धि, इन्द्रिय, उनके आचरण और शरीर आदि इतने पवित्र हो जाते हैं कि उसके साथ वार्तालाप होने पर तो कहना ही क्या है- उसके दर्शन और स्पर्शमात्र से ही दूसरे लोग पवित्र हो जाते हैं। ऐसा भक्त जहाँ निवास करता है, वह स्थान पवित्र हो जाता है और उसके संग से वहाँ का वायुमण्डल, जल, स्थल आदि सब पवित्र हो जाते हैं।
- ↑ जिस उद्देश्य की सफलता के लिये मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई है, उस उद्देश्य को पूरा कर लेना ही यथार्थ चतुरता है।
- ↑ शरीर में रोग आदि का होना, स्त्री-पुत्र आदि का वियोग होना और धन-गृह आदि की हानि होना-इत्यादि दु:ख के हेतु तो प्रारब्ध के अनुसार उसे प्राप्त होते हैं, परंतु इन सबके होते हुए भी उसके अंत:करण में किसी प्रकार का शोक नहीं होता।
- ↑ संसार में जो कुछ भी हो रहा है- सब भगवान की लीला है, सब उनकी मायाशक्ति का खेल है; वे जिससे जब जैसा करवाना चाहते हैं, वैसा ही करवा लेते हैं। मनुष्य मिथ्या ही ऐसा अभिमान कर लेता है कि अमुक कर्म मैं करता हूं, मेरी ऐसी सामर्थ्य है, इत्यादि। पर भगवान का भक्त इस रहस्य को भलीभाँति समझ लेता है, इससे वह सदा भगवान के हाथ की कठपुतली बना रहता है। भगवान उसको जब जैसा नचाते हैं, वह प्रसन्नतापूर्वक वैसे ही नाचता है। अपना तनिक भी अभिमान नहीं रखता और अपनी ओर से कुछ भी नहीं करता, इसलिये वह लोक दृष्टि में सब कुछ करता हुआ भी वास्तव में कर्तापन के अभिमान से रहित होने के कारण ‘सब आरम्भों का त्याग’ ही है।
- ↑ भक्त के लिये सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, परम दयालु भगवान ही परम प्रिय वस्तु हैं और वह उन्हें सदा के लिये प्राप्त है। अतएव वह सदा-सर्वदा परमानंद में स्थित रहता है। संसार की किसी वस्तु में उसका किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष नहीं होता। इस कारण लोकदृष्टि से होने वाले किसी प्रिय वस्तु के संयोग से या अप्रिय के वियोग से उसके अंत:करण में कभी किंचिन्मात्र भी हर्ष का विकार नहीं होता।
- ↑ भगवान का भक्त सम्पूर्ण जगत को भगवान का स्वरूप समझता है, इसलिये उसका किसी भी वस्तु या प्राणी में कभी किसी भी कारण से द्वेष नहीं हो सकता। उसके अंत:करण में द्वेषभाव का सदा के लिये सर्वथा अभाव हो जाता है।
- ↑ अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति में और इष्ट के वियोग में प्राणियों को शोक हुआ करता है। भगवद्भक्त को लीलामय परम दयालु परमेश्वर की दया से भरे हुए किसी भी विधान में कभी प्रतिकुलता प्रतीत ही नहीं होती। अत: उसे शोक कैसे हो सकता है?
- ↑ भक्त को साक्षात भगवान की प्राप्ति हो जाने के कारण वह सदा के लिये परमानंद और परम शांति में स्थित होकर पूर्णकाम हो जाता है, उसके मन में कभी किसी वस्तु के अभाव का अनुभव होता ही नहीं, इसलिये उसके अंत:करण में सांसारिक वस्तुओं की आकांक्षा होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता।
- ↑ यज्ञ, दान, तप और वर्णाश्रम के अनुसार जीविका तथा शरीर-निर्वाह के लिये किये जाने वाले शास्त्रविहित कर्मों का वाचक यहाँ ‘शुभ’ शब्द है और शूठ, कपट, चोरी, हिंसा, व्यभिचार आदि पापकर्म का वाचक ‘अशुभ’ शब्द है। भगवान का ज्ञानी भक्त इन दोनों प्रकार के कर्मों का त्यागी होता है; क्योंकि उसके शरीर, इन्द्रिय और मन के द्वारा किये जाने वाले समस्त शुभकर्मों को वह भगवान के समर्पण कर देता है। उनमें उसकी किंचिन्मात्र भी ममता, आसक्ति या फलेच्छा नहीं रहती; इसलिये ऐसे कर्म कर्म ही नहीं माने जाते (गीता 4:20) और राग द्वेष का अभाव हो जाने के कारण पापकर्म उसके द्वारा होते ही नहीं, इसलिये उसे ‘शुभ और अशुभ कर्मों का त्यागी’ कहा गया है।
- ↑ 23.0 23.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 36 श्लोक 17-20
- ↑ यद्यपि भक्त की दृष्टि में उसका कोई शत्रु-मित्र नहीं होता, तो भी लोग अपनी-अपनी भावना के अनुसार मूर्खतावश भक्त के द्वारा अपना अनिष्ट होता हुआ समझकर या उसका स्वभाव अपने अनुकूल न दिखने के कारण अथवा ईर्ष्यावश उसमें शत्रुभाव का भी आरोप कर लेते हैं, ऐसे ही दूसरे लोग अपनी भावना के अनुसार उसमें मित्रभाव का आरोप कर लेते हैं; परंतु सम्पूर्ण जगत में सर्वत्र भगवान के दर्शन करने वाले भक्त का सबमें सम्भाव ही रहता है। उसकी दृष्टि में शत्रु-मित्र का किंचित भी भेद नहीं रहता, वह तो सदा-सर्वदा सबके साथ परम प्रेम का ही व्यवहार करता रहता है। सबको भगवान का स्वरूप समझकर समभाव से सबकी छाया सेवा करना ही उसका स्वभाव बन जाता है। जैसे वृक्ष अपने को काटने वाले और जल सींचने वाले दोनों को ही छाया, फल ओर फूल आदि के द्वारा सेवा करने में किसी प्रकार का भेद नहीं करता, वेसे ही भक्त में भी किसी तरह का भेदभाव नहीं रहता। भक्त का समत्व वृक्ष की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व का होता है। उसकी दृष्टि में परमेश्वर से भिन्न कुछ भी न रहने के कारण उसमें भेदभाव की आशंका ही नहीं रहती। इसलिये उसे शत्रु-मित्र में सम कहा गया है।
- ↑ मान-अपमान, सरदी-गरमी, सुख-दु:ख आदि अनुकूल ओर प्रतिकूल द्वन्द्वों का मन, इन्द्रिय और शरीर के साथ संबंध होने से उनका अनुभव होते हुए भी भगवद्भक्त के अंत:करण में राग-द्वेष या हर्ष-शोक आदि किसी तरह का किंचिन्मात्र भी विकार नहीं होता। वह सदा सम रहता है।
- ↑ भगवान के भक्त का अपने नाम और शरीर में किंचिन्मात्र भी अभिमान या ममत्व नहीं रहता। इसलिये न तो उसको स्तुति से हर्ष होता है और न निंदा से किसी प्रकार का शोक ही होता है। उसका दोनों में ही समभाव रहता है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने के कारण स्तुति करने वालों और निंदा करने वालों में भी उसकी जरा भी भेद-बुद्धि नहीं होती। यही उसका निंदा-स्तुति को समान समझना है।
- ↑ मनुष्य केवल वाणी से ही नहीं बोलता, मन से भी बोलता रहता है। विषयों का अनवरत चिंतन ही मन का निरंतर बोलना है। भक्त का चित्त भगवान में इतना संलग्न हो जाता है कि उसमें भगवान के सिवा दूसरे की स्मृति ही नहीं होती, वह सदा-सर्वदा भगवान के ही मनन में लगा रहता है; यही वास्तविक मौन है। बोलना बंद कर दिया जाय और मन से विषयों का चिंतन होता रहे- ऐसा मौन बाह्य मौन है। मन को निर्विषय करने तथा वाणी को परिशुद्ध और संयत बनाने के उद्देश्य से किया जाने वाला बाह्य मौन भी लाभदायक होता है; परंतु यहाँ भगवान के प्रिय भक्त के लक्षणों का वर्णन है, उसकी वाणी तो स्वाभाविक ही परिशुद्ध और संयत है। इससे ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसमे केवल वाणी का ही मौन है; बल्कि उस भक्त की वाणी से तो प्राय: निरंतर भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन ही हुआ करता है, जिससे जगत का परम उपहार होता है। इसके सिवा भगवान अपनी भक्ति का प्रचार भी भक्तों द्वारा ही करवाया करते हैं। अत: वाणी से मौन रहने वाला भगवान का प्रिय भक्त होता है और बोलने वाला नहीं होता, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। गीता के अठाहरवें अध्याय के अड़सठवें और उनहत्तरवें श्लोक में भगवान ने गीता के प्रचार करने वाले को अपना सबसे प्रिय कार्य करने वाला कहा है, यह महत्व कार्य वाणी के मौनी से नहीं हो सकता। इसके सिवा गीता के सत्रहवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में मानसिक तप के लक्षणों में भी ‘मौन’ शब्द आया है। यदि भगवान को ‘मौन’ शब्द का अर्थ वाणी का मौन अभीष्ट होता तो वे उसे वाणी के तप के प्रसंग में कहते; परंतु ऐसा नहीं किया, इससे भी यही सिद्ध है कि मुनिभाव का नाम ही मौन है और यह मुनिभाव जिसमें होता है, वही मौनी या मननशील है। वाणी का मौन मनुष्य हठ से भी कर सकता है, इसलिये यह कोई विशेष महत्व की बात भी नहीं है। अत: यहाँ ‘मौन’ शब्द का अर्थ वाणी का मौन न मानकर मन की मनन शीलता ही मानना उचित है। वाणी का संयम तो इसके अंतर्गत आप ही आ जाता है।
- ↑ भक्त अपने परम इष्ट भगवान को पाकर सदा ही संतुष्ट रहता है। बाहरी वस्तुओं के आने-जाने से उसकी तुष्टि में किसी प्रकार का अंतर नहीं पड़ता। प्रारब्धानुसार सुख-दु:खादि के हेतु भूत जो कुछ भी पदार्थ उसे प्राप्त होते हैं, वह उन्हीं में संतुष्ट रहता है।
- ↑ भक्त को भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन हो जाने के कारण उसके सम्पूर्णसंशय समूल नष्ट हो जाते हैं, उसका निश्चय अटल और निश्चल होता है। अत: वह साधारण मनुष्यों की भाँति काम, क्रोध, लोभ, मोह या भय आदि विकारों के वश में होकर धर्म से या भगवान के स्वरूप से कभी विचलित नहीं होता।
- ↑ उपर्युक्त सभी लक्षण भगवद्भक्तों के हैं तथा सभी शास्त्रानुकूल और श्रेष्ठ हैं, परंतु स्वभाव आदि के भेद से भक्तों के भी गुण और आचरणों में थोड़ा-बहुत अंतर रह जाना स्वाभाविक है। सबमें सभी लक्षण एक-से नहीं मिलते। इतना अवश्य है कि समता और शांति सभी में होती है तथा राग-द्वेष और हर्ष-शोक आदि विकार किसी में भी नहीं रहते। इसीलिये इन श्लोकों में पुनरूक्ति पायी जाती है। विचार कर देखिये तो इन पांचों विभागों में कहीं भाव से और कहीं शब्दों से राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव सभी में मिलता है। पहले विभाग में ‘अद्वेष्टा’ ये द्वेष का, ‘निर्मम:’ से राग का और ‘समदु:ख-सुख:’ से हर्ष-शोक का अभाव बतलाया गया है। दूसरे में हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग का अभाव बतलाया है; इससे राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव अपने-आप सिद्ध हो जाता है। तीसरे में ‘अनपेक्ष:’ से राग का, ‘उदासीन:’ से द्वेष का और ‘गतव्यथ:’ से हर्ष-शोक का अभाव बतलाया है। चौथे में ‘न कांक्षति’ से राग का, ‘न द्वेष्टि’ से द्वेष का, ‘न ह्यष्यति’ तथा ‘न शोचति’ से हर्ष-शोक का अभाव बतलाया है। इसी प्रकार पांचवें विभाग में ‘सड्गविवर्जित:’ तथा ‘संतुष्ट:’ से राग-द्वेष का और ‘शीतोष्णसुखदु:खेषु सम:’ से हर्ष-शोक का अभाव दिखलाया है। ‘संतुष्ट:‘ पद भी इस प्रकरण में दो बार आया है। इससे सिद्ध है कि राग-द्वेष तथा हर्ष-शोकादि विकारों का अभाव और समता तथा शांति तो सभी में आवश्यक हैं। अन्यान्य लक्षणों में स्वभाव-भेद से कुछ भेद भी रह सकता है। इसी भेद के कारण भगवान ने भिन्न-भिन्न श्रेणियों में विभक्त करके भक्तों के लक्षणों को यहाँ पांच बार पृथक-पृथक बतलाया है; इनमें से किसी एक विभाग के अनुसार भी सब लक्षण जिसमें पूर्ण हों, वही भगवान का प्रिय भक्त है। इसके सिवा कर्मयोग, भक्तियोग अथवा ज्ञानयोग आदि किसी भी मार्ग से परमसिद्धि को प्राप्त कर लेने के पश्चात भी उनकी वास्तविक स्थिति में या प्राप्त किये हुए परमतत्त्व में तो कोई अंतर नहीं रहता; किंतु स्वभाव की भिन्नता के कारण आचरणों में कुछ भेद रह सकता है। ‘सदृशं चेष्टते स्वस्य: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि’ (गीता 3:33) इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि सब ज्ञानवानों के आचरण और स्वभाव में ज्ञानोत्तरकाल में भी भेद रहता है।
अहंसा, ममता और राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि अज्ञानजनित विकारों का अभाव तथा समता और परम शांति- ये लक्षण तो सभी में समान भाव से पाये जाते हैं; किंतु मैत्री और करुणा, ये भक्तिमार्ग से भगवान को प्राप्त हुए महापुरुष में विशेष रूप से रहती है। इसी प्रकार मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए अनासक्त भाव से कर्मों में तत्पर रहना, यह लक्षण विशेष रूप से कर्मयोग के द्वारा भगवान को प्राप्त हुए पुरुषों में रहता है।
गीता के दूसरे अध्याय के पचपनवें से बहतरवें श्लोक तक कितने ही श्लोकों में कर्मयोग के द्वारा भगवान को प्राप्त हुए पुरुष के तथा चौदहवें अध्याय के बाईसवें से पचीसवें श्लोक तक ज्ञानयोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त हुए गुणातीत पुरुष के लक्षण बतलाये गये हैं और यहाँ तेरहवें से उन्नीसवें श्लोक तक भक्तियोग के द्वारा भगवान को प्राप्त हुए पुरुषों के लक्षण हैं।
- ↑ सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान भगवान के अवतारों में, वचनों में एवं उनके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और चरित्रादि में जो प्रत्यक्ष के सदृश सम्मानपूर्वक विश्वास रखता हो, वह श्रद्धावान है। परमप्रेमी और परम दयालु भगवान को ही परम गति, परम आश्रय एवं अपने प्राणों के आधार, सर्वस्व मानकर उन्हीं पर निर्भर और उनके किये हुए विधान में प्रसन्न रहने वाले को भगवत्परायण पुरुष कहते हैं।
- ↑ भगवद्भक्तों के उपर्युक्त लक्षण ही वस्तुत: मानवधर्म का सच्चा स्वरूप है। इन्हीं के पालन में मनुष्य-जन्म की सार्थकता है, क्योंकि इनके पालन से साधन सदा के लिये मृत्यु के पंजे से छूट जाता है और उसे अमृतस्वरूप भगवान की प्राप्ति हो जाती है। इसी भाव को स्पष्ट समझाने के लिये यहाँ इस लक्षण-समुदाय का नाम ‘धर्ममय अमृत’ रखा गया है।
- ↑ जिन सिद्ध भक्तों को भगवान की प्राप्ति हो चुकी है, उनमें तो उपर्युक्त लक्षण स्वाभाविक ही रहते हैं; इसलिये उनमें इन गुणों का होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है; परंतु जिन साधक भक्तों को भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए हैं, तो भी वे भगवान पर विश्वास करके परम श्रद्धा के साथ तन, मन, धन, सर्वस्व भगवान के अर्पण करके उन्हीं के परायण हो जाते हैं तथा भगवान के दर्शनों के लिये निरंतर उन्हीं का निष्काम भाव से प्रेम पूर्वक चिंतन करते रहते हैं और सतत चेष्टा करके उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार ही अपना जीवन बिताना चाहते हैं- बिना प्रत्यक्ष दर्शन हुए भी केवल विश्वास पर उनका इतना निर्भर हो जाना विशेष महत्त्व की बात है। ऐसे प्रेमी भक्तों को सिद्ध भक्तों की अपेक्षा भी ‘अतिशय प्रिय’ कहना उचित ही है।
सम्बंधित लेख
महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ
जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति
| कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण
| वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान
| वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन
| वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन
| वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन
| पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन
| सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन
| उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन
| रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन
| भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन
| भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व
| युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन
| कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन
| राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना
| भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप
| धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना
| संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना
| दुर्योधन की सेना का वर्णन
| कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन
| कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन
| अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना
| भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना
| कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति
| युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन
| युधिष्ठिर की रणयात्रा
| अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति
| अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति
| सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
| कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन
| स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद
| कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन
| कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन
| कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन
| कामनिरोध के उपाय का वर्णन
| निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन
| विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन
| सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन
| निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा
| ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन
| ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन
| कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन
| ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर
| कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन
| ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन
| प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन
| आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन
| सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन
| भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन
| कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन
| कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन
| कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन
| कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन
| अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना
| कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन
| अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना
| अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना
| कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन
| साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय
| भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन
| ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन
| प्रकृति और पुरुष का वर्णन
| ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन
| सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन
| भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन
| संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन
| प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन
| दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन
| शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा
| श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन
| आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या
| ओम, तत् और सत् के प्रयोग की व्याख्या
| त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन
| भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन
| फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन
| उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन
| भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन
| गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना
| कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध
| भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध
| शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम
| विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम
| भीष्म द्वारा श्वेत का वध
| भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति
| युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन
| धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना
| कौरव सेना की व्यूह रचना
| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
| भीष्म और अर्जुन का युद्ध
| धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध
| भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध
| भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
| कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति
| धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना
| भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन
| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
| कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण
| भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध
| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
| कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध
| कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध
| अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण
| धृतराष्ट्र की चिन्ता
| भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध
| भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति
| भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन
| कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
| श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़
| द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध
| शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय
| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
| इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय
| भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय
| मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय
| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज