प्रकृति और पुरुष का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 37वें अध्याय में 'प्रकृति और पुरुष का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

कृष्ण द्वारा प्रकृति और पुरुष का वर्णन करना

सम्बन्ध- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने क्षेत्र के विषय में चार बातें और क्षेत्रज्ञ के विषय में दो बातें संक्षेप में सुनने के लिये अर्जुन से कहा था, फिर विषय आरम्भ करते ही क्षेत्र के स्वरूप का और उसके विकारों का वर्णन करने के अनन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के तत्त्व को भली-भाँति जानने के उपाय भूत साधनों का और जानने के योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन प्रसंग वश किया गया। इससे क्षेत्र के विषय में उसके स्वभाव का और किस कारण से कौन-सा कार्य उत्पन्न होता है, इस विषय का तथा प्रभाव सहित क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का भी वर्णन नहीं हुआ। अतः अब उन सबका वर्णन करने के लिये भगवान पुनः प्रकृति और पुरुष के नाम से प्रकरण आरम्भ करते हैं- प्रकृति[2] और पुरुष इन दोनों को ही तु अनादि जान।[3] और राग द्वेषादि विकारों को तभा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकृति से ही उत्पन्न जान। सम्बन्ध- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में, जिससे जो उत्पन्न हुआ है, यह बात सुनने के लिये कहा गया था, उसका वर्णन पूर्व श्लोक के उत्तरार्द्ध में कुछ किया गया। अब उसी की कुछ बात इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में कहते हुए इसके उत्तरार्द्ध में और इक्कीसवें श्लोक में प्रकृति में स्थित पुरुष के स्वरूप का वर्णन किया जाता है- कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है[4] और जीवात्मा सुख दुःख के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है।[5][1]

प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है[6] और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों मे प्रवेश लेने का कारण है।[7] सम्बन्ध-इस प्रकार प्रकृतिस्थ पुरुष के स्वरूप का वर्णन करने के बाद अब जीवात्मा और परमात्मा की एकता करते हुए आत्मा के गुणातीत स्वरूप का वर्णत करते हैं- इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है।[8] वही साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवनरूप से भोक्ता, ब्रह्म आदि का स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है।[9]

इस प्रकार पुरुषों और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्व से जानता है,[10] वह सब प्रकार के कर्तव्य कर्म करता हुआ भी[11] फिर नहीं जन्मता।[12] सम्बन्ध- इस प्रकार गुणों के सहित प्रकृति और पुरुष के ज्ञान का महत्त्व सुनकर यह अच्छा हो सकती है कि ऐसा ज्ञान कैसे होता है। इसलिये अब दो श्लोकों द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों के लिये तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न साधनों का प्रतिपादन करते हैंं- उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैंं।[13] अन्य कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा[14] और दूसरे कितने ही कर्मयोग द्वारा[15] देखते हैंैं अर्थात प्राप्त करते हैंं। परन्तु इसमें दूसरे, अर्थात जो मन्द बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्त्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैंं। और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैंं। सम्बन्ध- इस प्रकार परमात्मा सम्बन्धी तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न साधनों का प्रतिपादन करके अब तीसरें श्लोक मे जो ‘यादक्’ पद से क्षेत्र के स्वभाव को सुनने के लिये कहा था, उसके अनुसार भगवान दो श्लोकों द्वारा उस क्षेत्र को उत्पत्ति-विनाशशील बतलाकर उसके स्वभाव का वर्णन करते हुए आत्मा के यर्थाथ तत्त्वों को जानने वाले की प्रशंसा करते हैंं। हे अर्जुन! जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैंं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान।[16][17]

जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है, वही यर्थाथ देखता है।[18] क्योंकि जो पुरुष सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता,[19] इससे वह परमगति को प्राप्त होता है। सम्बन्ध- इस प्रकार नित्य विज्ञानान्दघन आत्मतत्त्व को सर्वत्र समभाव से देखने का महत्त्व और फल बतलाकर अब अगले श्लोक में उसे अकर्ता देखने वाले की महिमा कहते हैं- और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखना है, वही यर्थाथ देखता है।[20] जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है,[21]उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। सम्बन्ध- इस प्रकार आत्मा को सब प्राणियों में समभाव से स्थित, निर्विकार और अकर्ता बतलाया जाने पर यहाँ शंका होती है कि समस्त शरीरों मे रहता हुआ भी आत्मा उनके दोषों से निर्लिप्त और अकर्ता कैसे रह सकता है; इस शंका का निवारण करने के लिये अब भगवान- इस अध्याय के तीसरे श्लोक में जो ‘यत्प्रभावश्च’ पद से क्षेत्रज्ञ का प्रभाव सुनने का संकेत किया गया था, उसके अनुसार- तीन श्लोकों द्वारा आत्मा के प्रभाव का वर्णन करते हैंं।[22]

हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा[23] शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है।[24] सम्बन्ध-शरीर में स्थित होने पर भी आत्मा क्यों नहीं लिप्त होता है इस पर कहते हैंं- जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता,[25] वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता। हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।[26] सम्बन्ध-तीसरे श्लोक में जिन छः बातों को कहने का भगवान ने संकेत किया था, उनका वर्णन करके अब इस अध्याय में वर्णित समस्त उपदेश को भलीभाँति समझने का फल पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति बतलाते हुए अध्याय का उपसंहार करते हैंं- इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भेद को तथा कार्यसहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान- नेत्रों द्वारा तत्त्व से जानते हैं,[27]वे महात्माजन परमब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैंं।[28]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 18-20
  2. यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द ईश्वर की अनादिसिद्ध मूल प्रकृति वाचक है गीता के चौदहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में इसी प्रकार महद्ब्रह्म के नाम से कहा गया है। सातवें अध्याय के चौथे और पाँचवें श्लोकों में अपरा प्रकृति के नाम से और इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक क्षेत्र के नाम से भी इसी का वर्णन है। भेद इतना ही है कि वहाँ सातवें अध्याय में उसके कार्य- मन, बुद्धि, अहंकार और पंचमहाभूतादि के सहित प्रकृति का वर्णन है और यहाँ केवल ‘मूल प्रकृति’ वर्णन है।
  3. जीवका जीवत्व अर्थात प्रकृति के साथ उसका सम्बन्ध किसी हेतु से होने वाला- आगन्तुक नहींं है यह अनादि- सिद्ध है और इसी प्रकार ईश्वर की शक्ति यह प्रकृति भी अनादिसिद्ध है- ऐसा समझना चाहिये।
  4. आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी यह पाँचों सूक्ष्म महाभूत तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध- ये पाँचों इन्द्रियों के विषय; इन दसों का वाचक यहाँ ‘कार्य’ शब्द है। बुद्धि, अहंकार और मन- यह तीनों अन्तःकरण; श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण- यह पाँचों इन्द्रियाँ एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ, और गुदा यह पाँचों कमेन्द्रियाँ; इन तरह का वाचक यहाँ ‘करण’ शब्द है। ये तेईस तत्त्व प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैंं, प्रकृति ही उनका उत्पादन कारण है; क्योंकि प्रकृति महत्तत्त्व, महत्तत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच सूक्ष्म महाभूत, मन और दस इन्द्रिय तथा पाँच सूक्ष्म महाभूतों से पाँचों इन्द्रियों के शब्दादि पाँचों स्थूल विषयों की उत्पत्ति मानी जाती हैं। सांख्यकारिका में भी कहा है-
    प्राकृतेर्महांस्ततोअहड़कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि।। (सांख्यकारिका 22)

    प्रकृति महत्तत्त्व (समष्टिबुद्धि) की यानी बुद्धितत्त्व की, उससे अहंकार की और अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ, एक मन और दस इन्द्रियाँ- इन सोलह के समुदाय की उत्पत्ति हुई तथा उन सोलह में से पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूतों की उत्पत्ति हुई।
    गीता के वर्णन में पाँच तन्मात्राओं की जगह पाँच सूक्ष्म महाभूतों का नाम आया है और पाँच स्थूलभूतों के स्थान में पाँच इन्द्रियों के विषयों का नाम आया है, इतना ही भेद है।

  5. प्रकृति जड़ है, उसमें भोक्तापन की सम्भावना नहीं है और पुरुष असंग है, इसलिये उसमें भी वास्तव में भोक्तापन नहीं है। प्रकृति के संग से ही पुरुष में भोक्तापन की प्रतीति-सी होती है, और यह प्रकृति पुरुष का संग अनादि है, इसलिये यहाँ पुरुषों का सुख-दुखों के भोक्तापन में हेतु यानी निर्मित माना जाता है।
  6. प्रकृति बने हुए स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों शरीरों में से किसी भी शरीर के साथ जब तक इस जीवात्मा-का सम्बन्ध रहता है, तब तक वह प्रकृति में स्थित (प्रकृतिस्थ) कहलाता है।, अतएव जब तक आत्मा प्रकृति के साथ सम्बन्ध रहता है, तभी तक वह प्रकृतिजनित गुणों का भोक्ता हैं।
  7. मनुष्य से लेकर ऊँची जितनी भी देवादि योनियाँ हैं, सब सत्-योनियाँ हैं और मनुष्य से नीची जितनी भी पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदि योनियाँ हैं, वे असत् हैं। सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के साथ जो जीव का अनादिसिद्ध सम्बन्ध है एवं उनके कार्य रूप सांसारिक पदार्थों में जो आसक्ति होगी, उसकी वैसी ही वासना होगी, वासना के अनुसार ही अन्तकाल में स्मृति होगी और उसी के अनुसार उसे पुनजन्म प्राप्त होगा। इसीलिये यहाँ अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्ति में गुणों के संग को कारण बतलाया गया है।
  8. प्रकृति जनित शरीरों की उपाधि से जो चेतन आत्मा अज्ञान के कारण जीवभाव को प्राप्त-सा प्रतीत होता है, वह क्षेत्रज्ञ वास्तव में इस प्रकृति से सर्वथा अतीत परमात्मा ही हैं, क्योंकि उस परब्रह्म परमात्मा में और क्षेत्रज्ञ में वस्तुतः किसी प्रकार का भेद नहीं है, केवल शरीर रूप उपाधि से ही भेद की प्रतीति हो रही है।
  9. इस कथन से इस बात का प्रतिवादन किया गया है कि भिन्न-भिन्न निमित्तों से पर ब्रह्म भिन्न- भिन्न नामों से पुकारा जाता है। वस्तुदृष्टि से ब्रह्म में किसी प्रकार का भेद नहीं हैं।
  10. जितने भी पृथक-पृथक क्षेत्रज्ञों की प्रतीति होती है, सब उस एक परब्रहा परमात्मा के ही अभिन्न स्वरूप हैं; प्रकृति के संग उनमें भिन्नता-सी प्रतीत होती है। वस्तुतः कोई भेद नहीं है। और वह परमात्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और अविनाशी तथा प्रकृति से सर्वथा अतीत है, इन बातों को संशयरहित यथार्थ समझ लेना एवं एकीभाव से उस सच्चिदानन्दघन नित्य स्थित हो जाना ही ‘पुरुष तत्त्व से जानना’ है। तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं, यह समस्त विश्व प्रकृति का ही पसारा है और वह नाशवान, जड़, क्षणभंगुर और अनित्य है- इस रहस्य को समझ लेना ही गुणों के सहित प्रकृति को तत्त्व से जानना है।
  11. वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र किसी भी वर्ण एवं ब्रह्मचर्यादि किसी भी आश्रम में रहता हुआ तथा उन-उन वर्णाश्रमों के लिये शास्त्र में विधान किये हुए समस्त कर्मों को यथायोग्य करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। यहाँ ‘सर्वथा वर्तमानः’ का अर्थ निषिद्ध कर्म करता हुआ नहीं समझना चाहिये; क्योंकि आत्मतत्त्व को जानने वाले ज्ञानी में काम- क्रोधादि दोषों का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण (गीता 5:26) उसके द्वारा निषिद्ध कर्म का बनना सम्भव नहीं है। इसीलिये इसका आचरण संसार में प्रमाणरूप माने जाते हैंं। (गीता 3:21) पापों में मनुष्य की प्रवृति काम-क्रोधादि अवगुणों के कारण ही होती है; अर्जुन के पूछने पर भगवान तीसरे अध्याय के सैतीसवें श्लोक में इस बात को स्पष्ट रूप से कह भी दिया है।
  12. प्रकृति और पुरुष के तत्त्व को जान लेने के साथ ही पुरुष का प्रकृति से सम्बन्ध टूट जाता है; क्योंकि प्रकृति और पुरुष का संयोग स्वप्नवत, अवास्तविक और केवल अज्ञानजनित माना गया है। जब तक प्रकृति का पुरुष को पूर्ण ज्ञान नहींं होता, तभी तक पुरुष का प्रकृति से और उसके गुणों से सम्बन्ध रहता है। और तभी तक उसका बार-बार योनियों में जन्म होता है। (गीता 13:21) अतएव इनका तत्त्व जान लेने के बाद पुर्नजन्म नहीं होता। अतएव इनका तत्त्व जान लेने के बाद पुर्नजन्म नहीं होता।
  13. गीता के छठे अध्याय के ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकों में बतलायी हुई विधि के अनुसार शुद्ध और एकान्त स्थान में उपयुक्त आसन पर निश्चलभाव से बैठकर इन्द्रियों को विषयों से हटाकर, मन को वश में करके तथा एक परमात्मा के सिवा दृश्य- मात्र को भूलकर निरन्तर परमात्मा का चिन्तन करना ध्यान है। इस प्रकार ध्यान करते रहने से बुद्धि शुद्ध हो जाती है। और उस विशुद्ध सूक्ष्मबुद्धि से जो हृदय में सच्चिदानन्दघन पर ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किया जाता है, वही ध्यान द्वारा आत्मा-से-आत्मा में आत्मा को देखना है। परंतु भेदभाव से सगुण-निराकार का और सगुण-साकार का ध्यान करने वाले साधक भी यदि इस प्रकार का फल चाहते हों तो उनको भी अभेद भाव से निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रहा की प्राप्ति हो सकती है।
  14. सम्पूर्ण पदार्थ भृगतृष्णा के जल अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश माया मात्र है; इसलिये प्रकृति के कार्य रूप समस्त गुण ही गुणों में बरत रहे हैं- ऐसा समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले समस्त कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित हो जाना तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सिवा अन्य किसी में भी भिन्न-सत्ता न समझना- यह ‘सांख्ययोग’ नामक साधन है और इसके द्वारा जो आत्मा और परमात्मा के अभेद का प्रत्यक्ष होकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का अभिन्न भाव से प्राप्त हो जाना है, वही सांख्ययोग के द्वारा आत्मा-आत्मा में देखना है। यह साधन साधनचतुष्टयसम्पन्न अधिकारी के द्वारा ही सुगमता से किया जा सकता है। इसका विस्तार ‘गीतातत्त्व-विवेचनी’ में देखना चाहिये।
  15. जिस साधन का गीता के दूसरे अध्याय में चालीसवें श्लोक उक्त अध्याय की समाप्ति पर्यन्त फलसहित वर्णन किया गया है, उसका वाचक यहाँ ‘कर्मयोग’ है। अर्थात आसक्ति और कर्मफल का सर्वथा त्याग करके सिद्धि और असिद्धि में समत्व रखते हुए शास्त्रानुसार निष्कामभाव से अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार सब प्रकार के विहितकर्मों का अनुष्ठान करना कर्मयोग है और इसके द्वारा जो सच्चिदानन्दघन पर ब्रह्म परमात्मा को अभिन्न भाव से प्राप्त हो जाना है, वही कर्मयोग के द्वारा आत्मा में आत्मा को देखना हैं।
  16. इस अध्याय के पाँचवें श्लोक में जिन चौबीस तत्त्वों के समुदाय को क्षेत्रफल स्वरूप बतलाया गया है, गीता के सातवें अध्याय के चौथे, पाँचवें श्लोक में जिसको ‘अपरा प्रकृति’ कहा गया है, वही ‘क्षेत्र’ है और उसको जो जानने वाला है, जिसको गीता के सातवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘परा प्रकृति’ कहा गया है, वह चेतन तत्त्व ही ‘क्षेत्रज्ञ’ है, उसका यानी ‘प्रकृतिस्थ’ बने हुए भिन्न-भिन्न सूक्ष्म और स्थूल शरीरों के साथ सम्बन्ध होना है, वही क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का संयोग है और इसके होते ही जो भिन्न भिन्न योनियों द्वारा भिन्न-भिन्न आकृतियों में प्राणियों का प्रकट होना है, वही उनका उत्पन्न होना है।
  17. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 21-26
  18. यहाँ ‘परमेश्वर’ शब्द प्रकृति से सर्वथा अतीत उस निर्विकार चेतन तत्त्व का वाचक है, जिसका वर्णन ‘क्षेत्रज्ञ’ के साथ एकता करते हुए इसी अध्याय के बाईसवें श्लोक में उपद्रष्टा, अनमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा के नाम से किया गया हैं। समस्त प्राणियों के जितनें सम्बन्ध से वे विनाशशील कहेे जाते हैं, समस्त शरीरों में उनके वास्तविक स्वरूपभूत एक ही अविनाशी निर्विकार चेतनतत्त्व परमात्मा को जो विनाशशील बादलों में आकाश की भाँति समयभाव से स्थित और नित्य देखना है।- वही उस ‘परमेश्वर को समस्त प्राणियों में विनाशरहित और समभाव से स्थित देखना’ है।
  19. एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा सर्वत्र समभाव से स्थित है, अज्ञान के कारण ही भिन्न-भिन्न शरीरों में उसकी भिन्नता प्रतीत होती है- वस्तुतः उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है- इस तत्त्व को भलीभाँति समझकर प्रत्यक्ष कर लेना ही ‘सर्वत्र समभाव से स्थित परमेश्वर को सम देखना’ है। जो इस तत्त्व को नहीं जानते, उनका देखना सम देखना नहींं है; क्योंकि उनकी सब में विषमबुद्धि होती है, वे किसी को अपना प्रिय, हितैषी और किसी को अप्रिय तथा अहित करने वाला समझते हैंं एवं अपने आपको दूसरो से भिन्न, एकदेशीय मानते हैंं। अतएव वे शरीरों के जन्म और मरण को अपना जन्म और मरण मानने के कारण बार-बार नाना योनियों में जन्म लेकर मरते रहते हैंै, यही उनका अपने द्वारा अपने को नष्ट करना है; परन्तु जो पुरुष उपयुक्त प्रकार से एक ही परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वह न तो अपने को उस परमेश्वर से भिन्न समझता है और न इन शरीरों से अपना कोई सम्बन्ध ही मानता है। इस लिये वह शरीरों के विनाश के अपना विनाश नहीं देखता और इसीलिये वह अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता अभिप्राय यह है कि उसकी स्थिति सर्वज्ञ, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन परमब्रह्मपरमात्मा में अभिन्न भाव से हो जाती है, अतएव वह सदा के लिये जन्म-मरण से छूट जाता है।
  20. गीता के तीसरे अध्याय के सत्ताईसवें, अठाईसवें और चौदहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोकों में समस्त कर्मोें को गुणों द्वारा किये जाते हुए बतलाया गया है तथा पाँचवें अध्याय के आठवें, नवें श्लोकों सब इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों में बरतना कहा गया है और यहाँ सब कर्मों को प्रकृति द्वारा किये जाते हुए देखने को कहते हैंं। इस प्रकार तीन तरह के वर्णन का तात्पर्य एक ही है; क्योंकि सत्त्व, रज, और तम- ये तीनों गुण प्रकृति के ही कार्य हैं तथा समस्त इन्द्रियाँ और मन, बुद्धि आदि एवं इन्द्रियों के विषय- ये सब भी गुणों के ही विस्तार हैं। अतएव इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों में बरतना, गुणों का गुणों मे बरतना, और गुणों द्वारा समस्त कर्मों को किये जाते हुए बतलाना भी सब कर्मों को प्रकृति- द्वारा ही किये जाते हुए बतलाना है। अतः सभी जगहों के कथन का अभिप्राय आत्मा में कर्तापन का अभाव दिखलाना है।
    आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, और सब प्रकार के विकारों से रहित है; प्रकृति से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं अतएव वह न किसी भी कर्म का कर्ता है और न कर्मों के फल का भोक्ता ही है- यह बात का अपरोक्ष भाव से अनुभव कर लेना ‘आत्मा को अकर्ता समझना’ है तथा जो ऐसा देखता है, वही यथार्थ देखता है।
  21. जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य स्वप्नकाल में दिखलायी देने वाले समस्त प्राणियों के नाना तत्त्व को अपने-आपमें ही देखता है और यह भी समझता है कि उन सबका विसतार मुझसे ही हुआ था; वस्तुतः स्वप्न की सृष्टि में मुझसें भिन्न कुछ भी नहीं था, एक मैं ही अपने-आपको अनेक रूप में देख रहा था- इसी प्रकार जो समस्त प्राणियों को केवल एक परमात्मा में ही स्थित और उसी से सबका विस्तार देखता है, वही ठीक देखता है और इस प्रकार देखना ही सबको एक में स्थित और उसी एक से सबका विस्तार देखना है।
  22. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 27-30
  23. जिसका कोई आदि यानी कारण न हो एवं जिसकी किसी भी काल में नयी उत्पत्ति न हुई हो और जो सदा से ही हो, उसे ‘अनादि’ कहते हैंं। प्रकृति और उसके गुणों से जो सर्वथा अतीत हो, गुणों से और गुणों के कार्य से जिसका किसी काल में और किसी भी अवस्था में वास्तविक सम्बन्ध न हो, उसे ‘निर्गुण’ कहते हैंं। अतएव यहाँ ‘अनादि’ और ‘निर्गुण’-इन दोनों शब्दों का प्रयोग करके वह दिखलाया गया है कि जिसका प्रकरण चल-चल रहा है, वह आत्मा ‘अनादि’ और ‘निर्गुण’ है; इसलिये वह अकर्ता, निर्लिप्त और अव्यय है- जन्म, मृत्यु आदि छः विकारों सर्वथा अतीत है।
  24. जैसे आकाश बादलों में स्थित होने पर भी उनका कर्ता नहीं बनता और उनसे लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं बनता और शरीरों से लिप्त भी नहीं होता।
  25. आकाश के दृष्टान्त से आत्मा में निलेपता सिद्ध की गयी है। अभिप्राय यह है कि जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में सब जगह समयभाव से व्याप्त होते हुए भी उनके गुण-दोषों से किसी तरह भी लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी इस शरीर में सब जगह व्याप्त होते हुए भी अत्यनत सूक्ष्म और गुणों से सर्वथा अतीत होने के कारण बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर के गुण-दोषों से जरा भी लिपायमान नहीं होता।
  26. इस श्लोक में रवि (सूर्य) का दृष्टान्त देकर आत्मा में अकर्तापन की और ‘रवि’; पद के साथ ‘एकः’ विशेषण देकर आत्मा के अद्वैतभाव की सिद्धि की गयी है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार एक ही सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा समस्त क्षेत्र को यानी इसी अध्याय के पाँचवें और छठे श्लोकों मे विकारसहित क्षेत्र के नाम से जिसके स्वरूप का वर्णन किया गया है, उस समस्त जड़वर्गरूप समस्त जगत को प्रकाशित करता है, सबको सत्ता-स्फुर्ति देता है तथा भिन्न-भिन्न अन्तःकरणों के सम्बन्ध से भिन्न-भिन्न शरीरों में उसका भिन्न-भिन्न प्राकट्य होता-सा देखा जाता है ऐसा होने पर भी वह आत्मा सूर्य की भाँति न तो उनके कर्मों को करने वाला और न करवाने वाला ही होता है तथा न द्वैतभाव या वैषम्यादि दोषों से ही युक्त होता है। वह अविनाशी आत्मा प्रत्येक अवस्था में सदा-सर्वदा शुद्ध, विज्ञानस्वरूप, अर्कता, निर्विकार, सम और निरजन ही रहता है
  27. इस अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने जिसको अपने मत से ‘ज्ञान’ कहा है और गीता के पांचवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में जिसको अज्ञान का नाश करने में कारण बतलाया है, जिसकी प्राप्ति अमानित्वादि साधनों से होती है, इस श्लोक में ‘ज्ञानचक्षुषा’ पद में आया हुआ ‘ज्ञान’ शब्द उसी ‘तत्त्वज्ञान’ का वाचक है।
    उस ज्ञान द्वारा जो भलीभाँति तत्त्व से यह समझ लेना है महाभूतादि चौबीस तत्त्वों के समुदाय रूप समष्टिशरीर का नाम ‘क्षेत्र’ है; वह जानने में आने वाला, परिर्वतनशील, विनाशी, विकारी, जड़, परिणामी और अनित्य है तथा ‘क्षेत्रज्ञ’ उसका ज्ञाता (जानने वाला), चेतन, निर्विकार, अकर्ता, नित्य, अविनाशी, असंग, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप और एक है इस प्रकार दोनों मे विलक्षणता होने के कारण क्षेत्रज्ञ क्षेत्र से सर्वथा भिन्न हैं। यही ज्ञानचक्षु के द्वारा ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के भेद को जानना है। इस श्लोक में ‘भूत’ शब्द प्रकृति के कार्यरूप समस्त दृश्यवर्ग का और प्रकृति उसके कारण का वाचक है। अतः कार्यसहित प्रकृति से सर्वथा मुक्त हो जाना ही ‘भूतप्रकृतिमोक्ष’ है तथा उपयुक्त प्रकार से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को जानने के साथ साथ जो क्षेत्रज्ञ का प्रकृति से अलग होकर अपने वास्तविक परमात्मस्वरूप में अभिन्न-भाव से प्रतिष्ठित हो जाना है, यही कार्यसहित प्रकृति से मुक्त हो जाने को जानना है। अभिप्राय यह है कि जैसे स्वप्न में मनुष्य को किसी निमित्त से अपनी जाग्रत- अवस्था की स्मृति हो जाने से यह मालूम हो जाता है कि यह स्वप्न है, अतः अपने असली शरीर में जग जाना ही इसके दुःखों से छुटने का उपाय है। इस का भाव का उदय होते ही वह जग उठता है; वैसे ही ज्ञानयोगी का क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की विलक्षणताओं को समझकर याथ ही साथ जो यह समझ लेना है कि अज्ञानवश क्षेत्र को सच्ची वस्तु समझने के कारण ही इसके साथ मेरा सम्बन्ध हो रहा है। अतः वास्तविक सच्चिदानन्दघन परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही इससे मुक्त होना है; यही उसका कार्यसहित प्रकृति से मुक्त होने को जानता है।
  28. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 31-34

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संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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