भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 33वें अध्याय में 'भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन' हुआ हैं, जो इस प्रकार है-[1]


सम्‍बन्‍ध – पूर्वश्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को भगवान् के प्रेमी भक्तों से भिन्न श्रेणी के उपासकों की उपासना का प्रकार बतलाया था। अब कृष्ण अर्जुन को भगवान् की भक्ति का भगवप्राप्ति रूप महान् फल होने पर उसके साधन में कोई कठिनता नहीं है, बल्कि उसका साधन बहुत ही सुगम है – यही बात दिखलाने के लिये भगवान् कहते हैं –हे अर्जुन! जो कोई भक्‍त[2] मेरे लिये प्रेम से पत्र, पुष्‍प, फल, जल आदि अर्पण करता है,[3] उस शुद्ध बुद्धि निष्‍काम प्रेमी भक्‍त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र पुष्‍पादि मैं सगुण रूप से प्रकटहोकर प्रीति स‍हित खाता हॅू।[4]

सम्‍बन्‍ध – यदि ऐसी ही बात है तो मुझे क्‍या करना चाहिये, इस जिज्ञासा पर भगवान् अर्जुन को उसका कर्तव्‍य बतलाते हैं-है अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है,[5] वह सब मेरे अर्पण कर[6]

सम्‍बन्‍ध – इस प्रकार समस्‍त कर्मो को आपके अर्पण करने से क्‍या होगा, इस जिज्ञासा पर कहते हैं। इस प्रकार,जिसमें समस्‍त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं- ऐसे सन्‍यास सयोग से युक्‍त[7] चित्‍तवाला तू शुभा-शुभ फलरूप कर्मबन्‍धन से मुक्‍त हो जायगा और उनसे मुक्‍त होकर मुझको ही प्राप्‍त होगा।[8]

सम्‍ब्‍ान्‍ध - उपर्यक्‍त प्रकार से भगवान् की भक्ति करने वाले को भगवान् की प्राप्ति होती है, दूसरों को नहीं होती – इस कथन से भगवान् विषमता के दोष की आशंका हो सकती है। अतएव उसका निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं।[1] मैं सब भूतों में समभाव से व्‍यापक हॅू, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है;[9] परंतु जो भक्‍त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझ में हैं और मैं भी उनमें प्रत्‍यक्ष्‍ा प्रकट हॅू।[10] यदि कोई अतिशय दुराचारी[11] भी अनन्‍य भाव से मेरा भक्‍त होकर मुझको भजता है[12]तो वह साधु ही मानने योग्‍य है, क्‍योंकि वह यथाथ निश्‍चय वाला है। अर्थात् उसने भली-भाँति निश्‍चय कर लिया है कि परमेश्‍वर के भजन के समान अन्‍य कुछ भी नहीं है।[13] वह शीघ्र ही धर्मात्‍मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्‍त होता है।[14] हे अर्जुन! तू निश्‍चय पूर्वक सत्‍य जान[15] कि मेरा भक्‍त नष्‍ट नहीं होता[16][17]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 24-28
  2. इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि किसी भी वर्ण, आश्रम और जाति का कोई भी मनुष्‍य पत्र, पुष्‍प, फल, जल आदि मेरे अर्पण कर सकता है। बल, रूप, धन, आयु, जाति, गुण और विद्या आदि के कारण मेरी किसी में भेदबुद्धि नहीं है; अवश्‍य ही अर्पण करने वाले का भाव विदुर और शबरी आदि की भाँति सर्वथा शुद्ध्ध और प्रेमपूर्ण होना चाहिये।
  3. यहाँ पत्र, पुष्‍प, फल और जल का नाम लेकर यह भाव दिखलाया गया है कि जो वस्‍तु साधारण मनुष्‍यों को बिना किसी परिश्रम, हिंसा और व्‍यय के अनायास मिल सकती है- ऐसी कोई भी वस्‍तु भगवान् को अर्पण की जा सकती है। भगवान् पूर्णकाम होने के कारण वस्‍तु के भूखे नहीं हैं, उनको तो केवल प्रेम की ही आवश्‍यकता है। ‘मुझ जैसे साधारण से साधारण मनुष्‍य द्वारा अर्पण की हुई छोटी से छोटी वस्‍तु भी भगवान् सहर्ष स्‍वीकार कर लेते हैं, यह उनकी कैसी महत्‍ता है! ’ इस भाव से भावित होकर प्रेम विहल चित्‍त से किसी भी वस्‍तु को भगवान् के समर्पण करना, उसे भक्ति पूर्वक भगवान् के अर्पण करना है।
  4. जिसका अन्‍तःकरण शुद्ध हो, उसे ‘शुद्धबुद्धि’ कहते हैं। इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि अर्पण करने वाले का भाव शुद्ध न हो तो बाहर से चाहे जितने शिष्‍टाचार के साथ, चाहे जितनी उत्‍तम से उत्‍तम सामग्री मुझे अर्पण की जाय, मैं उसे कभी स्‍वीकार नहीं करता। मैंने दुर्योधन का निमन्‍त्रण अस्‍वीकार करके भाव शुद्ध होने के कारण विदुर के घर पर जाकर प्रेम पूर्वक भोजन किया, सुदामा के चिउरों का बडी रुचि के साथ भोग लगाया, द्रौपदी की बटलोई में बचे हुए ‘पत्‍ते’ को खाकर विश्‍व को तृप्‍त कर दिया, गजेन्‍द्र द्वारा अर्पण किया हुए ‘पुष्‍प’ को स्‍वयं वहाँ पहॅुचकर स्‍वीकार किया, शबरी की कुटिया पर जाकर उसके दिये हुए ‘फलों’ का भोग लगाया और रन्तिदेव के ‘जल’ को स्‍वीकार करके उसे कृतार्थ किया। इसी प्रकार प्रत्‍येक भक्‍त की प्रेम पूर्वक अर्पण की हुई वस्‍तु को मैं सहर्ष स्‍वीकार करता हॅू।
  5. इससे भगवान् ने सब प्रकार के कर्तव्‍य कर्मो का समाहार किया हैा अभिप्राय यह है कि यज्ञ, दान और तप के अतिरिक्‍त जीविका निर्वाह आदि के लिये किये जाने वाले वर्ण, आश्रम और लोकव्‍यवहार के कर्म तथा भगवान् का भजन, ध्‍यान आदि जितने भी शास्‍त्रीय कर्म हैं, उन सबका समावेश ‘यत्‍करोष' में, शरीर पालन के निमित्‍त किये जाने वाले खान पान आदि कर्मो का ‘यदश्‍नासि’ में, पूजन और हवन सम्‍बन्‍धी समस्‍त कर्मो का 'यज्‍जुहोषि' में, सेवा और दान सम्‍बन्‍धी समस्‍त कर्मो ‘यद्ददासि’ में और संयम तथा तप सम्‍बन्‍धी समस्‍त कर्मो का समावेश ‘यत्‍तपस्‍यसि’ में किया गया है (गीता 17।14-17)
  6. साधारण मनुष्‍य की उन कर्मो में ममता और आसक्ति होती है तथा वह उनमें फल की कामना रखता हैा अतएव समस्‍त कर्मो में ममता, आसक्ति और फल की इच्‍छा का त्‍याग कर देना और यह समझना कि समस्‍त जगत भगवान् का है, मेरे मन, बुद्धि, शरीर तथा इन्द्रिय भी भगवान् के हैं और मैं स्‍वयं भी भगवान् का हॅू, इसीलिये मेरे द्वारा जो कुछ भी यज्ञादि कर्म किये जाते हैं, वे सब भगवान् के ही हैं। कठपुतली को नचाने वाले सूत्रधार की भाँति भगवान् ही मुझसे यह सब कुछ करवा रहे हैं। मैं तो केवल निमित्‍त मात्र हॅू- ऐसा समझकर जो भगवान् के आज्ञानुसार भगवान् की ही प्रसन्‍न्‍ाता के लिये निष्‍काम भाव से उपर्युक्‍त कर्मो का करना है, यही उन कर्मो को भगवान् के अर्पण करना है। पहले किसी दूसरे उद्देश्‍य से किये हुए कर्मो को पीछे से भगवान् को अर्पण करना, कर्म करते करते बीच में ही भगवान् के अर्पण कर देना, कर्म समाप्‍त होने के साथ साथ भगवान् के अर्पण कर देना अथवा कर्मो का फल ही भगवान् के अर्पण करना इस प्रकार का अर्पण करना भी भगवान् के ही अर्पण करना है। पहले इसी प्रकार होता है। ऐसा करते करते ही उपर्युक्‍त प्रकार से पूर्णतया भगवदर्पण होता है।
  7. यहाँ संन्यासयोग पद सांख्ययोंग अर्थात्‌ ज्ञान योग का वाचक नहीं है, किंतु पूर्वश्लोक के अनुशार समस्त कर्मों को भगवान्‌ के अर्पण कर देना ही यहाँ 'संन्यासयोग' है। इसलिये ऐसे संन्यास योग से जिसका आत्मा युक्त हो, जिसके मन और बुद्धि में पूर्वश्लोक के कथानुसार समस्त कर्म भगवान्‌ के अर्पण करने का भाव सुद्रढ़ हो गया हो, उसे 'संन्यासयोगयुक्तात्मा' समझना चाहिये।
  8. भिन्‍न भिन्‍न शुभाशुभ कर्मो के अनुसार स्‍वर्ग, नरक, और पशु, पक्षी एवं मनुष्‍यादि लोको के अंदर नाना प्रकार की योनियों में जन्‍म लेना तथा सुख दुःखों का भोग करना – यही शुभाशुभ फल है, इसी को कर्मबन्‍धन कहते है क्‍योंकि कर्मो का फल भोगना ही कर्मबन्‍धन में पड़ना है। उपर्युक्‍त प्रकार से समस्त कर्म भगवान् के अर्पण कर देने वाला मनुष्‍य कर्म फलस्‍वरूप पुनर्जन्‍म से और सुख दुःखों के भोग से मुक्‍त हो जाता है, यही शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्‍धन से मुक्‍त हो जाना है। मरने के बाद भगवान् के परम धाम में पहॅुच जाना या इसी जन्‍म में भगवान् को प्रत्‍यक्ष प्राप्‍त कर लेना ही उस कर्मबन्‍धन से मुक्‍त होकर भगवान को प्राप्‍त होना है।
  9. इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं ब्रह्मा से लेकर स्‍तम्‍ब पर्यन्‍त समस्‍त प्राणियों में अन्‍तर्यामीरूप से समान भाव से व्‍याप्‍त हॅू। अतएव मेरा सब में समभाव है, किसी में भी मेरा राग-द्वेष नहीं है। इसलिये वास्‍तव में मेरा कोई भी अप्रिय या प्रिय नहीं है।
  10. भगवान् के साकार या निराकार – किसी भी रूप का श्रद्धा और प्रेमपूर्वक निरन्‍तर चिन्‍तन करना उनके नाम, गुण, प्रभाव, महिमा और लीला चरित्रों का श्रवण, मनन और कीर्तन करना उनको नमस्‍कार करना, पत्र, पुष्‍प आदि यथेष्‍ट सामग्रियों द्वारा उनकी प्रेमपूर्वक पूजा करना और अपने समस्‍त कर्म उनके समर्पण करना आदि सभी क्रियाओं का नाम भक्तिपूर्वक भगवान् को भजना है। जो पुरुष इस प्रकार भगवान् को भजते हैं, भगवान् भी उनको वैसे ही भजते है। वे जैसे भगवान् को नहीं भूलते, वैसे ही भगवान् भी उनको नहीं भूल सकते – यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने उनको अपने में बतलाया है और उन भक्‍तें को विशुद्ध अन्‍तःकरण भगवत्‍प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है, इससे उनके हदय में भगवान् सदा सर्वदा प्रत्‍यक्ष दिखने लगते हैं- यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने अपने को उनमें बतलाया है। जैसे समभाव से सब जगह प्रकाश देने वाला सूर्य दर्पण आदि स्‍वच्‍छ पदार्थो में प्रतिविम्बित होता है, काष्‍ठादि में नहीं होता, तथापि उसमें विषमता नहीं है, वैसे ही भगवान् भी भक्‍तों को मिलते हैं, दूसरों को नहीं मिलते- इसमें उनकी विषमता नहीं है, यह तो भक्ति की ही महिमा है।
  11. ‘चेतू’ अव्‍यय ‘यदि’ के अर्थ में हैा इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि प्रायः दुराचारी मनुष्‍यों की विषयों में और पापों में आसक्ति रहने के कारण वे मुझमें प्रेम करके मेरा भजन नहीं करते, तथापि किसी पूर्व शुभ संस्‍कार की जागृति, भगवद्रावमय वातावरण, शास्त्र के अध्‍ययन और महात्‍मा पुरुषों के सत्‍संग एवं मेरे गुण, प्रभाव, महत्त्व और रहस्‍य का श्रवण करने से यदि कदाचित दुराचारी मनुष्‍य की मुझमें श्रद्धा भक्ति हो जाय और वह मेरा भजन करने लगे तो उसका भी उद्धार हो जाता है।
  12. जिनके आचरण अत्‍यन्‍त दूषित हो, खान पान और चाल चलन भ्रष्‍ट हों, अपने स्‍वभाव, आसक्ति और बुरी आदत से विवश होने के कारण जो दुराचारों का त्‍याग न कर सकते हों, ऐसे मनुष्‍यों को अतिशय दुराचारी समझना चाहिये। ऐसे मनुष्‍यों का जो भगवान् के गुण, प्रभाव आदि के सुनने और पढ़ने से या अन्‍य किसी कारण से भगवान् को सर्वोत्‍तम समझ लेना और एकमात्र भगवान् का ही आश्रय लेकर श्रद्धा प्रेमपूर्वक उन्‍हीं को अपना इष्‍टदेव मान लेना है- यही उनका 'अनन्‍यभाव' होना है। इस प्रकार भगवान् का भक्‍त बनकर जो उनके स्‍वरूप का चिन्‍तन करना, नाम, गुण, महिमा और प्रभाव का श्रवण, मनन और कीर्तन करना, उनको नमस्‍कार करना, पत्र, पुष्‍प आदि यथेष्‍ट वस्‍तु उनके अर्पण करके उनका पूजन करना तथा अपने किये हुए शुभ कर्मो को भगवान् के समर्पण करना है- यही अनन्‍यभाक होकर भगवान् का भजन करना है।
  13. जिसने यह दृढ़ निश्‍चय कर लिया है कि 'भगवान् प्रतितपावन, सबके सुहद्' सर्वशक्तिमान्, परम दयालु, सर्वज्ञ, सबके स्‍वामी और सर्वोत्‍तम हैं एवं उनका भजन करना ही मनुष्‍य जीवन का परम कर्त्‍तव्‍य है; इससे समस्‍त पापों और पाप वासनाओं का समूल नाश होकर भगवत्‍कृपा से मुझको अपने आप ही भगवत्‍प्राप्ति हो जायेगी।' – यह बहुत ही उत्‍तम और यथार्थ निश्‍चय है। भगवान् कहते हैं कि जिसका ऐसा निश्‍चय है, वह मेरा भक्‍त है और मेरी भक्ति प्रताप से वह शीघ्र ही पूर्ण धर्मात्‍मा हो जाएगा। अतएव उसे पापी या दुष्‍ट न मानकर साधु ही मानना उचित है।
  14. इसी जन्‍म में बहुत ही शीघ्र सब प्रकार के दुर्गण और दुराचारों से रहित होकर गीता के सोलहवें अध्‍याय के पहले, ‘दूसरे और तीसरे श्‍लोकों में वर्णित दैवी सम्‍पदा से युक्‍त हो जाना अर्थात भगवान् की प्राप्ति का पात्र बन जाना ही शीघ्र धर्मात्‍मा बन जाना है और जो सदा रहने वाली शान्ति है, जिसकी एक बार प्राप्ति हो जाने पर फिर कभी अभाव नहीं होता, जिसे नैष्ठिकी शान्ति (गीता 5।12), निर्वाणपरमा शान्ति (गीता 6।15) और परमा शान्ति (गीता 18।62) कहते हैं, परमेश्‍वर की प्राप्ति रूप उस शान्ति को प्राप्‍त हो जाना ही ‘सदा रहने वाली परम शान्ति’ को प्राप्‍त होना है।
  15. इसके प्रयोग से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ‘अर्जुन! मैंने जो तुम्‍हें अपनी भक्ति का और भक्‍त का यह महत्त्व बतलाया है, उसमें तुम्‍हें किन्तु मात्र भी संशय न रखकर उसे सर्वथा सत्‍य समझना और दृढ़तापूर्वक धारण कर लेना चाहिये।
  16. यहाँ भगवान् के कहने का यह अभिप्राय है कि मेरे भक्‍त का क्रमशः उत्‍थान ही होता रहता है, पतन नहीं होताा अर्थात् वह न तो अपनी स्थिति से कभी गिरता है और न उसको नीच योनि या नरकादिकी प्राप्ति रूप दुर्गति की ही प्राप्ति होती है वह पूर्व कथन के अनुसार क्रमशः दुर्गुण दुराचारों से सर्वथा रहित होकर शीघ्र ही धर्मात्‍मा बन जाता है और परम शान्ति को प्राप्‍त हो जाता है।
  17. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 29-34

सम्बंधित लेख

महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः