ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 41वें अध्याय में 'ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

कृष्ण द्वारा ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या करना

सम्बन्ध-पूर्व श्लोक में भगवान ने अर्जुन को आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या बतलाने के बाद अब सात्त्विक यज्ञ, दान और तप उपादेय क्‍यों है भगवान से उनका क्या सम्बन्ध है तथा उन सात्त्विक यज्ञ तप और दानों में जो अंग-वैगुण्य हो जाय, उसकी पूर्ति किस प्रकार होती है- यह सब बतलाने के लिये कृष्ण ने अगला प्रकरण आरम्भ किया और कहा - ऊँ, तत्, सत् ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म नाम कहा है[2] उसी ब्रह्म से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि[3] रचे गये।

सम्बन्ध-परमेश्वर के उपर्युक्त ऊँ, तत् और सत्-इन तीन नामों का यज्ञ, दान, तप आदि के साथ क्या सम्बन्ध है। ऐसी जिज्ञासा होने पर कृष्ण कहते हैं- इसलिये वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ट पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएं सदा इस परमात्मा के नाम के उच्चारण करके ही आरम्भ होती है।[4] तत् अर्थात् ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब हैं- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तपरूप क्रियाएं तथा दानरूप क्रियाएं कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती है।[5] ‘सत्’- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में[6] और श्रेष्ठभाव में[7] प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी[8] ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है[9] और उस परमात्मा के लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्- ऐसे कहा जाता है।[10]

सम्बन्ध- इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किये हुए शास्त्रविहित यज्ञ, तप, दान आदि कर्मों का महत्त्व बतलाया गया उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है। कि जो शास्त्रविहित यज्ञादि कर्म बिना श्रद्धा के किये जाते हैं, उनका क्या फल होता है इस पर भगवान इस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते हैं- हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त ‘असन्’ इस प्रकार कहा जाता है इसलिये वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।[11]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 41 श्लोक 22-28
  2. जिस परमात्मा से समस्त कर्ता, कर्म और कर्म-विधि की उत्पत्ति हुई है, उस भगवान वाचक ‘ओम’, ‘तत्’ और ‘सत्’- ये तीनों नाम है। अतः इनके उच्चारण आदि से उन सब के अंग-वैगुण्य की पूर्ति हो जाती है। अतएव प्रत्येक काम से आरम्भ में परमेश्वर के नामों का उच्चारण करना परम आवश्यक है।
  3. यहाँ ‘ब्राह्मण’ शब्द ब्राह्मण आदि समस्त् प्रजा का ‘वैद’ चारों वेदों का, ‘यज्ञ’ शब्द यज्ञ, तप, दान आदि समस्त शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का वाचक है।
  4. जिस परमेश्वर से इन यज्ञादि कर्मों की उत्पत्ति हुई है, उसका नाम होने के कारण ओंकार के उच्चारण से समस्त कर्मों अंग-वैगुण्य दूर हो जाता है तथा वे पवित्र और कल्याणप्रद हो जाते हैं। यह भगवान के नाम की अपार महिमा है। इसलिये वेदोंक्त मंत्रो के उच्चारणपूर्वक यज्ञादि कर्म करने के अधिकारी विद्वान् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के यज्ञ, दान, तप आदि समस्त शास्त्रविहित शुभ कर्म सदा ओकांर के उच्चारण पूर्वक ही होते हैं।
  5. जो विहित कर्म करने वाले साधारण वेदवादी हैं, वे फल की इच्छा या अहंता-ममता का त्याग नहीं करते किंतु जो कल्याणकामी मनुष्य है, जिनको परमेश्वर की प्राप्ति के सिवा अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, वे समस्त कर्म अहंता, ममता, आसक्ति और फल-कामना का सर्वथा त्याग करके केवल परमेश्वर के ही लिये उनके आज्ञानुसार किया करते हैं।
  6. सन्द्राव’ (सत्यभाव) नित्य भाव का अर्थात जिसका अस्तित्त्व सदा रहता है, उस अविनाशी तत्त्त्व का वाचक है और वही परमेश्वर का स्वरूप है। इसलिये उसे ‘सत्’ नाम से कहा जाता है।
  7. अन्तःकरण जो शुद्ध और श्रेष्ठभाव है, उसका वाचक यहाँ ‘साधुभाव’ है। वह परमेश्वरी की प्राप्ति हेतु है; इसलिये उसमें परमेश्वर के ‘सत्’ नाम का प्रयोग किया गया है। अर्थात् उसे ‘सद्भाव’ कहा जाता है।
  8. जो शास्त्रविहित करने योग्य शुभ कर्म है, वह निष्कामभाव से किये जाने पर परमात्मा की प्राप्ति का हेतु है; इसलिये उसमें परमात्मा के ‘सत्’ नाम का उपयोग किया जाता है। अर्थात् उसे ‘सत् कर्म’ कहा जाता है।
  9. यज्ञ, तप और दान से यहाँ सात्त्त्विकयज्ञ, तप और दान का निर्देशन किया गया है, जिसमें कर्ता का जरा भी स्वार्थ नहीं रहता- ऐसा कर्म कर्ता के अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर उसे परमेश्वर की प्राप्ति करा देता है, इसलिये वह ‘सत्’ है।
  10. जो कोई कर्म भगवान की आज्ञानुसार केवल उन्‍हीं के लिये किया जाता है, जिसमें कर्ता का जरा भी स्वार्थ नहीं रहता-ऐसा कर्म कर्ता के अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर परमेश्वर की प्राप्ति करा देता है, इसलिये वे ‘सत्’ है।
  11. हवन, दान और तप तथा अन्यान्य शुभ कर्म श्रद्धापूर्वक किये जाने पर ही अन्तःकरण शुद्धि और इस लोक या परलोक के फल देने में समर्थ होते हैं। बिना श्रद्धा के लिये हुए शुभ कर्म व्यर्थ है, इसी से उनको ‘असत्’ और ‘वे इस लोक या परलोक कही भी लाभप्रद नहीं है’- ऐसा कहा है।

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