भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 106वें अध्याय में संजय कहते हैं महाराज! युधिष्ठिर की रक्षा के लिए आए भीमसेन ने मद्रराज शल्य को गहरी चोट पहुँचायी। तब भीष्म और द्रोणाचार्य वहाँ राजा शल्य की रक्षा के लिये आ पहुँचे और पांडव सेना का संहार करने लगे। भीष्म के द्वारा पीड़ित पांडव सेना रणभूमि से पलायन करने लगी, जो इस प्रकार है[1]-

भीष्म के द्वारा पराजित

संजय कहते हैं- महाराज! तब आपके ताऊ देवव्रत कुपित हो रणभूमि में अपने तीखे एवं श्रेष्ठ सायकों द्वारा सेना सहित कुन्तीकुमारों को सब ओर से घायल करने लगे। उन्होंने भीमसेन को बारह, सात्यकि को नौ, नकुल को तीन और सहदेव को सात बाणों से घायल करके राजा युधिष्ठिर की दोनों भुजाओं और छाती में बारह बाण मारे। तदनन्तर धृष्टद्युम्न को भी अपने बाणों द्वारा बींध कर महाबली भीष्म ने सिंह के समान गर्जना की। तब नकुल ने बारह, सात्यकि ने तीन, धृष्टद्युम्न ने सत्तर, भीमसेन ने सात तथा युधिष्ठिर ने बारह बाण मारकर पितामह भीष्म को घायल कर दिया। द्रोणाचार्य ने यमदण्ड के समान भयंकर एवं तीखे पाँच-पाँच बाणो द्वारा सात्यकि और भीमसेन से प्रत्येक को घायल किया। पहले सात्यकि को चोट पहुँचाकर फिर भीमसेन पर गहरा आघात किया। तब उन दोनों नें भी अंगशों से महान गजराज के समान सीधे जाने वाले तीन-तीन बाणों द्वारा ब्राह्मणप्रवर द्रोणाचार्य को घायल करके तुरंत बदला चुकाया। सौवीर, कितव, प्राच्य, प्रतीच्य, उदीच्य, मालव, अभीषाह, शूरसेन, शिबि और वसाति देश के योद्धा शत्रुओं के तीखे बाणों से पीड़ित होने पर भी संग्रामभूमि में भीष्म को छोड़कर नहीं भागे। इसी प्रकार विभिन्न देशों से आये हुए अन्य भूपाल भी हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये पाण्डवों पर आक्रमण करने लगे।

राजन! पाण्डवों ने भी पितामह भीष्म को घेर लिया। चारों ओर से रथसमूहों द्वारा घिरे हुए अपराजित वीर भीष्म गहन वन में लगायी गई आग के समान शत्रुओं को दग्ध करते हुए प्रज्वलित हो उठे। रथ ही उनके लिये अग्निशाला के समान था, धनुष ज्वालाओं के समान प्रकाशित होता था, खड्ग, शक्ति और गदा आदि अस्त्र-शस्त्र समिधा का काम कर रहे थे। बाण चिनगारियों के समान थे। इस प्रकार भीष्मरूपी अग्नि वहाँ क्षत्रिय शिरोमणियों को दग्ध करने लगी। उन्होंने स्वर्णभूषित गृध्र-पंखयुक्त तेज बाणों तथा कर्णी, नालीक और नाराचों द्वारा पाण्डवों की सेना को आच्छादित कर दिया। तीखे बाणों से ध्वजों को काट डाला और रथियों को भी मार गिराया। ध्वजाएँ काटकर उन्होंने रथ समूहों को मुण्डित तालवनों के समान कर दिया। राजन! युद्धस्थल में समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाबाहु भीष्म ने बहुत से रथों, हाथियों ओर घोड़ों को मनुष्यों से रहित कर दिया। उनके धनुष की प्रत्यज्जाकी टंकार ध्वनि वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ती थी। भारत! उसे सुनकर समस्त प्राणी काँप उठते थे। भरतश्रेष्ठ! आपके ताऊ भीष्म के बाण कभी ख़ाली नहीं जाते थे। राजन! भीष्म के धनुष से छूटे हुए बाण कवचों में नहीं अटकते थे (उन्हें छिन्न-भिन्न करके भीतर घुस जाते थे)। महाराज! हमने समरांगण में ऐसे बहुत से रथ देखे, जिनके रथी और सारथि तो मार दिये गये थे; परंतु वेगशाली घोड़ों से जुते हुए होने के कारण वे इधर-उधर खींचकर ले जाये जा रहे थे। चेदि, काशि और करूष देश के चौदह हजार विख्यात महारथी थे।

वे उच्च कुल में उत्पन्न होकर पाण्डवों के लिये अपना शरीर निछावर कर चुके थे। उनमें से कोई भी युद्ध में पीठ दिखाने वाला नहीं था। उन सबकी ध्वजाएँ सोने की बनी हुई थी। मुँह बाये हुए काल के समान भीष्म जी के सामने पहुँचकर वे सब के सब महारथी युद्धरूपी समुद्र में डूब गये। भीष्म जी ने घोड़े, रथ, और हाथियों सहित उन सबको पर लोक का पथिक बना दिया।[1] भरतनन्दन! महाराज! हमने वहाँ सैकड़ों और हजारों ऐसे रथ देखे, जिनके धुरे आदि सामान टूट गये थे और पहियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। माननीय प्रजानाथ! वरूथोंसहित टूटे हुए रथ, मारे गये रथी, कटे हुए बाण, कवच, पट्टिश, गदा, भिन्दिपाल, तीखे सायक, छिन्न-भिन्न हुए अनुकर्ष, उपासंग, पहिये, कटी हुई बाँह, धनुष, खड्ग, कुण्डलों सहित मस्तक, तलत्राण, अंगलित्राण, गिराये गये ध्वज और अनेक टुकड़ों में कटकर गिरे हुए चाप- इन सबके द्वारा वहाँ की पृथ्वी आच्छादित हो गयी थी। राजन! जिनके सवार मार दिये गये थे, ऐसे हाथी और घोड़े सैकड़ों और हजारों की संख्या में निष्प्राण होकर पड़े थे। पाण्डव वीर बहुत प्रयत्न करने पर भी भीष्म के बाणों से पीड़ित होकर भागते हुए अपने महारथियों को रोक नहीं पा रहे थे।[2]

भीष्म द्वारा पांडव सेना का संहार

महाराज! महेन्द्र के समान पराक्रमी भीष्म जी के द्वारा मारी जाती हुई उस विशाल सेना में भगदड़ मच गयी थीं। दो आदमी भी एक साथ नहीं भागते थे। पाण्डवों की सेना अचेत सी होकर हाहाकार कर रही थी। उसके रथ, हाथी और घोड़े बाणों से क्षत-विक्षत हो रहे थे। ध्वजाएँ कटकर धराशायी हो गयी थी। उस भीष्म मारकाट में दैव से प्रेरित होकर पिता ने पुत्र को, पुत्र ने पिता को और मित्र ने प्यारे मित्र को मार डाला। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर दूसरे सैनिक कवच उताकर केश बिखेरे हुए सब और भागते दिखायी देते थे। उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की सारी सेना (सिंह से डरी हुई) गौओं के समुदाय की भाँति घबराहट में पड़ गयी थीं। रथ के कूबर उलट-पलट हो गये थे और समस्त सैनिक आर्तनाद कर रहे थे। उस सेना में भगदड़ पड़ी देख यादवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उत्तम रथ को रोककर कुन्तीकुमार अर्जुन से कहा- पार्थ! तुम्हें जिस अवसर की अभिलाषा और प्रतीक्षा थी, वह आ पहुँचा। पुरुषसिंह! यदि तुम मोह से मोहित नहीं हो रहे हो तो इन भीष्म पर प्रहार करो। वीर! तात! पूर्वकाल में विराट नगर के भीतर जब सम्पूर्ण राजा एकत्र हुए थे, उनके सामने और संजय के समीप जो तुमने यह कहा था कि मैं युद्ध में, जो मेरा सामना करने आयेंगे, दुर्योधन के उन भीष्म, द्रोण आदि सम्पूर्ण सैनिकों को सगे सम्बधियों सहित मार डालूँगा। शत्रुदमन कुन्तीनन्दन! अपने उस कथन को सत्य कर दिखाओ। तुम क्षत्रिय धर्म का स्मरण करके सारी चिन्ताएँ छोड़कर युद्ध करो।[2]

कृष्ण के कहने पर अर्जुन का भीष्म से युद्ध करना

भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने मुँह नीचे किये तिरछी दृष्टि से देखते हुए अनिच्छुक की भाँति उनसे इस प्रकार कहा- प्रभो! अवध्य महापुरुषों का वध करके नरक से भी बढ़कर निन्दनीय राज्य प्राप्त करूँ अथवा वनवास में रहकर कष्ट भोगूँ- इन दोनों में कौन मेरे लिये पुण्यदायक होगा। अच्छा, जहाँ भीष्म हैं, उसी ओर घोड़ों को बढ़ाइये। आज मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। कुरुकुल के वृद्ध पितामह दुर्धर्ष वीर भीष्म को मार गिराऊँगा। राजन! तब भगवान श्रीकृष्ण ने चाँदी के समान श्वेत वर्णवाले घोड़ों को उसी ओर हाँका, जहाँ अंशुमाली सूर्य के समान दुर्निरीक्ष्य भीष्म युद्ध कर रहे थे।[2] महाबाहु कुन्तीकुमार अर्जुन को भीष्म के साथ युद्ध करने के लिये उद्यत देख युधिष्ठिर की वह भागती हुई विशाल सेना पुनः लौट आयी। तब बार-बार सिंहनाद करते हुए कुरुश्रेष्ठ भीष्म ने धनंजय के रथ पर शीघ्र ही बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। भारत! एक ही क्षण में बाणों की उस भारी वर्षा के कारण सारथि और घोडोंसहित उनका वह रथ ऐसा अदृश्य हो गया कि उसका कुछ पता ही नहीं चलता था। भगवान श्रीकृष्ण बिना किसी घबराहट के धैर्य धारण कर भीष्म के सायकों से क्षत-विक्षत हुए उन घोड़ों को शीघ्रता पूर्वक हाँक रहे थे। तब कुन्तीकुमार ने मेघ के समान गंभीर घोष करने वाले अपने दिव्य धनुष को हाथ में लेकर तीखे बाणों द्वारा भीष्म के धनुष को काट गिराया।

धनुष कट जाने पर आपके ताऊ कुरुकुलरत्न भीष्म ने पुनः दूसरा धनुष हाथ में ले पलक मारते मारते उसके ऊपर प्रत्यंचा चढ़ा दी। तदनन्तर मेघों के समान गम्भीर नाद करने वाले उस धनुष को उन्होंने दोनों हाथों से खींचा। इतने ही कुपित हुए अर्जुन ने उनके उस धनुष को भी काट दिया। शत्रुदमन नरेश! उस समय शान्तनुकमार गंगानन्दन भीष्म ने धनुर्धरों में श्रेष्ठ कुन्तीपुत्र अर्जुन की उस फुर्ती के लिये उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और इस प्रकार कहा- 'महाबाहो! कुन्तीकुमार! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, तुम्हें साधुवाद।' ऐसा कहकर भीष्म ने पुनः दूसरा सुन्दर धनुष लेकर समरांगण में अर्जुन के रथ की ओर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। भगवान श्रीकृष्ण ने घोड़ों के हाँकने की कला में अपनी अद्भुत शक्ति दिखायी। वे भाँति-भाँति के पैंतरे दिखाते हुए भीष्म के बाणों को व्यर्थ करते जा रहे थे। युद्धस्थल में भगवान श्रीकृष्ण कुशलतापूर्वक सारथ्यकर्म करते दिखायी दिये। राजेन्द्र! भीष्म अत्यन्त क्रोध में भरकर युद्ध में पार्थ के ऊपर बार बार बाणों की वर्षा करते रहे। यह अदभुत सी बात थी। फिर शत्रुदमन अर्जुन ने भी क्रोध में भरकर युद्ध के लिये अपने सामने खड़े हुए भीष्म पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। वे दोनों रणदुर्जय वीर एक दूसरे से युद्ध कर रहे थे। उस समय पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही भीष्म के बाणों से क्षत-विक्षत हो सींगों के आघात से घायल हुए दो रोषभरे साँड़ों के समान सुशोभित हो रहे थे। तत्पश्चात भीष्म ने भी रणक्षेत्र में अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपने बाणों द्वारा बलपूर्वक अर्जुन के मस्तक पर आघात किया। उसके बाद वे बार बार सिंह के समान गर्जना करने लगे।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 106 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 106 श्लोक 21-40
  3. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 106 श्लोक 41-58

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का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन 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