- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 59वें अध्याय में 'संजय द्वारा भीष्म के पराक्रम का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
युद्ध भूमि में भीष्म के पराक्रम का वर्णन
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! उस भयंकर युद्ध में जब भीष्म ने मेरे विशेष दुखी हुए पुत्र के क्रोध दिलाने पर प्रतिज्ञा कर ली, तब उन्होंने उस युद्धस्थल में पाण्डवों के प्रति क्या किया? तथा पांचाल योद्धाओं ने पितामह भीष्म के प्रति क्या किया? संजय ने कहा- भारत! उस दिन जब पूर्वाह्नकाल का अधिक भाग व्यतीत हो गया, सूर्यदेव पश्चिम दिशा में जाकर स्थित हुए और विजय को प्राप्त हुए महामना पाण्डव खुशी मनाने लगे, उस समय सब धर्मों के विशेषज्ञ आपके ताऊ भीष्म जी ने वेगशाली अस्त्रों द्वारा पाण्डवों की सेना पर आक्रमण किया। उनके साथ विशाल सेना चली और आपके पुत्र सब ओर से उनकी रक्षा करने लगे। भारत! तदनन्तर आपके अन्याय से हम लोगों का पाण्डवों के साथ रोमांचकारी भयंकर संग्राम होने लगा। उस समय वहाँ धनुषों की टंकार तथा हथेलियों के आघात से पर्वतों के विदीर्ण होने के समान बड़े जोर से शब्द होता था। उस समय ‘खडे़ रहो, खडा हूं’ इसे बींध डालो, लौटो, स्थिर भाव से रहो, हां-हां स्थिर भाव से ही हूं, तुम प्रहार करो’ ऐसे शब्द सब और सुनायी पड़ते थे। जब सोने के कवचों, किरीटों और ध्वजों पर योद्धाओं के अस्त्र-शस्त्र टकराते, तब उनसे पर्वतों पर गिरकर टकराने वाली शिलाओं के समान भयानक शब्द होता था। सैनिकों के सैकड़ों हजारों मस्तक तथा स्वर्णभूषित भुजाएं कट-कटकर पृथ्वी पर गिरने और तड़पने लगीं।
कितने ही पुरुषशिरोमणि वीरों के मस्तक तो कट गये, परन्तु उनके धड़ पूर्ववत धनुष-बाण एवं अन्य आयुध लिये खडे़ ही रह गये। रणक्षेत्र में बड़े वेग से रक्त की नदी बह चली, जो देखने में बडी भयानक थी। हाथियों के शरीर उनके भीतर शिलाखण्डों के समान जान पड़ते थे। खून और मांस कीचड़ के समान प्रतीत होते थे। बड़े-बड़े़ हाथी, घोड़े और मनुष्य के शरीर से ही वह नहींं निकली थी और परलोकरूपी समुद्र की ओर प्रवाहित हो रही थी। वह रक्त-मांस की नदी गीधों और गीदड़ों को आनंद प्रदान करने वाली थी। भारत! नरेश्रष्ठ! पाण्डवों और आपके पुत्रों का उस दिन जैसा भयानक युद्ध हुआ, वैसा न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है। वहाँ युद्धस्थल में गिराये हुए योद्धाओं तथा पर्वत के श्याम शिखरों के समान पड़े हुए हाथियों से अवरुद्ध हो जाने के कारण रथों के आने-जाने के लिये रास्ता नहींं रह गया था। माननीय महाराज! इधर-उधर बिखरे हुए विचित्र कवचों तथा शिरस्त्राणों[2] से वह रणभूमि शरद्ऋतु में तारिकाओं से विभूषित आकाश की भाँति शोभा पाने लगी। कुछ वीर बाणों से विदीर्ण होकर आंतों में उठने वाली पीड़ा से अत्यन्त कष्ट पाने पर भी समरभूमि में निर्भय तथा दर्पयुक्त भाव से शत्रुओं की ओर दौड़ रहे थे। कितने ही योद्धा रणभूमि में गिरकर इस प्रकार आर्त-भाव से स्वजनों को पुकार रहे थे- ‘तात! भ्रातः! सखे! बन्धों! मेरे मित्र! मेरे मामा! मुझे छोड़कर न जाओ’।[1]
दूसरे सैनिक यों चिल्ला रहे थे- ‘अरे आओ, मेरे पास आओ, क्यों डरे हुए हो? कहाँ जाओगे? मै संग्राम में डटा हुआ हूँ। तुम भय न करो’। वहाँ शान्तनुनन्दन भीष्म अपने धनुष को मण्डलाकार करके विषधर सर्पों के समान भयंकर एवं प्रज्वलित बाणों की निरन्तर वर्षा कर रहे थे। भरतश्रेष्ठ! उत्तम व्रत का पालन करने वाले भीष्म सम्पूर्ण दिशाओं को बाणों से व्याप्त करते हुए पाण्डव-पक्षीय रथियों को अपना नाम सुना-सुनाकर मारने लगे। राजन! उस समय भीष्म अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए रथ की बैठक पर नृत्य-सा कर रहे थे। घूमते हुए अलात-चक्र की भाँति वे यत्र-तत्र सर्वत्र दिखायी देने लगे। युद्ध में शूरवीर भीष्म यद्यपि अकेले थे, तथापि सृंजयों सहित पाण्डवों को वे अपनी फुर्ती के कारण कई लाख व्यक्तियों के समान दिखाई दिये। लोगों को ऐसा मालूम हो रहा था कि ऋणक्षेत्र में भीष्म जी ने माया से अपने को अनेक रूपों में प्रकट कर लिया है। जिन लोगों ने उन्हें पूर्व दिशा में देखा था, उन्हीं लोगों को आंख फिरते ही वे पश्चिम में दिखायी देते। प्रभो! बहुतों ने उन्हें उत्तर दिशा में देखकर तत्काल ही दक्षिण दिशा में भी देखा। इस प्रकार समरभूमि में शूरवीर गंगानन्दन भीष्म सब ओर दिखायी दे रहे थे। पाण्डवों में से कोई भी उन्हें देख नहीं पाता था। सब लोग भीष्म जी के धनुष से छूटे हुए बहुसंख्य बाणों को ही देखते थे।
उस समय रणक्षेत्र में अद्भुत कर्म करते हुए आपके ताऊ भीष्म अमानुषरूप विचरते तथा पाण्डव सेना का संहार करते थे। वहाँ अनेक प्रकार से मनुष्य उनके सम्बन्ध में नाना प्रकार की बातें कर रहे थे। युद्ध में मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों के शरीरों पर चलाया हुआ भीष्म को कोई भी बाण व्यर्थ नहीं होता। एक तो उनके पास बाण बहुत थे और दूसरे कि वह बड़ी फुर्ती से चलाते थे। भीष्म कंकपत्र से युक्त बहुसंख्यक तीखे बाणों को युद्ध में बिखेर रहे थे। वे एक पंखयुक्त सीधे बाण से लोहे की झुल से युक्त हाथी को भी विदीर्ण कर डालते थे। जैसे इन्द्र महान पर्वत को अपने वज्र से विदीर्ण कर देते हैं। आपके ताऊ भीष्म अच्छी तरह से छोडे़ हुए एक ही नाराच के द्वारा एक जगह बैठे हुए दो-तीन हाथी-सवारों को कवच धारण किये होने पर भी छेद डालते थे। जो कोई भी योद्धा नरश्रेष्ठ भीम के सम्मुख आ जाता, वह मुझे एक ही मुहुर्त में खड़ा दिखायी देकर उसी क्षण धरती पर लोटता दिखायी देता था। इस प्रकार अतुल पराक्रमी भीष्म के द्वारा मारी जाती हुई धर्मराज युधिष्ठिर की एक विशाल वाहिनी सहस्रों भागों में बिखर गयी। उनकी बाण-वर्षा से संतप्त हो पाण्डवों की वह महती सेना श्रीकृष्ण, अर्जुन और शिखण्डी के देखते-देखते कांपने लगी। वे सब वीर वहाँ मौजूद होते हुए भी भीष्म के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होकर भागते हुए अपने महारथियों को रोकने में समर्थ न हो सके। महाराज! महेन्द्र के समान पराक्रमी भीष्म की मार खाकर वह विशाल सेना इस प्रकार तितर-बितर हुई कि उसके दो-दो सैनिक भी एक साथ नहीं भाग सकते थे।[3]
मनुष्य, हाथी और घोडे़ सभी बाणों से छिद गये थे। रथ के ध्वज और कुबर टूटकर गिर चुके थे। इस प्रकार पाण्डवों की सेना अचेत-सी होकर हाहाकार कर रही थी। इस युद्ध में दैव के वशीभूत होकर पिता ने पुत्र को, पुत्र ने पिता को और मित्र ने प्रिय मित्र को मार डाला। भारत! पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के बहुत-से सैनिक कवच खोलकर बाल बिखेरे इधर-उधर दौड़ते दिखायी देते थे। उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की वह सेना व्याकुल होकर भटकती हुई गौओं के समूह की भाँति आतस्वर से हाहाकार करती हुई देखी गयी। कितने ही रथयूथपति भी किंकर्तव्यविमुढ़ होकर घूम रहे थे। अपनी सेना में इस प्रकार भगदड़ मची हुई देख यदुकुलनन्दन भगवान श्रीकृष्ण अपने उत्तम रथ को खड़ा करके कुन्तीपुत्र अर्जुन से कहा- ‘पुरुष सिंह! जिसकी तुम दीर्घकाल से अभिलाषा करते थे, वही यह अवसर प्राप्त हुआ है। यदि तुम मोह से किंकर्तव्यविमुढ़ नहींं हो गये हो तो पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करो। वीर! जो पहले राजाओं की मण्डली में तुमने जो यह कहा था कि जो मेरे साथ संग्राम भूमि में उतरकर युद्ध करेंगे, दुर्योधन के उन भीष्म, द्रोण, आदि समस्त सैनिकों में सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालूंगा। शत्रुसूदन कुन्तीनन्दन! अपनी उस बात को सत्य कर दिखाओ। अर्जुन! देखो, तुम्हारी सेना इधर उधर भाग रही है। समरभूमि में मुंह बाये हुए काल के समान भीष्म को देखकर युधिष्ठिर सेना में भागते हुए उन राजाओं की ओर दृष्टिगत करो। ये सिंह से डरे हुए क्षुद्र मृगों की भाँति भय से आतुर होकर पलायन कर रहे है’। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ‘इन घोड़ों को हांककर वहीं ले चलिये; जहाँ भीष्म मौजूद हैं। इस सेनारूपी समुद्र में प्रवेश कीजिये। आज मैं कुरुकुल के वृद्ध पितामह दुर्धर्ष वीर भीष्म को रथ से नीचे गिरा दूँगा।[4]
युद्ध भूमि में कृष्ण व अर्जुन का पराक्रम
संजय कहते हैं- राजन! तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के चांदी के समान सफेद घोड़ों को उसी दिशा की ओर हांका, जिस ओर भीष्म का रथ विद्यमान था। सूर्य की भाँति उस रथ की ओर आंख उठाकर देखना भी कठिन था। उस समय महाबाहु अर्जुन को समरभूमि में भीष्म से लोहा लेने के लिये उद्यत देख युधिष्ठिर की वह विशाल सेना पुनः लौट आयी। कुरुश्रेष्ठ! तदनन्तर भीष्म सिंह से समान बारंबार गर्जना करते हुए अर्जुन के रथ पर शीघ्रतापूर्वक बाणों की वर्षा करने लगे। उस महान बाण वर्षा से एक ही क्षण में घोडे़ और सारथि सहित आच्छादित होकर अर्जुन का रथ किसी की दृष्टि में नहीं आता था। परंतु शक्तिशाली भगवान श्रीकृष्ण तनिक भी घबराहट में न पड़कर धैर्य का सहारा ले उन घोड़ों को हांकते रहे। यद्यपि भीष्म के बाण उन अश्वों के सभी अंगों में धँसे हुए थे। तब अर्जुन ने मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले दिव्य धनुष को हाथ में लेकर तीन बाणों से भीष्म के धनुष को काट गिराया। धनुष कट जाने पर आपके ताऊ कुरुनन्दन भीष्म ने पलक मारते-मारते पुनः विशाल धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी।[4] फिर मेघ के समान गम्भीर शब्द करने वाले उस धनुष को दोनों हाथों से खींचा।
इतने ही में कुपित हुए अर्जुन ने उनके उस धनुष को भी काट डाला। अर्जुन की इस फुर्ती को देखकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने बड़ी प्रशंसा की और कहा- ‘महाबाहु कुन्तीकुमार! तुम्हें साधुवाद। पाण्डुनन्दन! धन्यवाद बेटा तुम्हारी इस फुर्ती से में बहुत प्रसन्न हूँ धनंजय! यह महान कर्म तुम्हारे ही योग्य है तुम मेरे साथ युद्ध करो’। इस प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन की प्रशंसा करके फिर दूसरा विशाल धनुष हाथ में लेकर वीर भीष्म ने युद्धस्थल में उनके रथ की और बाण बरसाना आरम्भ किया। भगवान श्रीकृष्ण ने घोड़ों को हांकने की कला में अपने उत्तम बल का परिचय दिया। वे भीष्म के बाणों को व्यर्थ करते हुए बड़ी फुर्ती के साथ रथ को मण्डलाकार चलाने लगे। भारत! तथापि भीष्म ने श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्पूर्ण अंगों में अपने पैने बाणों से गहरे आघात किये। भीष्म के बाणों से क्षत-विक्षत हो वे नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन क्रोध में भरे हुए उन दो सांडों के समान सुशोभित हुए, जिनके सम्पूर्ण शरीर में सीगों के आघात से बहुत से घाव हो गये थे। तत्पश्चात रोषावेश में भरे हुए भीष्म ने सैकड़ों- हजारों बाणों की वर्षा करके युद्धभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन की सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित एवं अवरुद्ध कर दिया। इतना ही नहीं, रोष भरे हुए भीष्म ने जोर-जोर से हँसकर अपने तीखे बाणों से बारंबार पीड़ित करते हुए वृष्णि-कुलभूषण श्रीकृष्ण को कम्पित-सा कर दिया है।[5]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-18
- ↑ लोहे के टोपों
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 19-36
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 37-55
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 56-73
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| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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