कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में भूमि पर्व के अंतर्गत 12वेंअध्याय में 'कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]


संजय द्वारा धृतराष्ट्र से शाकद्वीप का वर्णन करने के बाद अब वो धृतराष्ट्र से बोले- महाराज! कुरुनन्दन! इसके बाद वाले द्वीपों के विषय में जो बातें सुनी जाती हैं, वे इस प्रकार हैं उन्हें आप मुझसे सुनिये। क्षीरोद समुद्र के बाद घृतोद समुद्र हैं। फिर दधिमण्‍डोदक समुद्र हैं। इनके बाद सुरोद समुद्र हैं, फिर मीठे पानी का सागर हैं। महाराज! इन समुद्रों से घिरे हुए सभी द्वीप और पर्वत उत्तरोत्तर दुगुने विस्तार वाले हैं। नरेश्‍वर! इनमें से मध्‍यम द्वीप में मन:शिला (मैनसिल) का एक बहुत बड़ा पर्वत हैं जो ‘गौर’ नाम से विख्‍यात है। उसके पश्चिम में ‘कृष्‍ण’ पर्वत है, जो नारायण को विशेष प्रिय हैं। स्वयं भगवान् केशव ही वहाँ दिव्य रत्नों को रखते और उनकी रक्षा करते हैं। वे वहाँ की प्रजा पर प्रसन्न हुए थे, इसलिये उनको सुख पहुँचाने की व्यवस्था उन्होंने स्वयं की हैं। नरेश्‍वर! कुशद्वीप में कुशों का एक बहुत बड़ा झाड़ है, जिसकी वहाँ के जनपदों में रहने वाले लोग पूजा करते हैं। उसी प्रकार शाल्मलि द्वीप में शाल्मलि (सेंमर) वृक्ष की पूजा की जाती है। क्रौञ्चद्वीप में महाक्रौञ्च नामक महान् पर्वत है, जो रत्न राशि की खान हैं।

महाराज! वहाँ चारों वर्णों के लोग सदा उसी की पूजा करते हैं। राजन्! वहाँ गोमन्त नामक विशाल पर्वत है , जो सम्पूर्ण धातुओं से सम्पन्न है। वहाँ मोक्ष की इच्छा रखने वाले उपासकों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए सबके स्वामी श्रीमान् कमलनयन भगवान् नारायण नित्य निवास करते हैं। राजेन्द्र! कुशद्वीप में सुधामा नाम से प्रसिद्ध दूसरा सुवर्णमय पर्वत हैं, जो मूंगों से भरा हुआ ओर दुर्गम है। कौरव्य! वहीं परम कान्तिमान् कुमुद नामक तीसरा पर्वत हैं। चोथा पुष्‍पवान्, पांचवां कुशेशय और छठा हरिगिरि हैं। ये छ: कुशद्वीप के श्रेष्‍ठ पर्वत हैं। इन पर्वतों के बीच का विस्तार सब ओर से उत्तरोत्तर दूना होता गया है। कुशद्वीप के पहले वर्ष का नाम उद्भिद् हैं। दूसरे का नाम वेणमण्‍डल हैं। तीसरे का नाम सुरथाकार, चौथे का कम्बल, पांचवे का धृतिमान् और छठे वर्ष का नाम प्रभाकर हैं। सांतवां वर्ष कपिल कहलाता हैं। ये सात वर्ष समुदाय हैं। पृथ्‍वीपते! इन सबमें देवता, गन्धर्व तथा मनुष्‍य सानन्द बिहार करते हैं। उनमें से किसी की मृत्यु नहीं होती हैं। नरेश्‍वर! वहाँ लुटेरे अथवा म्लेच्छ जाति के लोग नहीं हैं। मनुजेश्‍वर! इन वर्षों के सभी लोग प्राय: गोरे और सुकुमार होते हैं।

संजय द्वारा कुश, क्रौञ्च और पुष्‍कर द्वीपों का वर्णन करना

अब मैं शेष सम्पूर्ण द्वीपों के विषय में बताता हूँ। महाराज! मैंने जैसा सुन रखा है, वैसा ही सुनाऊंगा। आप शान्तचित्त होकर सुनिये। क्रौञ्चद्वीप में क्रोञ्च नामक विशाल पर्वत हैं। राजन्! क्रौञ्च के बाद वामन पर्वत है, वामन के बाद अन्धकार और अन्धकार के बाद मैनाक नामक श्रेष्‍ठ पर्वत है। प्रभो! मैनाक के बाद उत्तम गोविन्द गि‍रि हैं। गोविन्द के बाद निबिड़ नामक पर्वत है। कुरूवंश की वृद्धि करने वाले महाराज! इन पर्वतों के बीच का विस्तार उत्तरोत्तर दूना होता गया है। उनमें जो देश बसे हुए हैं, उनका परिचय देता हूँ सुनिये। क्रौञ्चपर्वत के नि‍कट कुशल नामक देश हैं। वामन पर्वत के पास मनोनुग देश हैं। कुरुकुलश्रेष्‍ठ! मनोनुग के बाद उष्‍ण देश आता है।[1]


उष्‍ण के बाद प्रावरक, प्रावरक के बाद अन्धकारक और अन्धकारक के बाद उत्तम मुनिदेश बताया गया हैं। मुनिदेश के बाद जो देश हैं, उसे दुन्दुभिस्वन कहते हैं। वह सिद्धों और चरणों से भरा हुआ हैं। जनेश्‍वर! वहाँ के लोग प्राय: गोरे होते हैं। महाराज! इन सभी देशों में देवता ओर गन्धर्व निवास करते हैं। पुष्‍करद्वीप में पुष्‍कर नामक पर्वत है, जो मणियों तथा रत्नों से भरा हुआ है। वहाँ स्वयं प्रजापति भगवान् ब्रह्मा नित्य निवास करते हैं। जनेश्‍वर! सम्पूर्ण देवता और महर्षि मनोनुकुल वचनों द्वारा प्रतिदिन उनकी पूजा करते हुए सदा उन्हीं की उपासना में लगे रहते हैं। जम्बूद्वीप से अनेक प्रकार के रत्न अन्यान्य सब द्वीपों में वहाँ की प्रजाओं के उपयोग के लिये भेज जाते हैं। कुरुश्रेष्‍ठ! ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रियसंयम के प्रभाव से उन सब द्वीपों की प्रजाओं के आरोग्य और आयु का प्रमाण जम्बूद्वीप की अपेक्षा उत्तरोत्तर दूना माना गया हैं। भरतवंशी नरेश! वास्तव में इन देशों में एक ही जनपद हैं। जिन द्वीपों में अनेक जनपद बताये गये हैं, उनमें भी एक प्रकार का ही धर्म देखा जाता है।[2] महाराज! सबके ईश्‍वर प्रजापति ब्रह्मा स्वयं ही दण्‍ड लेकर इन द्वीपों की रक्षा करते हुए इनमें नित्य निवास करते हैं। नरश्रेष्‍ठ! प्रजापति ही वहाँ के राजा हैं। वे कल्याणस्वरूप होकर सबका कल्याण करते हैं। राजन्! वे ही पिता और प्रपितामह हैं। जड से लेकर चेतन तक समस्त प्रजा की वे ही रक्षा करते हैं। महाबाहु कुरुनन्दन! यहाँ की प्रजाओं के पास सदा पका-पकाया भोजन स्वयं उपस्थित हो जाता हैं और उसी को खाकर वे लोग रहते हैं।

उसके बाद समानाम वाली लोगों की वस्ती देंखी जाती है। महाराज! वह चौकोर बसी हूई है। उसमें तैंतीस मण्‍डल हैं। कुरुनन्दन! भरतश्रेष्ठ! वहाँ लोकविख्‍यात वामन, ऐरावत, सुप्रतीक और अञ्जन- ये चार दिग्गज रहते हैं। राजन्! इनमें से सुप्रतीक नामक गजराज, गण्‍डस्थल से मद की धारा बहती रहती हैं, उसका परिमाण कैसा और कितना है, यह मैं नहीं बता सकता। वह नीचे-ऊपर तथा अगल-बगल में सब ओर फैला हुआ है। वह अपरिमित है। वहाँ सब दिशाओं से खुली हुई हवा आती है। उसे वे चारों दिग्गज ग्रहण करके रोक रखते हैं। फिर वे विकसित कमल-सदृश परम कान्तिमान् शुण्‍डदण्‍ड के अग्रभाग से उस हवा के सैकड़ों भागों में करके तुरंत ही सब ओर छोड़ते हैं, यह उनका नित्य का काम हैं। महाराज! सांस लेते हुए उन दिग्गजों के मुख से मुक्त होकर जो वायु यहाँ आती हैं, उसी से सारी प्रजा जीवन धारण करती है।

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-21
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 12 श्लोक 22-42

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