शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 40वें अध्याय में 'शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

कृष्ण द्वारा अर्जुन से शास्त्र के अनुकूल आचरण करने वालों के लिए प्रेरणा का वर्णन करना

सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन किया था। अब ऐसे नास्तिक सिद्धान्त के मानने वालों के स्वभाव और आचरण कैसे होते हैं, इस जिज्ञासा पर भगवान् कृष्ण अर्जुन को अगले चार श्लोकों में उनके लक्षणों का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि हे अर्जुन! इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सबका उपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिये ही समर्थ होते हैं।[2] वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण ने होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणों को धारण करके[3] संसार में विचरते हैं। तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओ का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों के भोगने तत्पर रहने वाले और ‘इतना ही सुख है’ इस प्रकार मानने वाले होते हैं।[1] वे आशा की सैकडों फांसियों से बॅधे हुए[4] मनुष्य काम क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिये अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थो को संग्रह करने की चेष्टा करते रहते हैं।[5] वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायेगा। वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूंगा। मैं ईश्वर हॅू, ऐश्वर्य को भोगने वाला हॅू। मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान तथा सुखी हॅू।[6] मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है मैं यज्ञ करूंगा, दान दॅूगा और आमोद-प्रमोद करूंगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान अपवित्र नरक में गिरते हैं।[7] वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र विधिरहित यजन करते हैं। वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतयार्मी से द्वेष करने वाले होते हैं।[8]

सम्बन्ध- इस प्रकार सातवें से अठारहवें श्लोक तक आसुरी स्वभाव वालो के दुर्गुण-दुराचार में त्याग बुद्धि कराने के लिये अगले दो श्लोको में भगवान् वैसे लोगों की घोर निन्दा करते हुए उनकी दर्गति का वर्णन करते हैं- उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में[9] ही डालता हॅू।[10] हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझकों न प्राप्त होकर[11] जन्म-अजन्में आसुरी योनिकों प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।

सम्बन्ध- आसुर- स्वभाव वाले मनुष्यों को लगातार आसुरी योनियों के और घोर नरकों के प्राप्त होने की बात सुनकर यह जिज्ञासा हो सकती है कि उनके लिये इस दुर्गति से बचकर परम गति को प्राप्त करने का क्या उपाय है इस पर कहते हैं। काम, क्रोध तथा लोभ-ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसकी अधोगति में ले जाने वाले हैं।[12] अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिये। हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण आचरण करता है,[13] इससे वह परमगति को जाता है अर्थात मुझको प्राप्त हो जाता है। सम्बन्ध जो उपयुक्त दैवी सम्पदा का आचरण न करके अपनी मान्यता के अनुसार कर्म करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है या नहीं इस पर कहते हैं- जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम्-गति को और न सुख को ही।[14] इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करने योग्य है।[15][16]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 40 श्लोक 4-11
  2. नास्तिक सिद्धान्त वाले मनुष्य आत्मा की सत्ता नहीं मानते, वे केवल देहवादी या भौतिकवादी ही होते हैं इससे उनका स्वभाव भ्रष्ट हो जाता है, उनकी किसी भी सत्कार्य के करने में प्रवृति नहीं होती। उनकी बुद्धि भी अत्यन्त मन्द होती है; वे जो कुछ निश्रय करते हैं, सब केवल भोग-सुख की दृष्टि से ही करते हैं। उनका मन निरन्तर सबका अहित करने की बात ही सोचा करता है, इससे वे अपना भी अहित ही करते हैं तथा मन, वाणी, शरीर से चराचर जीवों को डराने, दुःख देने और उनका नाश करने वाले बड़े-बड़े़ भयानक कर्म ही करते रहते हैं।
  3. जिनके खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल, व्यवसाय-वाणिज्य, देन-लेन और बर्ताव-व्यवहार आदि शास्त्र विरुद्ध और भ्रष्ट होते हैं, वे भ्रष्ट आचरणों वाले कहे जाते हैं।
  4. आसुर स्वभाव वाले मनुष्य मन में उठने वाली कल्पनाओं की पूर्ति के लिये भाँति-भाँति की सैकडों आशाएं लगाये रहते हैं। उनका मन कभी किसी विषय की आशा में लटकता है, कभी किसी में खिचता है, और कभी किसी में अटकता है इस प्रकार आशाओं के बन्धन से वे कभी छूटते ही नहीं। इसी से उनको सैकडो आशाओं की फांसियों से बंधे हुए कहा गया है।
  5. विषय भोगों के उद्देश्य से जो काम-क्रोध का अवलम्बन करके अन्यायपूर्वक अर्थात् चोरी, ठगी, डाका, झूठ, कपट, छल, दम्भ, मार-पीट, कूटनिती, जुआ, धोखेबाजी, विष-प्रयोग, झूठे मुकदमे, और भय-प्रदान आदि शास्त्र विरुद्ध उपायों के द्वारा दूसरों के धनादि को हरण करने की चेष्टा करना है- यही विषय- भोगों के लिये अन्याय से अर्थसंचय करने का प्रयत्न करना है।
  6. इससे यह भाव दिखलाया गया है कि अहंकार के साथ ही वे मान में भी चूर रहते हैं, इससे ऐसा समझते हैं कि ‘संसार में हमसे बड़ा और है ही कौन हम जिसे चाहें मार दें, बचा दें, जिसकी चाहें जड़ उखाड़ दें या रोप दें।’ अतः बड़े गर्व के साथ कहते है- ‘अरे! हम सर्वथा स्वतंत्र हैं, सब कुछ हमारे ही हाथों में तो है हमारे सिवा दूसरा कौन ऐश्वर्यवान हैं, सारे ऐश्वयों के स्वामी हमीं तो हैं। सारे ईश्वरों के ईश्वर परम पुरुष भी तो हमीं हैं। सबको हमारी ही पूजा करनी चाहिये। हम केवल ऐश्वर्य के स्वामी ही नहीं समस्त ऐश्वर्य का भोग भी करते हैं। हमने अपने जीवन कभी विफलता का अनुभव किया ही नहीं हमने जहाँ हाथ डाला, वही सफलता ने हमारा अनुगमन किया। हम सदा सफल जीवन है, परम सिद्ध है, भविष्य में होने वाली घटना हमें पहले से ही मालूम हो जाती है। हम सब कुछ जानते हैं, कोई बात हमसे छिपी नहीं है। इतना नहीं है इतना ही नहीं, हम बड़े बलवान् है हमारे मनोबल या शारीरिक बल का इतना प्रभाव है कि जो कोई उसका सहारा लेगा, वही उस बलसे जगत पर विजय पा लेगा। इन्ही सब कारणों से हम परम सुखी है संसार के सारे सुख सदा हमारी सेवा करते हैं और करते रहेंगें
  7. अभिप्राय यह है कि ऐसे मनुष्य कामोपभोग के लिये भाँति-भाँति के पाप करते हैं और उनका फल भोगने के लिये उन्‍हें विष्ठा, मूत्र, रुधिर, पीब आदि गंदी वस्तुओं से भरे दुःखदायक कुम्भीपाक, रौरवादि घोर नरकों में गिरना पड़ता है।
  8. सभी के अंदर अंर्तयामी रूप से परमेश्वर स्थित है। अतः किसी के विरोध या द्वेष करना, किसी का अहित करना और किसी को दुःख पहुँचाना अपने और दूसरों के शरीर में स्थित परमेश्वर से ही द्वेष करना है।
  9. सिंह, बाघ, सर्प, बिच्छु, सूअर, कुत्ते और कौए आदि जितने भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग हैं-ये सभी आसुरी योनियां हैं।
  10. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 40 श्लोक 12-19
  11. मनुष्य योनि में जीव को भगवतप्राप्ति का अधिकार है। इस अधिकार को प्राप्त होकर भी जो मनुष्य इस बात को भूलकर, दैव-स्वभाव रूप भगवत्प्राप्ति के मार्ग को छोड़कर आसुर, स्वभाव का अवलम्बन करते हैं, वे मनुष्य-शरीर का सुअवसर पाकर भी भगवान् को नहीं पा सकते- यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने अपने को न पाने की बात कही हैं।
  12. स्त्री, पुत्र आदि समस्त भोगों की कामना नाम ‘काम’ है इस कामना के वशीभूत होकर ही मनुष्य चोरी, व्यभिचार और अभक्ष्य-भोजनादि नाना प्रकार के पाप करते हैं। मन के विपरित होने पर जो उत्तेज नामय वृत्ति उत्पन्न होती है, उसका नाम ‘क्रोध’ है क्रोध के आवेश में मनुष्य हिंसा-प्रतिहिंसा आदि भाँति-भाँति के पाप करते हैं। धनादि विषयों की अत्यन्त बढ़ी हुई लालसा को ‘लोभ’ कहते हैं। लोभी मनुष्य उचित अवसर पर धन का त्याग नहीं करते एवं अनुचित रूप से भी उपार्जन और संग्रह करने में लगे रहते हैं; इसके कारण उनके द्वारा झूठ, कपट, चोरी और विश्वासघात आदि बड़े बडे़ पाप बन जाते हैं। मनुष्य जब से काम, क्रोध, लोभ के वश में होते हैं, तभी से अपने विचार, आचरण और भावों में गिरने लगते हैं। काम, क्रोध और लोभ के कारण उनसे ऐसे कर्म होते हैं, जिनसे उनका शारारिक पतन हो जाता है। मन बुरे विचारों से भर जाता है, बुद्धि बिगड़ जाती है, क्रियाएं सब दूषित हो जाती है, और इसके फलस्वरूप उनका वर्तमान जीवन सुखशांति और पवित्रता से रहित होकर दुःखमय बन जाता है, तथा मरने के बाद उनकी आतुरी योनियों की और नरकों प्राप्ति होती है। इसीलिये इन त्रिविध दोषों को ‘नरक के द्वार और आत्मा का नाश करने वाले’ बतलाया गया है।
  13. काम, क्रोध और लोभ आदि आसुरी सम्पदा का त्याग करके शास्त्र प्रतिपादित सदु्रण और सदाचार रूप देवी-सम्पदा का निष्कामभाव से सेवन करना ही कल्याण के लिये आचरण करना है।
  14. वेद और वेदों के आधार पर रचित स्मृति, पुराण, इतिहासादि सभी नाम शास्त्र है। आसुरी सम्पदा के आचार व्यवहार आदि के त्याग का और दैवीसम्पदा रूप कल्याणकारी गुण-आचरणों के सेवन का ज्ञान शास्त्रों से ही होता है। कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान कराने वाले शास्त्रों के विधान की अवहेलना करके अपनी बुद्धि से अच्छा समझकर जो मनमाने तौर पर मान, बड़ाई-प्रतिष्ठा आदि किसी की भी इच्छाविशेष को लेकर आचरण करना है, यही शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करना है। ऐसे कर्म करने वाले कर्ता को कोई भी फल नहीं मिलता। अर्थात परमगति नहीं मिलती-इसमें तो कहना ही क्या है, लौकिक अणिमादि सिद्धि और स्वर्गप्राप्ति रूप सिद्धि भी नहीं मिलती एवं संसार में सात्त्विक सुख भी नहीं मिलता।
  15. इससे यह भाव दिखलाया गया है कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये- इसकी व्यवस्था श्रुति, वेदमुलक स्मृति और पुराण-इतिहासादि शास्त्रों से प्राप्त होती है। अतएव इस विषय में मनुष्य को मनमाना आचरण न करके शास्त्रों ही प्रमाण मानना चाहिये। अर्थात इन शास्त्रों में जिन कर्मों के करने का विधान हैं, उसको करना चाहिये और जिनका निषेध है, उन्‍हें नहीं करना चाहिये तथा उन शास्त्रविहित शुभ कर्मों का आचरण भी निष्कामभाव से ही करना चाहिये, क्योंकि शास्त्रों में निष्कामभाव से किये हुए शुभ कर्मों को ही भगवतप्राप्ति हेतु बतलाया है।
  16. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 40 श्लोक 20-24

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भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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