भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

कृष्ण द्वारा भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन करना

सम्बन्ध- अर्जुन की जिज्ञासा के अनुसार त्याग यानी कर्मयोग का और संन्यास का यानी सांख्ययोग तत्त्व अलग-अलग समझकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किंतु उस वर्णन में भगवान ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधक कर्तव्य है; अतएव अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्तिप्रधान कर्मयोग महिमा कहते है। मेरे परायण हुआ[2] कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को[3] प्राप्त हो जाता है।[4] सब कर्मों का मन से मुझमें अर्पण करके[5] तथा समबुद्धि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण[6] और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो।[7]

उपर्युक्त प्रकार से मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायगा[8] और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जायगा।[9] जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करुंगा’[10] तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्‍योंकि तेरा स्वभाव मुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा।[11] हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण[12] करना नहीं चाहता; उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा।[13] सम्बन्ध-पूर्वश्लोक में कर्म करने में मनुष्य को स्वभाव के अधीन बतलाया गया; इस पर यह शंका हो सकती है कि प्रकृति का स्वभाव जड़ है; वह किसी को अपने वश में कैसे कर सकता है; इसलिये भगवान कहते हैं।[1]

हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरुढ़ हुए सम्‍पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्‍वर[14]अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भम्रण करता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।[15] सम्बन्ध- यहाँ यह प्रश्न उठता है कि कर्मबन्धन से छूटकर परम शांतिलाभ करने के लिये मनुष्‍यों को क्या करना चाहिये; इस पर भगवान कहते हैं- हे भारत! तु सब प्रकार से उस परमेश्‍वर की ही शरण में जा[16] उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा।[17] सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन को अन्तर्यामी परमेश्‍वर की शरण ग्रहण करने के लिये आज्ञा देकर अब भगवान उक्त उपदेश का उपसंहार करते हुए कहते है- इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया।[18] अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचारक जैसे चाहता है। वैसे ही कर।[19][20]

सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन को सारे उपदेश पर विचार करके अपना कर्तव्य निर्धारित करने के लिये कहे जाने पर भी जब अर्जुन ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तो वे अपने को अनाधिकारी तथा कर्तव्य निश्चर्य करने में असमर्थ समझकर खिन्नचित्‍त हो गये, तब सबके हृदय की बात जानने वाले अन्‍तर्यामी भगवान स्वयं ही अर्जुन पर दया करके कहने लगे- सम्पूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचनों को तु फिर भी सुन।[21] तु मेरा अतिशय प्रिय है,[22]इससे यह परम हितकारक वचन मै तुझसें कहुंगा। हे अर्जुन! तू मुझमें मन वाला हो,[23] मेरा भक्त बन,[24] मेरा पूजन करने वाला हो,[25] और मुझको प्रणाम कर।[26] ऐसा करने से तु मुझे ही प्राप्त होगा,[27] यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूं,[28] क्‍योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्यागकर[29] तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा।[30] मैं तुम्‍हें पापों से मुक्त कर दूंगा,[31] तू शोक मत कर।[32][20]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 54-60
  2. समस्त कर्मों का और उनके फलरूप समस्त भोगों का आश्रय त्यागकर जो भगवान के ही आश्रित हो गया है, जो अपने मन-इन्द्रियों सहित शरीर को, उसके द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्मों को और उनके फल को भगवान के समर्पण करके उन सबसे ममता, आसक्ति और कामना हटाकर भगवान के ही परायण हो जाता है। भगवान को ही अपना परम प्राप्य, परम प्रिय, परम हितैषी, परमाधार और सर्वस्व समझकर जो भगवान के विधान में सदैव प्रसन्न रहता है- किसी भी सांसारिक वस्तु के संयोग-वियोग में और किसी भी घटना में कभी हर्ष-शोक नहीं करता, सदा भगवान पर ही निर्भर रहता है, वह भक्तिप्रधान कर्मयोगी ही भगवत्परायण है।
  3. जो सदा से और सदा रहता है, जिसका कभी अभाव नहीं होता, वह सच्चिदानन्‍दघन, पूर्णब्रह्मा, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्‍वर परम प्राप्य है, इसलिये उसे ‘परम पद’ के नाम से कहा गया है। इसी को पैंतालीसवें श्लोक में ‘संसिद्धि’ छियालीसवें में ‘सिद्धि’ और पचपनवें श्लोक में ‘माम्’ पदवाच्य परमेश्‍वर कहा गया है।
  4. सांख्ययोगी समस्त परिग्रह को समस्त भोगों का त्याग करके एकान्त देश में निरन्तर परमात्मा के ध्यान का साधन करता हुआ जिस परमात्मा को प्राप्त करता है, भगवदाश्रयी कर्मयोगी स्ववर्णाश्रमोचित समस्त कर्मों को सदा करता हुआ भी उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है; दोनों के फल में किसी प्रकार का भेद नहीं होता।
  5. अपने मन, इन्द्रिय और शरीर, उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों को और संसार की समस्त वस्तुओं को भगवान की समझकर उन सब में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है, भगवान ही सब प्रकार की शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा अपने इच्छानुसार समस्त कर्म करवाते हैं, मैं कुछ भी नहीं करता- ऐसा समझकर भगवान की आज्ञानुसार उन्‍हीं के लिये, उन्‍हीं की प्रेरणा से, जैसे करावें वैसे ही, निमित्तमात्र बनकर समस्त कर्मों को कठपुतली की भाँति करते रहना- यही समस्त कर्मों को मन से भगवान में अपर्ण कर देना है।
  6. भगवान को ही अपना परम प्राप्य, परम गति, परम हितेषी, परम प्रिय, और पराधार मानना, उनके विधान में सदा ही संतुष्ट रहना और उनकी प्राप्ति के साधनों में तत्पर रहना भगवान के परायण होना है।
  7. मन-बुद्धि को अटल भाव से भगवान में लगा देना; भगवान के सिवा अन्य किसी में किंचिन्मात्र भी प्रेम का सम्बन्ध न रखकर अनन्य प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान का ही चिन्तन करते रहना, क्षणमात्र के लिये भी भगवान की स्मृति का असंहार हो जाना; उठते-बैठते, चलते फिरते, खाते-पीते और समस्त कर्म करते समय भी नित्य-निरन्तर मन से भगवान के दर्शन करते रहना- यही निरन्तर भगवान में चित्त वाला होना है।
  8. निरन्तर मुझमें मन लगा देने के बाद तुम्हें और कुछ नहीं करना पड़ेगा, मेरी दया के प्रभाव से अनायास ही तुम्हारे इस लोक और परलोक के समस्त दुःख टल जायेंगें, तुम सब प्रकार के दुर्गुण और दुराचारों से रहित होकर सदा के लिये जन्म-मरण रूप महान संकट से मुक्त हो जाओगे और मुझ नित्य-आनन्दघन परमेश्‍वर को प्राप्त कर लोगे।
  9. यद्यपि भगवान अर्जुन से पहले यह कह चुके हैं कि तुम मेरे भक्त हो (गीता 4:3) और यह भी कह आये हैं कि ‘न मैं भक्तःप्रणश्यति’ अर्थात मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता (गीता 9:31) और यहाँ यह कहते है कि तुम नष्ट हो जाओगे अर्थात तुम्हारा पतन हो जायगा; इसमें विरोध मालूम होता है; किंतु भगवान स्वयं ही उपर्युक्त वाक्य में ‘चेत्’ पद का प्रयोग करके इस विरोध का समाधान कर दिया है। अभिप्राय यह है कि भगवान के भक्त का कभी पतन नहीं होता, यह ध्रुव सत्य है यह भी सत्य है कि अर्जुन भगवान के परम भक्त हैं; इसलिये वे भगवान की बात न सुने, उनकी आज्ञा का पालन न करे-यह हो नहीं सकता; किंतु इतने पर भी यदि अहंकार के वश में होकर भगवान की आज्ञा की अवहेलना कर दे, तो फिर भगवान के भक्त नहीं समझे जा सकते, इसलिये फिर उनका पतन होना भी युक्तिसंगत है।
  10. पहले भगवान के द्वारा युद्ध करने की आज्ञा दी जाने पर (गीता 2:3) जो अर्जुन ने भगवान से कहा था कि ‘न यात्स्ये’- मैं युद्ध नहीं करुंगा (गीता 2:9) उसी बात का स्मरण कराते हुए भगवान कहते हैं कि तुम जो यह मानते हो कि ‘मैं युद्ध नहीं करुंगा’, तुम्हारा यह मानना केवल अहंकार मात्र है; युद्ध न करना तुम्हारे हाथ की बात नहीं है।
  11. जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार जो वर्तमान जन्म में स्वभावरूप से प्रादुर्भूत हुए हैं, उसके समुदाय को प्रकृति यानी स्वभाव कहते है। इस स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य का भिन्न-भिन्न कर्मों के अधिकारी समुदाय में जन्म होता है और उस स्वभाव के अनुसार ही भिन्न-भिन्न मनुष्यों की भिन्न-भिन्न कर्मों में प्रवृति हुआ करती है। अतएव यहाँ उपर्युक्त वाक्य से भगवान ने यह दिखलाया है कि जिस स्वभाव के कारण तुम्हारा क्षत्रिय कुल में जन्म हुआ है, यह स्वभाव तुम्हारी इच्छा न रखने पर भी तुमको जबर्दस्ती युद्ध में प्रवृत करा देगा। योग्यता प्राप्त होने पर वीरतापूर्वक युद्ध करना, युद्ध से डरना या भागना नहीं, यह तुम्हारा सहज कर्म है; अतएव तुम इसे किये बिना रह नहीं सकोगे, तुमको युद्ध अवश्य करना पड़ेगा। यहाँ क्षत्रिय के नाते अर्जुन को युद्ध के विषय में जो बात कही है, वही बात अन्य वर्ण वालों को अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों के विषय में समझ लेनी चाहिये।
  12. न्याय से प्राप्त सहजकर्म को न करने का अविवेक के अतिरिक्त दूसरा कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है।
  13. यहाँ भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि युद्ध तो तुम्हें अपने स्वभाव के वश में होकर करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि मेरी आज्ञा के अनुसार अर्थात सत्तावनवें श्लोक में बतलायी हुई विधि के अनुसार उसे करोगे तो कर्मबन्धन से मुक्त होकर मुझें प्राप्त हो जाओगे, नहीं तो राग-द्वेष जाल में फँसकर जन्म-मृत्युरूप संसार सागर में गोते लगाते रहोगे। जिस प्रकार नदी के प्रवाह में बहता हुआ मनुष्य उस प्रवाह का सामना करके नदी पार नहीं जा सकता, वरं अपना नाश कर लेता है और जो किसी नौका या काठ का आश्रय लेकर या तैरने की कला से जल के ऊपर तैरता रहकर उस प्रवाह के अनुकूल चलता है, वह किनारे लगकर उसको पार कर लेता है; उसी प्रकार प्रकृति के प्रवाह में पड़ा हुआ जो मनुष्य प्रकृति का सामना करता है, यानी हठ से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर देता है, वह प्रकृति से पार नहीं हो सकता, वरं उसमें अधिक फँसता जाता है और जो परमेश्‍वर या कर्मयोग का आश्रय लेकर या ज्ञानमार्ग के अनुसार अपने को प्रकृति के ऊपर उठाकर प्रकृति के अनुकूल कर्म करता रहता है, वह कर्मबन्धन से मुक्त होकर प्रकृति के पार चला जाता हैं। अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
  14. यहाँ शरीर को यन्त्र का रूपक देकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे रेलगाड़ी आदि किन्ही यंत्रों पर बैठा हुआ मनुष्य स्वयं नहीं चलता, तो भी रेलगाड़ी आदि यन्त्र के चलने से उसका चलना हो जाता है- उसी प्रकार यद्यपि आत्मा निश्चल है, उसका किसी भी क्रिया से वास्तव में कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तो भी अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण उसका शरीर से सम्बन्ध होने से उस शरीर की क्रिया उसकी क्रिया मानी जाती है। तथा ईश्वर को सब भूतों के हृदय में स्थित बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि यन्त्र को चलाने वाला प्रेरक जैसे स्वयं भी उस यन्त्र में रहता है, उसी प्रकार ईश्वर भी समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित है।
  15. समस्त प्राणियों को उनके पूर्वाजित कर्म-संस्कारों के अनुसार फल भुगताने के लिये बार-बार नाना योनियों में उत्पन्न करना तथा भिन्न-भिन्न पदार्थों से, क्रियाओं से और प्राणियों से उनका संयोग-वियोग कराना और उसके स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार उन्‍हें पुनः चेष्टा करने में लगाना- यही भगवान का उन प्राणियों को अपनी माया द्वारा भम्रण कराना है।
    यहाँ यदि कोई यह कहे कि कर्म करने में और न करने में मनुष्य स्वतन्त्र है या परतन्त्र यदि परतन्त्र है तो किसके परतन्त्र है- प्रकृति के या स्वभाव के अथवा ईश्वर के क्‍योंकि प्राणी को उनसठवें और साठवें श्लोकों में प्रकृति के और स्वभाव के अधीन बतलाया है तथा इस श्लोक में ईश्वर के अधीन बतलाया है, जो कहना होगा कि कर्म करने और न करने में मनुष्य परतन्त्र है, इसीलिये यह कहा गया है कि कोई भी प्राणी क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता (गीता 3:5)। मनुष्य का कर्म करने का अधिकार बतलाया गया है, उसका अभिप्राय भी उसको स्वतंत्र बतलाना नहीं है, बल्कि परतन्त्र बतलाना ही है; क्‍योंकि वहाँ कर्मों के त्याग में अशक्यता सूचित की गयी है तथा मनुष्य को प्रकृति के अधीन बतलाना, स्वभाव के अधीन बतलाना, और ईश्वर के अधीन बतलाना- यह तीनों बातें एक ही है। क्‍योंकि स्वभाव और प्रकृति तो पर्यायवाची शब्द है और ईश्वर स्वयं निरपेक्षभाव से अर्थात सर्वथा निलिप्त रहते हुए ही जीवों की प्रकृति के अनुरूप अपनी मायाशक्ति के द्वारा उनको कर्मों में नियुक्त करते हैं। इसलिये ईश्वर के अधीन बतलाना प्रकृति के ही अधीन बतलाना है। दूसरे पक्ष में ईश्वर ही प्रकृति के स्वामी और प्रेरक हैं, इस कारण प्रकृति के अधीन बतलाना भी ईश्वर के ही अधीन बतलाना है।
    इस पर कोई यह कहे कि यदि मनुष्य सर्वथा ही परतंत्र है तो फिर उसके उद्धार होने का क्या उपाय है। और उसके लिये कर्तव्य-अकर्तव्य विधान करने वाले शास्त्रों की क्या आवश्यकता है; तो कहना होगा कि कर्तव्य-अकर्तव्य का विधान करने वाले शास्त्र मनुष्य को उसके स्वाभाविक कर्मों से हटाने के लिये या उससे स्वभावविरुद्ध कर्म करवाने के लिये नहीं है, किंतु उन कर्मों को करने में जो राग-द्वेष के वश में होकर वह अन्याय कर लेता है, उस अन्याय का त्याग कराकर उसे न्यायपूर्वक कर्तव्य कर्मों में लगाने के लिये है। इसलिये मनुष्य कर्म करने में स्वभाव के परतन्त्र होते हुए भी उन स्वभाव का सुधार करने में परतन्त्र नहीं है। अतएव यदि वह शास्त्र और महापुरुषों के उपदेश से सचेत होकर प्रकृति के प्रेरक सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की शरण ग्रहण कर ले और राग-द्वेषादि विकारों का त्याग करके शास्त्रविधि के अनुसार न्यायपूर्वक अपने स्वाभाविक कर्मों को निष्कामभाव से करता हुआ अपना जीवन बितान लगे तो उनका उद्धार हो सकता है।
  16. भगवान के गुण, प्रभाव, तत्त्व और स्वरूप का श्रद्धापूर्वक निश्चय करके भगवान को ही परम प्राप्त, परमगति, परमआश्रय और सर्वस्व समझना तथा उनको अपना स्वामी, भर्ता, प्रेरक, रक्षक और परम हितैषी, समझकर सब प्रकार से उन पर निर्भर और निर्भय हो जाना एवं सब कुछ भगवान का समझकर और भगवान को सर्वव्यापी जानकर समस्त कर्मों में ममता, अभिमान, आसक्ति और कामना का त्याग करके भगवान के आज्ञानुसार अपने कर्मों द्वारा समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित परमेश्‍वर की सेवा करना; भगवान के किसी भी विधान में किंचितमात्र भी संतुष्ट न होना; मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करके भगवान के सिवा किसी भी सांसारिक वस्तु में ममता और आसक्ति न रखना; अतिशयश्रद्धा और अनन्य प्रेमपूर्वक भगवान के नाम, गुण, प्रभाव, लीला तत्त्व और स्वरूप का नित्य-निरन्तर श्रवण, चिन्तन, और कथन करते रहना- ये सभी भाव तथा क्रियाएँ सब प्रकार से परमेश्‍वर की शरण ग्रहण करने के अन्तर्गत है।
  17. उपर्युक्त प्रकार से भगवान की शरण ग्रहण करने वाले भक्त पर परमदयालु, परमसुहृद, सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की अपार दया का स्त्रोत बहने लगता है- जो उसके समस्त दुःखों और बन्धनों को सदा के लिये बहा ले जाते है। इस प्रकार भक्त का जो समस्त दुःखों से और समस्त बन्धनों से छूटकर सदा के लिये परमानन्द से युक्त हो जाना और सच्चिदानन्‍दन पूर्णब्रह्मा सनातन परमेश्‍वर को प्राप्त हो जाना हैं। यही परमेश्‍वर की कृपा से परम शांति को और सनातन परम धाम को प्राप्त हो जाना है।
  18. भगवान ने गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से आरम्भ करके यहाँ तक अर्जुन को अपने गुण, प्रभाव, तत्त्व और स्वरूप का रहस्य भलीभाँति समझाने के लिये जितनी बातें कही हैं- उस समस्त उपदेश का वाचक यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द है, वह सारा-का-सारा उपदेश भगवान का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने वाला है, इसलिये उनका नाम ‘ज्ञान’ रखा गया है। संसार में और शास्त्रों में जितने भी गुप्त रखने योग्य रहस्य विषय माने गये है, उन सब में भगवान के गुण, प्रभाव और स्वरूप यथार्थ ज्ञान करा देने वाला उपदेश सबसे बढ़कर गुप्त रखने योग्य माना गया है; इसलिये यह उपदेश का महत्त्व समझाने के लिये और यह बात समझाने के लिये कि अनाधिकारी के सामने इन बातों को प्रकट नही करना चाहिये, इस ज्ञान को अत्यन्त गोपनीय बतलाया गया है।
  19. गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से उपदेश आरम्भ करके भगवान ने अर्जुन को सांख्ययोग और कर्मयोग, इन दोनों ही साधनों के अनुसार स्वधर्मरूप युद्ध करना जगह-जगह (गीता 2:27, 37; 3/30; 8/7; 11/34) कर्तव्य बतलाया तथा अपनी शरण ग्रहण करने के लिये कहा। इस पर भी कोई उत्तर न मिलने से पुनः अर्जुन को सावधान करने के लिये परमेश्वर को सबका प्रेरक और सबके हृदय में स्थित बतलाकर उसकी शरण ग्रहण करने के लिये कहा। इतने पर भी जब अर्जुन कुछ नहीं कहा, तब इस श्लोक के पूर्वाद्ध में उपदेश का उपसंहार करके एवं कहे हुए उपदेश का महत्त्व दिखलाकर इस वाक्य से पुनः उस पर विचार करने के लिये अर्जुन को सावधान करते हुए अन्त में भगवान ने यह कहा कि मैंने जो कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग आदि बहुत प्रकार के साधन बतलाये है, उनमें से तुम्‍हें जो साधन अच्छा मालूम पड़े, उसी का पालन करो अथवा और जो कुछ तुम ठीक समझो, वही करो।
  20. 20.0 20.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 61-66
  21. भगवान ने यहाँ तक अर्जुन को जितनी बातें कहीं, वे सभी बातें गुप्त रखने योग्य हैं; अतः उनको भगवान ने जगह-जगह ‘परम गुहार’ और ‘उत्तम रहस्य’ नाम दिया है। उस समस्त उपदेश में भी जहाँ भगवान खास अपने गुण, प्रभाव, स्वरूप, महिमा और ऐश्वर्य को प्रकट करके यानी मै ही स्वयं सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान, साक्षात सगुण-निर्गुण परमेश्वर हूं- इस प्रकार कहकर अर्जुन को अपना भजन करने के लिये और अपनी शरण में आने के लिये कहा, वे वचन अधिक-से-अधिक गुप्त रखने योग्य है (गीता 9:1-2) वे पहले भी कहे जा चुके हैं। (गीता 9:34; 12/6-7; 18/56-57) अतः यहाँ भगवान के कहने का यह अभिप्राय है। कि पहले कहे हुए उपदेश में भी जो अत्यन्त गुप्त रखने योग्य सबसे अधिक महत्त्व की बात है, वह मैं तुम्‍हें अगले दो श्लोकों में फिर कहुँगा।
  22. तिरसठवें श्लोक में कही हुई बात को सुनकर भगवान ने अर्जुन को अपने कर्तव्य का निश्चय करने के लिये स्वतंत्र विचार करने को कह दिया, उसका भार उन्‍होंने अपने ऊपर नहीं रखा; इस बात को सुनकर जब अर्जुन के मन में उदासी छा गयी, वे सोचने लगे कि क्या मेरा भगवान पर विश्वास नहीं है, क्या मैं इसका भक्त और प्रेमी नहीं हूं, तब अर्जुन का शोक दूर करने के लिये उन्हें उत्साहित करते हुए भगवान यह भाव दिखलाते है कि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो, तुम्हारा और मेरा प्रेम का बन्धन अटल है। अतः तुम किसी तरह का शोक मत करो।
  23. भगवान को सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, सवेश्वर, तथा अतिशय सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य आदि गुणों के समुद्र समझकर अनन्य प्रेमपूर्वक निश्चलभाव से मन को भगवान मे लगा देना, क्षणमात्र भी भगवान की विस्मृति को न सह करना ‘भगवान में मनवाला’ होना है।
  24. भगवान को ही एकमात्र अपना भर्ता, स्वामी, संरक्षक, परमगति और परम आश्रय समझकर सर्वथा उनके अधीन हो जाना, किंचिमात्र भी अपनी स्वतंत्रता न रखना, सब प्रकार से उन पर निर्भर रहना, उनके प्रत्येक विधान में सदा ही संतुष्ट रहना और उनकी आज्ञा का सदा पालन करना तथा उनमें अतिशय श्रद्धापूर्वक अनन्य प्रेम करना ‘भगवान का भक्त बनना’ है।
  25. गीता के नवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक के वर्णानानुसार पत्र-पुष्पादि से श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्ण भगवान के विग्रह का पूजन करना; मन से भगवान का आवाहन करके उनकी मानसिक पूजा करना; उनके वचनों का, उनकी लीलाभूमि का और उनके विग्रह का सब प्रकार से आदर-सम्मन करना तथा सब में भगवान को व्याप्त समझकर या समस्त प्राणियों को भगवान को स्वरूप समझकर उनकी यथायोग्य सेवा-पूजा, आदर-सत्कार करना आदि सब ‘भगवान की पूजा’ करने के अन्तर्गत है।
  26. जिन परमेश्वर के सगुण-निर्गुण, निराकार-साकार आदि अनेक रूप हैं; जो अर्जुन के सामने श्रीकृष्णरूप में प्रकट होकर गीता का उपदेश सुना रहे हैं; जिन्‍होंने रामरूप में प्रकट होकर संसार में धर्म की मर्यादा का स्थापन किया और नृसिंहरूप धारण करके भक्त प्रह्लाद का उद्धार किया- उन्‍हीं सर्वशक्तिमान, सर्वगुणसम्पन्न, अन्‍तर्यामी, परमाधार, समग्र पुरुषोत्तम भगवान के किसी भी रूप को, चित्र को चरणचिह्नों को या चरणपादुकाओं को तथा उनके गुण, प्रभाव और तत्त्व का वर्णन करने वाला शास्त्रों को साष्टांग प्रणाम करना या समस्त प्राणियों में उनको व्याप्त या समस्त प्राणियों को भगवान का स्वरूप समझकर सबको प्रणाम करना- ‘भगवान को नमस्कार करना’ है।
  27. जिसमें चारों साधनपूर्ण रूप से होते हैं, उसको भगवान की प्राप्ति हो जाये- इसमें तो कहना ही क्या; परंतु इनमें से एक-एक साधन से भी भगवान की प्राप्ति हो सकती है; क्‍योंकि भगवान ने स्वयं ही गीता के आठवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में केवल अनन्यचिन्तन से अपनी प्राप्ति को सुलभ बतलाया है। क्‍योंकि सातवें अध्याय के तेईसवें और नवें के पचीसवें में अपने भक्त को अपनी प्राप्ति बतलायी है। और नवें अध्याय के छब्बीसवें अठ्ठाइसवें तक एवं इस अध्याय के छियालिसवें श्लोक में केवल पूजन से अपनी प्राप्ति बतलायी है।
  28. अर्जुन भगवान के प्रिय भक्त और सखा थे, अतएव उन पर प्रेम और दया करके उनका अपने ऊपर अतिशय दृढ़ विश्वास कराने के लिये अर्जुन के निमित्त से अन्य अधिकारी मनुष्यों का विश्वास दृढ़ कराने के लिये भगवान ने कहा है कि मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ।
  29. वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य के लिये जो जो कर्मकर्तव्य बतलाये गये हैं, गीता के बारहवें अध्याय के छठे श्लोक में ‘सर्वणि’ विशेषण के सहित ‘कर्मणि’ पद से और इस अध्याय के सत्तावनवें श्लोक में ‘सर्व कर्मणि’ पद से जिनका वर्णन किया गया है, उन शास्त्रविहित समस्त कर्मों को उन दोनों श्लोकों की व्याख्या में बतलाये हुए प्रकार से भगवान में समर्पण कर देना अर्थात सब कुछ भगवान का समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर में उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उनके फलस्वरूप समस्त भोगों में ममता, आसक्ति, अभिमान और कामना का सर्वथा त्याग कर देना और केवल भगवान के ही लिये भगवान की आज्ञा और प्रेरणा अनुसार, जैसे वे करवावें, वैसे कठपुतली की भाँति उनको करते रहना- यही यहाँ समस्त धर्मों का परित्याग करना है, उनका स्वरूप से त्याग करना नहीं।
  30. गीता के बारहवें अध्याय के छठे श्लोक में, नवें अध्याय के अंतिम श्लोक में तथा इस अध्याय के सत्तावनवें श्लोक में कहे हुए प्रकार से भगवान को ही अपना परमप्राप्य, परमगति, परमाधार, परमप्रिय, परमहितैषी, परमसुहृदय, परम आत्मीय तथा भर्ता, स्वामी, सरंक्षक समझकर उठते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते, सोते-जागते और हर एक प्रकार से उनकी आज्ञाओं का पालन करते समय परम श्रद्धापूर्वक अनन्यप्रेम से नित्य-निरन्तर उनका चिन्तन करते रहना और उनके विधान में सदा ही संतुष्ट रहना एवं सब प्रकार से केवलमात्र एक भगवान पर ही भक्त प्रहलाद की भाँति निर्भर रहना एकमात्र परमेश्वर की शरण में चला जाना है।
  31. शुभाशुभ कर्मों का फलरूप जो कर्मबन्धन है- जिससे बँधा हुआ मनुष्य जन्म-जन्मान्तर से नाना योनियों मे घूम रहा है, उस कर्मबन्धन से मुक्त कर देना ही पापों से मुक्त कर देना है। इसलिये गीता के तीसरे अध्याय के इकतीसवें श्लोक में ‘कर्मभिः मुच्यन्ते’ से, बारहवें अध्याय के सातवें श्लोक में ‘मृत्युसंसारसागरात् समुद्धर्ता भवामि’ से और इस अध्याय के अठावनवें श्लोक में ‘मत्यप्रसादात्सर्वदुर्गाणि तरिष्यसि’ से जो बात कही गयी है, वही बात यहाँ ‘मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा’ इस वाक्य से कही गयी है।
  32. गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक में ‘अशोच्यान्’ पद से जिस उपदेश का उपक्रम किया था, ‘मां शुचः’ पद से उपसंहार करके भगवान ने यह दिखलाया है कि गीता के दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में तुम मेरी शरणगति स्वीकार कर ही चुके हो, अब पूर्ण रूप से मेरे शरणागत होकर तुम कुछ भी चिंता न करो और शोक का सर्वथा त्याग करके सदा-सर्वदा मुझ परमेश्वर पर निर्भर हो रहो। यह शोक का सर्वथा अभाव और भगवत्साक्षात्कार ही गीता का मुख्य तात्पर्य है।

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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