- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 35वें अध्याय में 'अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना' का वर्णन दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
विश्वरूप का दर्शन करने के लिये अर्जुन की प्रार्थना
सम्बन्ध- गीता के दसवें अध्याय के सातवें श्लोक तक भगवान ने अपनी विभूति तथा योगशक्ति का और उनके जानने के माहात्म्य का संक्षेप में वर्णन करके ग्यारहवें श्लोक तक भक्तियोग और उसके फल का निरूपण किया। इस पर बारहवें से अठारहवें श्लोक तक अर्जुन ने भगवान की स्तुति करके उनसे दिव्य विभूतियों का और योगशक्ति का विस्तृत वर्णन करने के लिये प्रार्थना की। तब भगवान ने चालीसवें श्लोक तक अपनी विभूतियों का वर्णन समाप्त करके अन्त में योगशक्ति का प्रभाव बतलाते हुए समस्त ब्रह्माण्ड को अपने एक अंश में धारण किया हुआ कहकर अध्याय का उपसंहार किया। इस प्रसंग को सुनकर अर्जुन के मन में उस महान स्वरूप को, जिसके एक अंश में समस्त विश्व स्थित हैं, प्रत्यक्ष देखने की इच्छा उत्पन्न हो गयी। इसीलिये इस ग्यारहवें अध्याय के आरम्भ में पहले चार श्लोकों में भगवान की और उनके उपदेश को प्रशंसा करते हुए अर्जुन उनसे विश्वरूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करते हैं-
अर्जुन बोले- मुझ पर अनुग्रह करने के लिये आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मविषयक वचन[2] अर्थात उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है।[3] क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है।[4] हे परमेश्वर![5] आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है; परंतु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्र्वर-रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।[6][1] हे प्रभो![7] यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है- ऐसा आप मानते हैं, तो हे योगेश्वर! उस अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइये।[8][9]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-3
- ↑ गीता के सातवें से दसवें अध्याय तक विज्ञानसहित ज्ञान के कहने की प्रतिज्ञा करके भगवान ने जो अपने गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप का तत्त्व और रहस्य समझाया है- उस सभी उपदेश का वाचक यहाँ ‘परम गोपनीय अध्यात्मविषयक वचन’ है। जिन-जिन प्रकरणों में भगवान ने स्पष्ट रूप से यह बतलाया है कि मैं श्रीकृष्ण जो तुम्हारे सामने विराजित हूं, वही समस्त जगत का कर्ता, हर्ता, निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार, मायातीत, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर हूं, उन प्रकरणों को भगवान ने स्वयं ‘परम गुह्य’ बतलाया है। अतएव यहाँ उन्हीं विशेषणों का लक्ष्य करके अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आपका यह उपदेश अवश्य ही परम गोपनीय है।
- ↑ अर्जुन जो भगवान के गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप को पूर्णरूप से नहीं जानते थे- यही उनका मोह था। अब उपर्युक्त उपदेश के द्वारा भगवान के गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य, रहस्य और स्वरूप को कुछ समझकर वे जो यह जान गये हैं कि श्रीकृष्ण ही साक्षात परमेश्वर हैं- यही उनके मोह का नष्ट होना है।
- ↑ इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि केवल भूतों की उत्पत्ति और प्रलय की बात आपसे सुनी हो, ऐसी बात नहीं है; आपकी जो विनाशी महिमा है, अर्थात आप समस्त विश्व का सृजन, पालन और संहार आदि करते हुए भी वास्तव में अकर्ता हैं, सबका नियमन करते हुए भी उदासीन हैं, सर्वव्यापी होते हुए भी उन-उन वस्तुओं के गुण-दोष से सर्वथा निर्लिप्त हैं, शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुखरूप फल देते हुए भी निर्दयता और विषमता के दोष से रहित हैं, प्रकृति, काल और समस्त लोकपालों के रूप में प्रकट होकर सबका नियमन करने वाले सर्वशक्तिमान भगवान हैं- इस प्रकार के माहात्म्य को भी उन-उन प्रकरणों के बार-बार सुना है।
- ↑ ’परमेश्वर’ सम्बोधन से अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आप ईश्वरों के भी महान ईश्वर हैं और सर्वसमर्थ हैं; अतएव मैं आपके जिस ऐश्वर-स्वरूप के दर्शन करना चाहता हूं, उसके दर्शन आप सहज ही करा सकते हैं।
- ↑ असीम और अनन्त ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य और तेज आदि ईश्वरीय गुण और प्रभाव जिसमें प्रत्यक्ष दिखलायी देते हों तथा सारा विश्व जिसके एक अंश में हो, ऐसे रूप को यहाँ ‘ऐश्वररूप’ बतलाया है और ‘उसे मैं देखना चाहता हूं’ इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि ऐसा अद्भुत रूप मैंने कभी नहीं देखा, आपके मुख से उसका वर्णन सुनकर (गीता 10:42) उसे देखने की मेरे मन में अत्यंत उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी है, उस रूप के दर्शन करके मैं कृतकृत्य हो जाऊंगा- मैं ऐसा मानता हूँ।
- ↑ प्रभो’ सम्बोधन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप सबकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय तथा अन्तर्यामी-रूप से शासन करने वाले होने के कारण सर्वसमर्थ है। इसलिये यदि मैं आपके उस रूप के दर्शन का सुयोग्य अधिकारी नहीं हूँ तो आप कृपापूर्वक अपने सामर्थ्य से मुझे सुयोग्य अधिकारी बना सकते हैं।
- ↑ इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे मन में आपके उस रूप के दर्शन की लालसा अत्यंत प्रबल है आप अंतर्यामी हैं, देख लें-जान लें कि मेरी वह लालसा सच्ची और उत्कट है या नहीं। यदि आप उस लालसा को सच्ची पाते हैं, तब तो प्रभो! मैं उस स्वरूप के दर्शन का अधिकारी हो जाता हूं; क्योंकि आप तो भक्त-वाञ्छाकल्पतरू हैं, उसके मन की इच्छा ही देखते हैं, अन्य योग्यता को नहीं देखते। इसलिये यदि उचित समझें तो कृपा करके अपने उस स्वरूप के दर्शन मुझे कराइये।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 4-9
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