कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 34वें अध्याय में 'कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

कृष्ण द्वारा अर्जुन से अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन करना

संबंध- गीता के सातवें अध्‍याय के पहले श्लोक में अपने सामग्र रूप का ज्ञान कराने वाले जिस विषय को सुनने के लिये भगवान को अर्जुन को आज्ञा दी थी तथा दूसरे श्‍लोक में जिस विज्ञानसहित ज्ञान को पूर्णतया कहने की प्रतिज्ञा की थी, उसका वर्णन भगवान ने सातवें अध्‍याय में किया। उसके बाद आठवें अध्‍याय में अर्जुन के सात प्रश्‍नों का उत्‍तर देते हुए भी भगवान ने उसी विषय का स्‍पष्‍टीकरण किया; किंतु वहाँ कहने की शैली दूसरी रही, इसलिये नवम अध्‍याय के आरम्‍भ में पुन: विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके उसी विषय को अंग-प्रत्‍यंगोंसहित भलीभाँति समझाया। तदनंतर दूसरे शब्‍दों में पुन: उसका स्‍पष्‍टीकरण करने के लिये दसवें अध्‍याय के पहले श्‍लोक में उसी विषय को पुन: कहने की प्रतिज्ञा की ओर पांच श्‍लोकों द्वारा अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करके सातवें श्‍लोक में उनके जानने का फल अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बतलायी। फिर आठवें और नवें श्‍लोकों में भक्तियों के द्वारा भगवान के भजन में लगे हुए भक्‍तों के भाव और आचरण का वर्णन किया और दसवें तथा ग्‍यारहवें में उसका फल अज्ञानजनित अंधकार का नाश और भगवान की प्राप्ति करा देने वाले बुद्धियोग की प्राप्ति बतलाकर उस विषय का उपसंहार कर दिया। इस पर भगवान की विभूति और योग को तत्त्व से जानना भगवत्‍प्राप्ति में परम सहायक है, यह बात समझकर अब सात श्‍लोकों में अर्जुन पहले भगवान की स्‍तुति करके भगवान से उनकी योगशक्ति और विभूतियों का विस्‍तारसहित वर्णन करने के लिये प्रार्थना करते हैं- अर्जुन बोले- आप ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं;[2] क्‍योंकि आपको सब ऋषिगण[3] सनातन, दिव्‍य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्‍मा और सर्वव्‍यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि[4] नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्‍यास भी कहते हैं[5] और स्‍वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं[6][1]

केशव![7] जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्‍य मानता हूँ।[8]हे भगवान![9] आपके लीलामय स्‍वरूप को न तो दानव जानते हैं न देवता ही।[10] हे भूतों को उत्‍पन्‍न करने वाले! हे भूतों के ईश्वर! हे देवों के देव! हे जगत के स्‍वामी! हे पुरुषोत्तम![11] आप स्‍वयं ही अपने से अपने को जानते हैं।[12] इसलिये आप ही उन अपनी दिव्‍य विभूत्तियों को सम्‍पूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूत्तियों के द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्‍त करके स्थित हैं। हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं और हे भगवन! आप किन-किन भावों- में मेरे द्वारा चितंन करने योग्‍य हैं।[13] हे जनार्दन![14] अपनी योगशक्ति को और विभूत्ति को फिर भी विस्‍तारपूर्वक कहिये, क्‍योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती[15] अर्थात सुनने की उत्‍कण्‍ठा बनी ही रहती है। संबंध- अर्जुन के द्वारा योग और विभूतियों का विस्‍तारपूर्वक पूर्णरूप से वर्णन करने के लिये प्रार्थना की जाने पर भगवान पहले अपने विस्‍तार अनंतता बतलाकर प्रधानता से अपनी विभूतियों का वर्णन करने का प्रतिज्ञा करते हैं- श्रीभगवान बोले-हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्‍य विभूतियां हैं, उनको तेरे लिये प्रधानता से कहूंगा; क्‍योंकि मेरे विस्‍तार का अंत नहीं है।[16] संबंध- अब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान बीसवें से उन्चालीसवें श्लोक तक पहले अपनी विभूत्तियों का वर्णन करते हैं- हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्‍मा हूं[17] तथा सम्‍पूर्ण भूतों का आदि, मध्‍य और अंत भी मैं ही हूँ।[18] मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्‍णु[19] और ज्‍योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं[20] तथा मैं उन्चास वायु देवताओं का तेज[21] और नक्षत्रों का अधिपति चन्‍द्रमा हूं[22]। मैं वेदों में सामवेद हूं,[23] देवों में इन्‍द्र हूं, इन्द्रियों में मन हूँ और भूतप्राणियों की चेतना अर्थात जीवनी शक्ति हूं[24][25]

मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं[26] और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्‍वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूं[27] और शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं[28]। पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान।[29] हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कंद[30] और जलाशयों में समुद्र हूँ। मैं महर्षियों में भृगु[31] और शब्‍दों में एक अक्षर अर्थात ओंकार हूं[32]। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ[33] और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं[34] मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष,[35] देवर्षियों में नारद मुनि[36] गन्धर्वों में चित्ररथ[37] और सिद्धों में कपिल मुनि हूं[38]। घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्‍ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी[39] और मनुष्‍यों में राजा मुझको जान।[40] मैं शस्त्रों वज्र[41] और गौओं में कामधेनु हूँ।[42] शास्त्रोक्त रीति से संतान की उत्पति का हेतु कामदेव हुं[43] और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ।[44] मैं नागों में शेषनाग[45] और जलचरों का अधिपति वरुण-देवता हुं[46] और पितरों में अर्यमा नामक पितर[47] तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ।[48] मैं दैत्यों में प्रह्लाद[49] और गणना करने वालों का समय हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह[50] और पक्षियों में मैं गरुड़ हूँ।[51] मैं पवित्र करने वालों में वायु और शास्त्रधारियों में श्रीराम[52] हूँ तथा मछलियों में मगर हूं[53] और नदियों में श्रीभागीरथी गंगा जी हुं[54]। हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अन्त तथा मध्‍य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्‍यात्मविद्या[55] अर्थात ब्रह्माविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्त्वनिर्णय के लिये किया जाने वाला वाद[56] हूँ। मैं अक्षरों में अकार[57] हूँ और समासों में द्वन्द्वनामक समास[58] हूँ। अक्षय काल[59] अर्थात काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला विराट स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हुं। मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु[60] तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, धृति और क्षमा हुं।[61] तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम[62] और छन्दों में गायत्री छन्द[63] हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष[64] और ॠतुओं में वसन्त[65] में हूँ। मैं छल करने वालों में जूआ[66] और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों का विजय हूँ। निश्‍चय करने वालों का निश्‍चय और सात्त्वि‍क पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ।[67] वृष्णि‍वंशियों में वासुदेव[68] अर्थात मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्‍डवों में धनंजय[69] अर्थात तू, मुनियों में वेदव्यास[70] और कवियों में शुक्राचार्य कवि[71] भी मैं ही हुं। मैं दमन करने वालों का दण्‍ड अर्थात दमन करने की शक्ति हूं[72] जीतने की इच्छा वालों की नीति[73] हूं, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन[74] हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ।[75]

हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण हैं, वह भी मैं ही हूं;[76] क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो।[77] हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिये एकदेश से अर्थात संक्षेप से कहा है। सम्बन्ध- अठारहवें श्‍लोक में अर्जुन ने भगवान से उनकी विभूति और योगशक्ति का वर्णन करने की प्रार्थना की थी, उसके अनुसार भगवान अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णनसमाप्त करके अब संक्षेप में अपनी योगशक्ति का वर्णन करते हैं- जो-जो भी विभुतियुक्त अर्थात ऐश्वर्ययु‍क्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान।[78] अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है?[79] मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंश-मात्र से धारण करके स्थित हूँ।[80][81]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 11-13
  2. इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जिस निर्गुण परमात्‍मा को ‘परम ब्रह्म’ कहते हैं, वे आपके ही स्‍वरूप हैं तथा आपका जो नित्‍यधाम है, यह भी सच्चिदानंदमय दिव्‍य और आपसे अभिन्‍न होने के कारण आपका ही स्‍वरूप है तथा आपके नाम, गुण, प्रभाव, लीला, और स्‍वरूपों के श्रवण, मनन और कीर्तन आदि सबको सर्वथा परम पवित्र करने वाले हैं: इसलिये आप ‘परम पवित्र’ हैं।
  3. यहाँ ‘ऋषिगण’ शब्‍द से मार्कण्डेय, अंगिरा आदि समस्‍त ऋषियों को समझना चाहिये। अपनी मान्‍यता के समर्थन में अर्जुन उनके कथन का प्रमाण दे रहे हैं। अभिप्राय यह है कि वे लोग आपको सनातन-नित्‍य एकरस रहने वाले, क्षयविनाशरहित, दिव्‍य-स्‍वत:प्रकाश और ज्ञानस्‍वरूप, सबके आदिदेव तथा अजन्‍मा-उत्‍पत्ति रूप विकार से रहित और सर्वव्‍यापी बतलाते हैं। अत: आप ‘परम ब्रह्म’, ‘परम धाम’ और ‘परम पवित्र’ हैं- इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। परम सत्‍यवादी धर्ममूर्ति पितामह भीष्‍म ने भी दुर्योधन को भगवान श्रीकृष्‍ण का प्रभाव बतलाते हुए कहा है- ‘भगवान वासुदेव सब देवताओं के देवता और सबसे श्रेष्‍ठ हैं; ये ही धर्म हैं, धर्मज्ञ हैं, वरद हैं, सब कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं और ये ही कर्ता, कर्म और स्‍वयंप्रभु हैं। भूत, भविष्‍यत, वर्तमान, संध्‍या, दिशाएं, आकाश और सब नियमों को इन्‍हीं जनार्दन ने रचा है। इन महात्‍मा अविनाशी प्रभु ने ऋषि, तप और जगत की सृष्टि करने वाले प्रजापति को रचा। सब प्राणियों के अग्रज संकर्षण को भी इन्‍होंने ही रचा। लोक जिनको ‘अनन्‍त’ कहते हैं और जिन्‍होंने पहाड़ों समेत सारी पृथ्‍वी को धारण कर रखा है, वे शेषनाग भी इन्‍हीं से उत्‍पन्‍न हैं; ये ही वाराह, नृसिंह और वामन का अवतार धारण करने वाले हैं; ये ही सबके माता-पिता हैं, इनसे श्रेष्‍ठ और कोई भी नहीं है; ये ही केशव परम तेजरूप हैं और सब लोगों के पितामह हैं, मुनिगण इन्‍हें हृषीकेश कहते हैं, ये ही आचार्य, पितर और गुरु हैं। ये श्रीकृष्‍ण जिस पर प्रसन्‍न होते हैं, उसे अक्षय लोक की प्राप्ति होती है। भय प्राप्‍त होने पर जो इन भगवान केशव के शरण जाता है और इनकी स्‍तुति करता है, वह मनुष्‍य परम सुख को प्राप्‍त होता है। जो लोग भगवान श्रीकृष्‍ण की शरण में चले जाते हैं, वे कभी मोह को नहीं प्राप्‍त होते। महान भय (संकट) में डूबे हुए लोगों की भी भगवान जनार्दन नित्‍य रक्षा करते हैं।’ (महा. भीष्‍म. अ. 67)
  4. देवर्षि के लक्षण ये हैं-

    .................। देवलोकप्रतिष्‍ठाश्च ज्ञेया देवर्षय शुभा:।।
    देवर्षयस्‍तथान्‍ये च तेषां वक्ष्‍यामि लक्षणम्। भूतभव्‍यभवज्‍ज्ञानं सत्‍याभिव्‍याहृतं तथा।।
    सम्‍बुद्धास्‍तु स्‍वयं ये तु सम्‍बद्धा ये च वै स्‍वयमू। तपसेह प्रसिद्धा ये गर्में यैश्च प्रणोदितम्।।
    मन्‍त्रव्‍याहारिणो ये च ऐश्र्वर्यात् सर्वगाश्च ये। इत्‍येते ऋषिभिर्युक्‍ता देवद्विजनृपास्‍तु ये।। (वायुपुराण 61। 88, 90, 91, 92 )

    ‘जिनका देवलोक में निवास है, उन्‍हें शुभ देवर्षि समझना चाहिये। इनके सिवा वैसे ही जो दूसरे और भी देवर्षि हैं, उनके लक्षण कहता हूँ। भूत, भविष्‍यत और वर्तमान का ज्ञान होना तथा सब प्रकार से सत्‍य बोलना- देवर्षि का लक्षण है। जो स्‍वयं भलीभाँति ज्ञान को प्राप्‍त हैं तथा जो स्‍वयं अपनी इच्‍छा से संसार से सम्‍बद्ध हैं, जो अपनी तपस्या के कारण इस संसार में विख्‍यात हैं, जिन्‍होंने (प्रह्लादादि को) गर्भ में ही उपदेश दिया है, जो मन्‍त्रों के वक्‍ता हैं और ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल के सर्वत्र सब लोकों में‍ बिना किसी बाधा के जा-आ सकते हैं और जो सदा ऋषियों से घिरे रहते हैं, वे देवता, ब्राह्मण और राजा- ये सभी देवर्षि हैं।’ देवर्षि अनेकों हैं, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं-

    देवर्षी धर्मपुत्रों तु नरनारायणावुभौ। बालखिल्‍या: क्रतो: पुत्रा: कर्दम: पुलहस्‍य तु।।
    पर्वतो नारदश्‍चैव कश्‍यपस्‍यात्‍मजावुभौ। ॠषंत देवान् यस्‍मात्‍ते तस्‍माद् देवर्षय: स्‍मृता:। (वायुपुराण 61। 83, 84, 85)

    धर्म के दोनों पुत्र नर और नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्‍य ऋषि, पुलह के कर्दम, पर्वत और नारद तथा कश्यप- के दोनों ब्रह्मवादी पुत्र असित और वत्‍सल- ये चूंकि देवताओं को अधीन रख सकते हैं, इसलिये इन्‍हें ‘दे‍वर्षि’ कहते हैं।‘

  5. देवर्षि नारद, असित, देवल और व्‍यास- ये चारों ही भगवान के यथार्थ तत्त्‍व को जानने वाले, उनके महान प्रेमी भक्त और परम ज्ञानी महर्षि हैं। ये अपने काल के बहुत ही सम्‍मान्‍य तथा महान सत्‍यवादी महापुरुष माने जाते हैं, इसी से इनके नाम खास तौर पर गिनाये गये हैं और भगवान की महिमा तो ये नित्‍य ही गाया करते हैं। इनके जीवन का प्रधान कार्य है भगवान की महिमा का ही विस्‍तार करना। महाभारत में भी इनके तथा अन्‍याय ऋषि-महर्षियों के भगवान की म‍हिमा गाने के कई प्रसंग आये हैं।
  6. इस कथन से अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि केवल उपर्युक्‍त ऋषि लोग ही कहते हैं, यह बात नहीं हैं; स्‍वयं आप भी मुझसे अपने अतुलनीय प्रभाव की बातें इस समय भी कर रहे हैं। (गीता 4।6-9 तक; 5।29; 7।7-12 तक; 9।4 से 11 और 16 से 19 तक; तथा 10।2, 3, 8) अत: मैं जो आपको साक्षात परमेश्वर समझता हूं, यह ठीक ही है।
  7. ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इन तीनों शक्तियों को क्रमश: ‘क’ ‘अ’ और ‘ईश’ (केश) कहते हैं और ये तीनों जिसके वपु यानी स्‍वरूप हों, उसे ‘केशव’ कहते हैं
  8. गीता के चौथे अध्‍याय के आरम्‍भ से लेकर इस अध्‍याय के ग्‍यारहवें श्लोक तक भगवान के जो अपने गुण, प्रभाव, स्‍वरूप, महिमा, रहस्‍य और ऐश्वर्य आदि की बातें कही हैं, जिनसे श्रीकृष्‍ण का अपने को साक्षात परमेश्वर स्‍वीकार करना सिद्ध होता है- उन समस्‍त वचनों को संकेत करने वाले ‘एतत्’ और ‘यत्’ पद हैं तथा भगवान श्रीकृष्‍ण को समस्‍त जगत के हर्ता, कर्ता, सर्वाधार, सर्वव्‍यापी, सर्वशक्तिमान, सबके आदि, सबके नियंता, सर्वान्‍तर्यामी, देवों के भी देव, सच्चिदानंदघन, साक्षात पूर्णब्रह्म परमात्‍मा समझना और उनके उपदेश को सत्‍य मानना तथा उसमें किंचिन्‍मात्र भी संदेह न करना ‘उन सब वचनों को सत्‍य मानना’ है।
  9. विष्‍णुपुराण में कहा है-

    ऐश्वर्यस्‍य समग्रस्‍य धर्मस्‍य यशस: श्रिय:। ज्ञानवैराग्‍ययोष्‍चैव षण्‍णं भग इतीरणा।। (6।5।74)

    'सम्‍पूर्ण ऐश्वर्य, सम्‍पूर्ण धर्म, सम्‍पूर्ण यश, सम्‍पूर्ण श्री, सम्‍पूर्ण ज्ञान और सम्‍पूर्ण वैराग्‍य-इन छहों का नाम ‘भग’ है। ये सब जिसमें हों, उसे भगवान कहते हैं।' वहीं यह भी कहा है-

    उत्‍पत्ति प्रलयं चैवं भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्‍यो भगवानिति।। (6।5।78)

    ‘उपत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को तथा विद्या और अविद्या को जो जानता है, उसे ‘भगवान’ कहना चाहिये।’ अतएव यहाँ अर्जुन श्रीकृष्‍ण को ‘भगवन’ सम्‍बोधन देकर यह भाव दिखलाते हैं कि आप सवैंश्वर्यसम्‍पन्‍न और सर्वज्ञ, साक्षात परमेश्वर हैं-इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।

  10. जगत की उत्‍पत्ति, स्थिति और संहार करने के लिये, धर्म की स्‍‍थापना और भक्तों को दर्शन देकर उनका उद्धार करने के लिये, देवताओं का संरक्षण और राक्षसों का संहार करने के लिये एवं अन्‍यान्‍य कारणों से भगवान भिन्‍न-भिन्‍न लीलामय स्‍वरूप धारण किया करते हैं। उन सबको देवता और दानव नहीं जानते-यह कहकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि माया से नाना रूप धारण करने की शक्ति रखने वाले दानव लोग तथा इन्द्रियातीत विषयों का प्रत्‍यक्ष करने वाले देवता लोग भी अापको उन लीलामय रूपों को, उनके धारण करने की दिव्‍य शक्ति और युक्ति को, उनके निमित्‍त को और उनकी लीलाओं के रहस्‍य को नहीं जान सकते; फिर साधारण मनुष्‍यों की तो बात ही क्‍या है?
  11. यहाँ अर्जुन ने इन पांच संबोधनों का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि आप समस्‍त जगत को उत्‍पन्‍न करने वाले, सबके नियंता, सबके पूजनीय, सबका पालन-पोषण करने वाले तथा 'अपरा' और 'परा' प्रकृति नामक जो क्षर और अक्षर पुरुष हैं, उनसे उत्तम साक्षात पुरुषोत्तम भगवान हैं।
  12. इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप समस्‍त जगत के आदि हैं, आपके गुण, प्रभाव, लीला, महात्‍म्‍य और रूप आदि परिमित हैं- इस कारण आपको गुण, प्रभाव, लीला, माहात्‍म्‍य, रहस्‍य और स्‍वरूप आदि को कोई भी दूसरा पुरुष पूर्णतया नहीं जान सकता, स्‍वयं आप ही अपने प्रभाव आदि को जानते हैं।
  13. किन-किन पदार्थों में किस प्रकार से निरंतर चिंतन करके सहज ही भगवान के गुण, प्रभाव, तत्त्‍व और रहस्‍य को समझा जा सकता है- इसके संबंध में अर्जुन पूछ रहे हैं।
  14. सभी मनुष्‍य अपनी-अपनी इच्छित वस्‍तुओं के लिये जिससे याचना करें, उसे 'जनार्दन' कहते हैं।
  15. इससे अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आपके वचनों में ऐसी माधुरी भरी है, उनसे आनंद की वह सुधाधारा बह रही है, जिसका पान करते-करते मन कभी आघात ही नहीं। इस दिव्‍य अमृत का जितना ही पान किया जाता है, उतनी ही उसकी प्‍यास बढ़ती जा रही है। मन करता है कि यह अमृतमय रस निरंतर ही पीता रहूँ।
  16. जब सारा जगत भगवान का स्‍वरूप है, तब साधारणतया तो सभी वस्‍तुएं उन्‍हीं की विभूत्ति है; परंतु वे सब-के-सब दिव्‍य विभूत्ति नहीं हैं। दिव्‍य विभूत्ति उन्‍हीं वस्‍तुओं या प्राणियों को समझना चाहिये, जिनमें भगवान के तेज, बल, विद्या, ऐश्वर्य, कांति और शक्ति आदि का विशेष विकास हो। भगवान यहाँ ऐसी ही विभूत्तियों के लिये कहते हैं कि मेरी ऐसी विभूत्तियां अनंत हैं, अतएव सबका तो पूरा वर्णन हो ही नहीं सकता; उनमें से जो प्रधान-प्रधान हैं, यहाँ मैं उन्‍हीं का वर्णन करूंगा। विश्व में अनंत पदार्थों, भावों और विभिन्‍नजातीय प्राणियों का विस्‍तार हैं। इन सबका यथाविधि नियंत्रण और संचालन करने के लिये जगतसृष्‍टा भगवान के अटल निमय के द्वारा विभिन्न जातीय पदार्थों, भावों और जीवों के विभिन्‍न समष्टि-विभाग कर दिये गये हैं और उन सबका ठीक नियमानुसार सृजन, पालन तथा संहार का कार्य चलता रहे- इसके लिये प्रत्‍येक समष्टि-विभाग के अधिकारी नियुक्‍त हैं। रुद्र, वसु, आदित्य, इन्‍द्र, साध्‍य, विश्वेदेव, मरूत, पितृदेव, मनु और सप्‍तर्षि आदि इन्‍हीं अधिकारियों की विभिन्‍न संज्ञाएं हैं। इनके मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूप माने गये हैं। ये सभी भगवान की विभूत्तियां है। सर्वे च देवा मानव: समस्‍ता: सप्‍तर्षयो ये मनुसूनवश्च। इन्‍द्रश्च योअयं त्रिदशेशभूतो विष्‍णोरशेषास्‍तु विभूततयस्‍ता:।। ( श्रीविष्‍णुपुराण 1।1।46) 'सभी देवता' समस्‍त मनु, सप्‍तर्षि तथा जो मनु के पुत्र है और जो ये देवताओं के अधिपति इन्‍द्र हैं- ये सभी भगवान विष्‍णु की विभूतियां हैं।'
  17. समस्‍त प्राणियों के हृदय में स्थित जो 'चेतन' है, जिसको परा 'प्रकृति' और 'क्षेत्रज्ञ' भी कहते हैं (गीता 7।5; 13।1), उसी को यहाँ 'अब भूतों के हृदय में स्थित सबका 'आत्‍मा' बतलाया है। वह भगवान का ही अंश होने के कारण (गीता 15:7) वस्‍तुत: भगवत्‍स्‍वरूप ही है (गीता 13:2)। इसीलिये भगवान ने कहा है कि 'वह आत्‍मा मैं हूँ।'
  18. यहाँ 'भूत' शब्‍द से चराचर समस्‍त देहाधारी प्राणी समझने चाहिये। ये सब प्राणी भगवान से ही उत्‍पन्‍न होते हैं, उन्‍हीं में स्थित हैं और प्रलयकाल में भी उन्‍हीं में लीन होते हैं; भगवान ही सबके मूल कारण और आधार हैं- यही भाव दिखलाने के लिये भगवान ने अपने को उन सबका आदि, भव्‍य और अंत बतलाया है।
  19. अदिति के धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्‍वान्, पूषा, सविता, त्‍वष्‍टा और विष्‍णु नामक बारह पुत्रों को द्वादश आदित्‍य कहते हैं- धाता मित्रोअर्यमा शक्रो वरुणस्‍त्‍वंश एव च। भगो विवस्‍वान् पूषा च सविता दशमस्‍तथा।। एकादशस्‍तथा त्‍वष्‍टा द्वादशो विष्‍णुरूच्‍यते। जघन्‍यजस्‍तु सर्वेषामादित्‍यानां गुणाधिक:। ( महा. आदि. 65।15-16) इनमें जो विष्‍णु हैं, वे इन सबके राजा हैं और अन्‍य सबसे श्रेष्‍ठ हैं। इसीलिये भगवान ने विष्‍णु को अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  20. सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं, उन सबमें सूर्य प्रधान हैं; इसलिये भगवान ने समस्‍त ज्‍योतियों में सूर्य को अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  21. उन्‍चास मरूतों के नाम ये हैं- सत्त्‍वज्‍योति, आदित्‍य, सत्‍यज्‍योति, तिर्यग्ज्‍योति, सज्‍योति, ज्‍योतिष्‍मान, हरित, ॠतजित, सत्‍यजित, सुषेण, सेनजित, सत्‍य‍मित्र, अभिमित्र, हरिमित्र, कृत, सत्‍य, ध्रुव, धर्ता, विधर्ता, विधारय, ध्‍वान्‍त, धुनि, उग्र, भीम, अभियु, साक्षिप, ईध्‍क अन्‍याध्‍क, याध्‍क, प्रतिकृत्, त्रक, समिति, संरम्‍भ, ईध्‍क्ष, पुरुष, अन्‍याध्‍क्ष, चेतस, समिता, समिध्‍क्ष, प्रतिध्‍क्ष, मरूति, सरत, देव, दिश, यजु:, अनुध्‍क, साम, मानुष और विश (वायुपुराण 67।123 से 130)। गरुड़ पुराण तथा अन्‍यान्‍य पुराणों में कुछ नामभेद पाये जाते हैं; परंतु 'मरीचि' नाम कहीं भी नहीं मिला है। इसीलिये 'मरीचि' को मरूत न मानकर समस्‍त मरूद्गणों का तेज या किरणें माना गया है। दक्षकन्‍या मरूत्व‍ती से उत्‍पन्‍न पुत्रों को भी मरूद्गण कहते हैं (हरिवंश)। भिन्‍न-भिन्‍न मन्‍वंतरों में भिन्‍न-भिन्‍न नामों से तथा विभिन्‍न प्रकार से इनकी उत्‍पत्ति के वर्णन पुराणों में मिलते हैं। दितिपुत्र उन्चास मरूद्गण दिति देवी के भगवद्ध्‍यानरूप व्रत के तेज से उत्‍पन्‍न हैं। उस तेज के ही कारण इनका गर्भ में विनाश नहीं हो सका था। इसलिये उनके इस तेज को भगवान ने अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  22. अश्विनी, भरणी और कृत्ति का आदि जो सत्‍ताईस नक्षत्र हैं, उन सबके स्‍वामी और सम्‍पूर्ण तारा-मण्‍डल के राजा होने से चन्‍द्रमा भगवान की प्रधान विभूत्ति हैं। इसलिये यहाँ उनको भगवान ने अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  23. ॠक्, यजु:, साम और अथर्व- इन चारों वेदों में सामवेद अत्‍यंत मधुर संगीतमय तथा परमेश्वर की अत्‍यंत रमणीय स्‍तुतियों से युक्‍त है; अत: वेदों में उसकी प्रधानता है। इसलिये भगवान ने उसको अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  24. समस्‍त प्राणियों की ज्ञान-शक्ति है, जिसके द्वारा उनको दु:ख-सुख का और समस्‍त पदार्थों की अनुभव होता है, जो अंत:करण की वृत्ति विशेष है, गीता के तेरहवें अध्‍याय के छठे श्र्लोक में जिसकी गणना क्षेत्र के विकारों में की गयी है, उस ज्ञानशक्ति का नाम 'चेतना' है। यह प्राणियों के समस्‍त अनुभवों की हेतुभूता प्रधान शक्ति है, इसलिये इसको भगवान ने अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  25. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 14-22
  26. हर, बहुरूप, व्‍यम्‍बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्‍भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्‍याध, शर्व और कपाली- ये ग्‍यारह रुद्र कहलाते हैं— हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्चापराजित:। वृष‍कपिश्च शम्‍भुश्च कपर्दी रैवतस्‍तथा।। मृगव्‍याधश्च शर्वश्च कपाली च विशाम्‍पते। एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्र्वरा।। (हरिवंश. 1।3।41,42) इनमें शम्भु अर्थात शंकर सबके अधीश्वर (राजा) हैं तथा कल्‍याणप्रदाता और कल्‍याणस्‍वरूप हैं। इसीलिये उन्‍हें भगवान ने अपना स्‍वरूप कहा है।
  27. धर, ध्रुव, सोम, अह:, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास- इन आठों को वसु कहते हैं- धरो ध्रुवश्च सोमश्च अहश्‍चैवानिलोअनल:। प्रत्‍यूषश्च प्रभासश्व वसवोअष्‍टौ प्रकीर्तिता:।। (महा. आदि. 66।18) इनमें अनल (अग्नि) वसुओं के राजा हैं और देवताओं को हवि पहुँचाने वाले हैं। इसके अतिरिक्‍त वे भगवान के मुख भी माने जाते हैं। इसीलिये अग्नि (पावक) को भगवान ने अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  28. समस्‍त नक्षत्र सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते है और सुमेरु पर्वत नक्षत्र और द्वीपों का केन्‍द्र तथा सुवर्ण और रत्‍नों का भण्‍डार माना जाता है तथा उसके शिखर अन्‍य पर्वतों की अपेक्षा ऊंचे हैं। इस प्रकार शिखर वाले पर्वतों ने प्रधान होने से सुमेरु को भगवान ने अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  29. बृहस्पति देवराज इन्‍द्र के गुरु, देवताओं के कुलपुरोहित और विद्या-बुद्धि में सर्वश्रेष्ठ हैं तथा संसार के समस्‍त पुरोहितों में मुख्‍य और आङ्गिरसों के राजा माने गये हैं। इसलिये भगवान ने उनको अपना स्‍वरूप कहा है।
  30. स्कंद का दूसरा नाम कार्तिकेय है। इनके छ: मुख और बारह हाथ हैं। ये महादेव जी के पुत्र और देवताओं के सेनापति हैं। कहीं-कहीं इन्‍हें अग्नि के तेज से तथा दक्षकन्‍या स्वाहा के द्वारा उत्‍पन्न माना गया है (महाभारत वनपर्व 223)। इनके संबंध में महाभारत और पुराणों में बड़ी ही विचित्र-विचित्र कथाएं मिलती हैं। संसार के समस्‍त सेनापतियों में ये प्रधान हैं, इसीलिये भगवान ने इनको अपना स्‍वरूप बतलाया है।
  31. महर्षि बहुत-से हैं, उनके लक्षण और उनमें से प्रधान दस के नाम ये हैं-

    ईश्रवरा: स्‍वयुमुद्भुता मानसा ब्रह्मण: सुता:। यस्‍मान्‍न हन्‍यते मानैर्महान् परिगत: पुर:।।
    यस्‍माध्‍षन्ति ये धीरा महान्‍तं सर्वतो गुणै:। तस्‍मान्‍यहर्षय : प्रोक्‍ता बुद्धे: परमदर्शिन:।।
    भृगुर्मरीचिरत्रिश्र्व अङ्गिरा: पुलह: क्रतु:। मनुर्दक्षो वसिष्‍ठश्र्व पुलस्त्यश्‍चेति ते दश। ।
    ब्रह्मणो मानसा ह्येत उद्भूता: स्वयमीश्र्वरा:। पवर्तत ॠषेर्यस्मान्महांस्तस्मान्महर्षय:।। (वायुपुराण 59। 82-83,89-90)


    ‘ब्रह्मा के ये मानस पुत्र ऐश्वर्यवान (सिद्धियों से सम्पन्न) एवं स्वयं उत्पन्न हैं। परिमाण से जिसका हनन न हो (अर्थात जो अपरिमेय हो) और जो सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी सामने (प्रत्यक्ष) हो, वही महान हैं। जो बुद्धि के पार पहुँचे हुए (भगवत्प्राप्त) विज्ञजन गुणों के द्वारा उस महान (परमेश्वर) का सब ओर से अवलम्बन करते हैं, वे इसी कारण (‘महान्तम्ॠषन्ति इति महर्षय:’ इस व्युपत्ति के अनुसार) महर्षि कहलाते हैं। भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वसिष्ठ और पुलस्त्य- ये दस महर्षि हैं। ये सब ब्रह्मा के मन से स्वयं उत्पन्न हुए हैं और ऐश्वर्यवान हैं। चूंकि ऋषि (ब्रह्मा जी) से इन ऋषियों के रूप में स्वयं महान (परमेश्‍वर) ही प्रकट हुए, इसलिये ये महर्षि कहलाये।’ महर्षियों में भृगु जी मुख्‍य हैं। ये भगवान के भक्त, ज्ञानी और बड़े तेजस्वी हैं; इसीलिये इनको भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।

  32. किसी अर्थ का बोध कराने वाले शब्द को ‘गी:’ (वाणी) कहते हैं और ओंकार (प्रणव) को ‘एक अक्षर’ कहते हैं (गीता 8।13)। जितने भी अर्थ बोधक शब्द हैं, उन सब में प्रणव की प्रधानता है; क्योंकि ‘प्रणव’ भगवान का नाम हैं (गीता 17:23)। प्रणव के जप से भगवान की प्राप्ति होती है। नाम और नामी में अभेद माना गया हैं। इसलिये भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  33. जपयज्ञ में हिंसा का सर्वथा अभाव है और जपयज्ञ भगवान का प्रत्यक्ष कराने वाला है। मनुस्मृति में भी जपयज्ञ की बहुत प्रशंसा की गयी है-
    विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टों दश‍भिर्गुणै:। उपांशु स्याच्छतगुण: सहस्रों मानस: स्मृत:।। (2।85)
    ‘विधि-यज्ञ से जपयज्ञ दसगुना, उपाशुंजप सौगुना और मानसजप हजारगुना श्रेष्‍ठ कहा गया हैं।’ इसलिये समस्त यज्ञों में जपयज्ञ की प्रधानता है, यह भाव दिखलाने के लिये भगवान ने जपयज्ञ को अपना स्वरूप बतलाया है।
  34. स्थिर रहने वालों को स्थावर कहते हैं। जितने भी पहाड़ हैं, सब अचल होने के कारण स्थावर है। उनमें हिमालय सर्वोत्तम है। वह परम पवित्र तपोभूमि है और मुक्ति में सहायक है। भगवान नर और नारायण वहीं तपस्या कर चुके हैं। साथ ही, हिमालय सब पर्वतों का राजा भी है। इसीलिये उसको भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  35. पीपल का वृक्ष समस्त वनस्पतियों में राजा और पूजनीय माना गया है। पुराणों में अश्वत्थ का बड़ा माहात्म्य मिलता है। स्कन्द पुराण में कहा है-
    स एव विष्‍णुर्द्रम एवं मूतों महात्मभि: सेवितपुण्‍यमूल:। यस्याश्रय: पापसहस्रहन्ता भवेन्नृणां कामदुघो गुणाढ़य:।। (नागर. 247।44) ‘यह वृक्ष मूर्तिमान श्रीविष्‍णुस्वरूप है; महात्मा पुरुष इस वृक्ष के पुण्‍यमय मूल की सेवा करते हैं। इसका गुणों से युक्त और कामनादायक आश्रय मनुष्‍यों के हजारों पापों का नाश करने वाला है।’ इसलिये भगवान ने इसको अपना स्वरूप बतलाया है।
  36. देवर्षि के लक्षण इसी अध्‍याय के बारहवें, तेरहवें श्लोकों की टिप्पणी में दिये गये हैं, उन्हें वहाँ पढ़ना चाहिये। ऐसे देवर्षियों में नारद जी सबसे श्रेष्‍ठ हैं। साथ ही वे भगवान के परम अनन्य भक्त, महान ज्ञानी और निपुण मन्त्रद्रष्‍टा हैं। इसीलिये नारद जी को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  37. गन्धर्व एक देवयोनिविशेष है ये देवलोक में गान, वाद्य और नाटयाभिनय किया करते हैं। स्वर्ग में ये सबसे सुन्दर और अत्यन्त रूपवान माने जाते हैं। ‘गुह्यक-लोक’ से ऊपर और ‘विधाधर-लोक’ से नीचे इनका ‘गन्धर्व-लोक’ है। देवता ओर‍ पितरों की भाँति गन्धर्व भी दो प्रकार के होते हैं- मत्र्य और दिव्य। जो मनुष्‍य मरकर पुण्‍यबल से गन्धर्वलोक को प्राप्त होते हैं, वे ‘मर्त्य’ हैं और जो कल्प के आरम्भ से ही गन्धर्व हैं, उन्हें ‘दिव्य’ कहते हैं। दिव्य गन्धर्वों की दो श्रेणियां हैं- ‘मौनेय’ और ‘प्राधेय’। महर्षि कश्‍यप की दो पत्नियों के नाम थे- मुनि और प्राधा। इन्हीं से अधिकांश अप्सराओं और गन्धर्वो की उत्पत्ति हुई। चित्ररथ दिव्य संगीत-विद्या के पारदर्शी और अत्यन्त ही निपुण हैं। इसी से भगवान ने इनको अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  38. जो सर्व प्रकार की स्थूल और सूक्ष्‍म जगत की सिद्धियों को प्राप्त हों तथा धर्म, ज्ञान, ऐश्‍वर्य और वैराग्य आदि श्रेष्ठ गुणों से पूर्णतया सम्पन्न हों, उनको सिद्ध कहते हैं। ऐसे हजारों सिद्ध हैं, जिनमें भगवान कपिल सर्वप्रधान है। भगवान कपिल साक्षात ईश्वर के अवतार हैं। इसीलिये भगवान ने समस्त सिद्धों में कपिल मुनि को अपना स्वरूप बतलाया है।
  39. बहुत-से हाथियों में जो श्रेष्‍ठ हो, उसे गजेन्द्र कहते हैं। ऐसे गजेन्द्रों में भी ऐरावत हाथी, जो इन्द्र का वाहन हैं, सर्वश्रेष्‍ठ और ‘गज’ जाति का राजा माना गया हैं। इसकी उत्पत्ति भी उच्चै:श्रवा घोडे़ की भाँति समुद्र मंथन से ही हुई थी। इसलिये इसको भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  40. शास्त्रोक्त लक्षणों से युक्त धर्मपरायण राजा अपनी प्रजा को पापों से हटाकर धर्म मे प्रवृत्त करता है और सबकी रक्षा करता है, इस कारण अन्य मनुष्‍यों से राजा श्रेष्‍ठ माना गया है। ऐसे राजा में भगवान की शक्ति साधारण मनुष्‍यों की अपेक्षा अधिक रहती है। इसीलिये भगवान ने राजा को अपना स्वरूप कहा है।
  41. जितने भी शस्त्र हैं, उन सब में वज्र अस्त्र अत्यन्त श्रेष्‍ठ हैं; क्योंकि वज्र में दधीचि ऋषि के तप का तथा साक्षात भगवान का तेज विराजमान है और उसे अमोघ माना गया है (श्रीमद्भागवत 6।11।19-20)। इसलिये वज्र को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  42. कामधेनु समस्त गौओं में श्रेष्‍ठ दिव्य गौ है, यह देवता तथा मनुष्‍य सभी की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है और इसकी उत्पत्ति भी समुद्रमन्थन से हुई है; इसलिये भगवान ने इसको अपना स्वरूप बतलाया है।
  43. इन्द्रियाराम मनुष्‍यों के द्वारा विषयसुख के लिये उपभोग में आने वाला काम निकृष्‍ट है, वह धर्मानुकूल नहीं हैं; परंतु शास्त्र विधि के अनुसार संतान की उ‍त्पत्ति के लिये इन्द्रियजयी पुरुषों के द्वारा प्रयुक्त होने वाला काम ही धर्मानुकूल होने से श्रेष्‍ठ हैं। अत: उसको भगवान की विभूतियों में गिना गया है।
  44. वासुकि समस्त सर्पों के राजा और भगवान के भक्त होने के कारण सर्पों में श्रेष्‍ठ माने गये हैं, इसलिये उनको भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  45. शेषनाग समस्त नागों के राजा और हजार फणों से युक्त हैं त‍था भगवान की शय्या बनकर और नित्य उनकी सेवा में लगे रहकर उन्हें सुख पहुँचाने वाले, उनके परम अनन्य भक्त और बहुत बार भगवान के साथ-साथ अवतार लेकर उनकी लीला में सम्मिलित रहने वाले हैं तथा इनकी उत्पत्ति भी भगवान से ही मानी गयी है। इसलिये भगवान ने इनको अपना स्वरूप बत‍लाया है।
  46. वरुण समस्त जलचरों के और जल देवताओं के अधिपति, लोकपाल, देवता और भगवान के भक्त होने के कारण सबमें श्रेष्‍ठ माने गये हैं। इसलिये उनको भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  47. कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निष्‍वात्त और बर्हिषद्- ये सात दिव्य पितृगण हैं। (शिवपुराण धर्म. 63।2) इनमें अर्यमा नामक पितर समस्त पितरों में प्रधान होने से श्रेष्‍ठ माने गये हैं। इसलिये उनको भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  48. मर्त्य और देवजगत में, जितने भी नियमन करने वाले अधिकारी हैं, यमराज उन सबमें बढ़कर हैं। इनके सभी दण्‍ड न्याय और धर्म से यु्क्त, हितपूर्ण और पापनाशक होते हैं। ये भगवान के ज्ञानी भक्त और लोकपाल भी हैं। इसीलिये भगवान ने इनको अपना स्वरूप बतलाया है।
  49. दिति के वंशजों को दैत्य कहते हैं। उन सबमें प्रह्लाद उत्तम माने गये हैं; क्योंकि वे सर्वसद्गुण सम्पन्न, परम धर्मात्मा और भगवान के परम श्रद्धालु, निष्‍काम, अनन्यप्रेमी हैं तथा दैत्यों के राजा हैं। इसलिये भगवान ने उनको अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  50. सिंह सब पशुओं का राजा माना गया है। वह सबसे बलवान, तेजस्वी, शूरवीर और साहसी होता है। इसलिये भगवान ने सिंह को अपनी विभूतियों में गिना हैं।
  51. विनता के पुत्र गरुड़ जी पक्षियों के राजा और उन सबसे बड़े होने के कारण पक्षियों में श्रेष्‍ठ माने गये हैं। साथ ही ये भगवान के वाहन, उनके परम भक्त और अत्यन्त पराक्रमी हैं। इसलिये गरुड़ को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  52. राम’ शब्द दशरथपुत्र भगवान श्रीरामचन्द्र जी का वाचक है। उनको अपना स्वरूप बतलाकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न प्रकार की लीला करने के लिये मैं ही भिन्न-भिन्न रूप धारण करता हुं। श्रीराम में और मुझमें कोई अन्तर नहीं हैं, स्वयं मैं ही श्रीराम रूप में अवतीर्ण होता हुं।
  53. जितने प्रकार की मछलियां होती हैं, उन सबमें मगर बहुत बड़ा और बलवान होता है; इसी विशेषता के कारण मछलियों में मगर को भगवान ने अपनी विभूति बतलाया हैं।
  54. जाह्नवी अर्थात श्रीभागीरथी गंगा जी समस्त नदियों में परम श्रेष्‍ठ हैं; ये श्रीभगवान के चराणोदक से उत्पन्न, परम पवित्र हैं। पुराण और इतिहास में इनका बड़ा भारी माहात्म्य बतलाया गया है। श्रीमद्भागवत में कहा हैं-

    धातु कमण्‍डलुजलं तदुरूक्रमस्य पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र।
    स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्ति।। (8। 21। 4)

    ‘हे राजन्! वह ब्रह्मा जी के कमण्‍डलु का जल, भगवान के चरणों को धोने से पवित्रतम होकर स्वर्ग-गंगा हो गया। वह गंगा आकाश से पृथ्‍वी पर गिेरकर अब तक तीनों लोकों को भगवान की निर्मल कीर्ति के समान पवित्र कर रही है।’ इस‍के अतिरिक्त यह बात भी है कि एक बार भगवान विष्‍णु स्वयं ही द्रवरूप होकर बहने लगे थे और ब्रह्मा जी के कमण्‍डलु में जाकर गंगारूप हो गये थे। इस प्रकार साक्षात ब्रह्मदेव होने के कारण भी गंगा जी का अत्यन्त माहात्म्य है। इसीलिये भगवान ने गंगा को अपना स्वरूप बतलाया है।

  55. अध्‍यात्मविद्या या ब्रह्मविद्या उस विद्या को कहतें हैं जिसका आत्मा से सम्बन्ध हैं, जो आत्मतत्त्व का प्रकाश करती है और जिसके प्रभाव से अनायास ही ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। संसार में ज्ञात या अज्ञात जितनी भी विद्याएं हैं, सभी इस ब्रह्मविद्या से निकृष्‍ट हैं; क्योंकि उनसे अज्ञान का बन्धन टूटता नहीं, बल्कि और दृढ़ होता है; परंतु इस ब्रह्मविद्या से अज्ञान की गांठ सदा के लिये खुल जाती है और परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ साक्षात्कार हो जाता है। इसी से यह सबसे श्रेष्‍ठ है और इसीलिये भगवान ने इसको अपना स्वरूप बतलाया है।
  56. शास्त्रार्थ के तीन स्वरूप होते हैं- जल्प, वितण्‍डा और वाद। उचित-अनूचित का विचार छोड़कर अपने पक्ष के मण्‍डन और दूसरे के पक्ष का खण्‍डन करने के लिये जो विवाद किया जाता है, उसे ‘जल्प’ कहते हैं; केवल दूसरे पक्ष का खण्‍डन करने के लिये किये जाने वाले विवाद को ‘वितण्‍डा’ कहते हैं और जो तत्त्वनिर्णय के उद्देश्‍य से शुद्ध नीयत से किया जाता है, उसे ‘वाद’ कहते हैं। ‘जल्प’ और ‘वितण्‍डा’ से द्वेष, क्रोध, हिंसा और अभिमानादि दोषों की उत्पत्ति होती है तथा ‘वाद’ से सत्य के निर्णय में और कल्याण-साधन में सहायता प्राप्त होती हैं। ‘जल्प’ और ‘वितण्‍डा’ त्याज्य हैं तथा ‘वाद’ आवश्‍यकता होने पर ग्राह्य हैं। इसी विशेषता के कारण भगवान ने ‘वाद’ को अपनी विभूति बतलाया हैं।
  57. स्वर और व्यञ्जन आदि जितने भी अक्षर हैं, उन सबमें अकार सबका आदि हैं और वही सबमें व्याप्त हैं। इसीलिये भगवान ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है।
  58. संस्कृत-‍व्याकरण के अनुसार समास चार हैं-
    1. अव्ययीभाव,
    2. तत्पुरुष,
    3. बहुव्रीहि और
    4. द्वन्द्व। कर्मधारय और द्विगु- ये दोनों तत्पुरुष के ही अन्तर्गत हैं। द्वन्द्व समास में दोनों पदों के अर्थ की प्रधानता होने के कारण वह अन्य समासों से श्रेष्‍ठ है; इसलिये भगवान ने उसको अपनी विभूतियों में गिना है।
  59. काल के तीन भेद हैं-
    1. ‘समय’ वाचक काल।
    2. ‘प्रकृति’ रूप काल। महाप्रलय के बाद जितने समय त‍क प्रकृति की साम्यावस्था रहती है, वही प्रकृतिरूपी काल है।
    3. नित्य शाश्र्वत विज्ञानानन्दघन परमात्मा।
    समयवाचक स्थूल काल की अपेक्षा तो बुद्धि की समझ में न आने वाला प्रकृतिरूप काल सूक्ष्‍म और पर है तथा इस प्रकृतिरूप काल से भी परमात्मारूप काल अत्यन्त सूक्ष्‍म, परातिपर और परम श्रेष्‍ठ है। वस्तुत: परमात्मा देश-काल से सर्वथा रहित है; परंतु जहाँ प्रकृति और उसके कार्यरूप संसार का वर्णन किया जाता है, वहाँ सबको सत्ता-स्‍फूर्ति देने वाले होने के कारण उन सबके अधिष्‍ठानरूप विज्ञानानन्दघन परमात्मा ही वास्तविक ‘काल’ हैं। ये ही ‘अक्षय’ काल है।
  60. जिस प्रकार मृत्युरूप होकर भगवान सबका नाश करते हैं अर्थात उनका शरीर से वियोग कराते हैं, उसी प्रकार भगवान ही उनका पुन: दूसरे शरीरों से सम्बन्ध कराके उन्हें उत्पन्न करते हैं- यही भाव दिखलाने के लिये भगवान ने अपने-को उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु बतलाया है।
  61. स्वायम्भुव मनु की कन्या प्रसुति प्रजा‍पति दक्ष को ब्याही थीं, उनसे चौबीस कन्याएं हुई कीर्ति, मेधा, धृति, स्मृति और क्षमा उन्हीं में से हैं। इनमें कीर्ति, मेधा और धृति का विवाह धर्म से हुआ; स्मृति का अंगिरा से और क्षमा महर्षि पुलह को ब्याही गयीं। महर्षि भृगु की कन्या का नाम श्री हैं, जो दक्षकन्या ख्‍याति के गर्भ से उत्पन्न हुई थीं। इनका पाणिग्रहण भगवान विष्‍णु ने किया और वाक् ब्रह्मा जी की कन्या थीं। इन सातों के नाम जिन गुणों का निर्देश करते हैं- उन विभिन्न गुणों की ये सातों अधिष्‍ठातृदेवता हैं तथा संसार की समस्त स्त्रियों में श्रेष्‍ठ मानी गयी हैं। इसीलिये भगवान ने इनको अपनी विभूति बतलाया है।
  62. [सामवेद]] में ‘बृहत्साम’ एक गीतिविशेष है। इसके द्वारा परमेश्‍वर की इन्द्ररूप में स्तुति की गयी है। ‘अतिरात्र’ याग में यही पृष्‍ठस्तोत्र है तथा सामवेद के ‘रथन्तर’ आदि सामों में बृहत्साम (‘बृहत्’ नामक साम) प्रधान होने के कारण सबमें श्रेष्‍ठ है, इसी कारण यहाँ भगवान ने ‘बृहत्साम’ को अपना स्वरूप बतलाया है।
  63. वेदों की जितनी भी छन्दोबद्ध ॠचाएं हैं, उन सबमें गायत्री की ही प्रधानता है। श्रुति, स्मृति, इतिहास और पुराण आदि शास्त्रों में जगह-जगह गायत्री की महिमा भरी है- </poem>अभीष्‍ट लोकमाप्नोति प्राप्नुयात् काममीप्सितम्। गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी।। गायत्र्या: परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम्। हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे।। (शङ्खस्मृति 12। 24-25)</poem> ‘(गायत्री की उपासना करने वाला द्विज) अपने अभीष्‍ट लोक को पा जाता है, मनोवाञ्छित भोग प्राप्त कर लेता है। गायत्री समस्त वेदों की जननी और सम्पूर्ण पापों का नष्‍ट करने वाली हैं। स्वर्गलोक में तथा पृथ्‍वी पर गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाली दूसरी कोई वस्तु नहीं हैं। गायत्री देवी नरकसमुद्र मे गिरने वालों का हाथ का सहारा देकर बचा लेने वाली हैं।’

    नास्ति गङ्गासमं तीर्थे न देव: केशवात् पर:। गायच्यास्तु परं जप्यं न भूतं न भविष्‍यति।। (बृहद्योगियाज्ञवल्क्य 10।10)

    ‘गंगा जी के समान तीर्थ नहीं है, श्रीविष्‍णु भगवान से बढ़कर देवता नहीं है और गायत्री से बढ़कर जपने योग्य मन्त्र न हुआ, न होगा।’ गायत्री की इस श्रेष्‍ठता के कारण ही भगवान ने उसको अपना स्वरूप बतलाया हैं

  64. महाभारत काल में महीनों की गणना मार्गशीर्ष से ही आरम्भ होती थी (महा अनुशासन. 106 और 109)। अत: यह सब मासों में प्रथम मास हैं तथा इस मास में किये हुए, व्रत-उपवासों का शास्त्रों में महान फल बतलाया गया हैं। नये अन्न की इष्टि (यज्ञ) का भी इसी महीने में विधान है। वाल्मीकिय रामायण में इसे संवत्सर का भूषण बतलाया गया है। इस प्रकार अन्यान्य मासों की अपेक्षा इसमें कई विशेषताएं हैं, इसलिये भगवान ने इसको अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  65. वसन्त सब ॠतुओं में श्रेष्‍ठ और सबका राजा है। इसमें बिना ही जल के सब वनस्पतियां हरी-भरी और नवीन पत्रों तथा पुष्‍पों से समन्वित हो जाती हैं। इसमें न अधिक गरमी रहती है और न सरदी। इस ॠतु में प्राय: सभी प्राणियों को आनन्द होता है। इसीलिये भगवान ने इसको अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  66. संसार में उत्तम, मध्‍यम और नीच जितने भी जीव और पदार्थ हैं, सभी में भगवान व्याप्त हैं और भगवान की ही सत्ता-स्फूर्ति से सब चेष्‍टा करते हैं। ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो भगवान की सत्ता और शक्ति से रहित हो। ऐसे सब प्रकार के सात्त्वि‍क, राजस और तामस जीवों एवं पदार्थो में जो विशेष गुण, विशेष प्रभाव और विशेष चमत्कार से युक्त है, उसी में भगवान की सत्ता और शक्ति का विशेष विकास है।
  67. ये चारों ही गुण भगवत्प्राप्ति में सहायक हैं, इसलिये भगवान ने इनको अपना स्वरूप बतलाया है। इन चारों को अपना स्वरूप बतलाकर भगवान यह भाव भी दिखलाया है कि तेजस्वी प्राणियों में जो तेज या प्रभाव है, वह वास्तव में मेरा ही है। जो मनुष्‍य उसे अपनी शक्ति समझकर अभिमान करता है, वह भूल करता है। इसी प्रकार विजय प्राप्त करने वालों का विजय, निश्‍चय करने वालों का निश्‍चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव- ये सब गुण भी मेरे ही हैं। इनके निमित्त से अभिमान करना भी बड़ी भारी मूर्खता है। इसके अतिरिक्त इस कथन में यह भाव भी है कि जिन-जिन में उपर्युक्त गुण हों, उनमें भगवान के तेज की अधिकता समझकर उनको श्रेष्‍ठ मानना चाहिये।
  68. इस कथन से भगवान ने अवतार और अवतारी की एकता दिखलायी है। कहने का भाव यह है कि मैं अजन्मा-अविनाशी, सब भूतों का महेश्‍वर, सर्वशक्तिमान, पूर्णब्रह्म पुरुषोत्तम ही यहाँ वसुदेव के पुत्र के रूप में लीला से प्रकट हुआ हुं (गीता 4:6)।
  69. अर्जुन ही सब पाण्‍डवों में श्रेष्‍ठ माने गये हैं। इसका कारण यह है कि नर-नारायण-अवतार में अर्जुन नर रूप से भगवान के साथ रह चुके हैं। इसके अतिरिक्त वे भगवान के परम प्रिय सखा और उनके अनन्य प्रेमी भक्त हैं। इसलिये अर्जुन को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है। भगवान ने स्वयं कहा है-

    नरस्त्वमसि दुर्धर्ष हरिर्नारायणो ह्यहम्। काले लोकमिमं प्राप्तौ नरनारायणवृषी।।
    अनन्य पार्थ मत्तस्त्वं त्वत्तश्र्वाह तथैव च। (महा. वन. 12।46-47)

    ‘हे दुर्धर्ष अर्जुन! तू भगवान नर है और मैं स्वयं हरि नारायण हूँ। हम दोनों एक समय नर और नारायण ऋषि होकर इस लोक में आये थे। इसलिये हे अर्जुन! तू मुझसे अलग नहीं है और उसी प्रकार मैं तुझसे अलग नहीं हूँ।’

  70. भगवान के स्वरूप का और वेदादि शास्त्रों का मनन करने वालों को ‘मुनि’ कहते हैं। भगवान वेदव्यास समस्त वेदों का भलीभाँति चिन्तन करके उनका विभाग करने वाले, महाभारत, पुराण आदि अनेक शास्त्रों के रचयिता, भगवान के अंशावतार और सर्वसद्गुण सम्पन्न हैं। अतएव मुनिमण्‍डल में उनकी प्रधानता होने के कारण भगवान ने उन्हें अपना स्वरूप बतलाया है।
  71. जो पण्डित और बुद्धिमान हो, उसे ‘कवि’ कहते हैं। शुक्राचार्य जी भार्गवों के अधिपति, सब विद्याओं में विशारद, नीति के रचयिता, संजीवनी विद्या के जानने वाले और कवियों में प्रधान हैं, इसलिये इनको भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  72. दण्‍ड (दमन करने की शक्ति) धर्म का त्याग करके अधर्म में प्रवृत्त उच्छृङ्खल मनुष्‍यों को पापाचार से रोककर सत्कर्म में प्रवृत्त करता है। मनुष्‍यों के मन और इन्द्रिय आदि भी इस दमन-शक्ति के द्वारा ही वश में होकर भगवान की प्राप्ति में सहायक बन सकते हैं। दमन-शक्ति से समस्तप्राणी अपने-अपने अधिकार का पालन करते हैं। इसलिये जो भी देवता, राजा और शासक आदि न्यायपूर्वक दमन करने वाले हैं, उन सबकी उस दमन-शक्ति को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  73. ‘नीति’ शब्द यहाँ न्याय का वाचक है। न्याय से ही मनुष्‍य की सच्ची विजय होती है। जिस राज्य में नीति नहीं रहती, अनीति का बर्ताव होने लगता है, वह राज्य भी शीघ्र नष्‍ट हो जाता है। अतएव नीति अ‍र्थात न्याय विजय का प्रधान उपाय है। इसलिये विजय चाहने वालों की नीति को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया है।
  74. जितने भी गुप्त रखने योग्य भाव हैं, वे मौन से (न बोलने से) ही गुप्त रह सकते हैं। बोलना बंद किये बिना उनका गुप्त रखा जाना कठिन है। इस प्रकार गोपनीय भावों के रक्षक मौन की प्रधानता होने से मौन को भगवान ने अपना स्वरूप बतलाया हैं।
  75. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 23-38
  76. भगवान ही समस्त चराचर भूतप्राणियों के परम आधार हैं और उन्हीं से सबकी उत्पत्ति होती है। अतएव वे ही सबके बीज या महान कारण हैं। इसी से गीता के सातवें अध्‍याय के दसवें श्‍लोक में उन्हें सब भूतों का ‘सनातन बीज’ और नवम अध्‍याय के अठारहवें श्‍लोक में ‘अविनाशी बीज’ बतलाया गया है। इसीलिये भगवान ने उसको यहाँ अपना स्वरूप बतलाया है।
  77. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि चर या अचर जितने भी प्राणी हैं, उन सबमें मैं व्याप्त हूं; कोई भी प्राणी मुझसे रहित नहीं हैं। अतएव समस्त प्राणियों को मेरा स्वरूप समझकर और मुझे उनमें व्याप्त समझकर जहाँ भी तुम्हारा मन जाय, वहीं तुम मेरा चिन्तन करते रहो। इस प्रकार अर्जुन के ‘आपको किन-किन भावों में चिन्तन करना चाहिये?’ (गीता 10:17) इस प्रश्‍न का भी इससे उत्तर हो जाता है।
  78. जिस किसी भी प्राणी या जड़वस्तु में उपर्युक्त ऐश्वर्य, शोभा, कान्ति, शक्ति, बल, तेज, पराक्रम या अन्य किसी प्रकार की शक्ति आदि सब-के-सब या इनमें से कोई एक भी प्रतीत होता हो, उस प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वस्तु को भगवान के तेज का अंश समझना ही उसको भगवान के तेज के अंश की अभिव्यक्ति समझना हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार बिजली की शक्ति से कहीं रोशनी हो रही हैं, कहीं पंखे चल रहे हैं, कहीं जल निकल रहा है, कही रेडियों में दूर-दूर के गाने सुनायी पड़ रहे हैं- इस प्रकार भिन्न-भिन्न अनेकों स्थानों में और भी बहुत कार्य हो रहे हैं; परंतु यह निश्चय है कि जहां-जहाँ ये कार्य होते हैं, वहां-वहाँ बिजली का ही प्रभाव कार्य कर रहा है, वस्तुत: वह बिजली के ही अंश की अभिव्यक्ति है। उसी प्रकार जिस प्राणी या वस्तु में जो भी किसी तरह की विशेषता दिखलायी पड़ती हैं, उसमें भगवान के ही तेज के अंश की अभिव्यक्ति समझनी चाहिये।
  79. इस कथन से भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे पूछने पर मैंने प्रधान-प्रधान विभूतियों का वर्णन तो कर दिया, किंतु इतना ही जानना यथेष्‍ट नहीं है। सार बात यह है जो मैं अब तुम्हें बतला रहा हुं, इसको तुम अच्छी प्रकार समझ लो; फिर सब कुछ अपने-आप ही समझ में आ जायगा, उसके बाद तुम्हारे लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा।
  80. मन, इन्द्रिय और शरीरसहित समस्त चराचर प्राणी तथा भोगसामग्री, भोगस्थान और समस्त लोकों के सहित यह ब्रह्माण्‍ड भगवान के किसी एक अंश में उन्हीं की योगशक्ति से धारण किया हुआ हैं, यही भाव दिखलाने के लिये भगवान ने इस जगत के सम्पूर्ण विस्तार को अपनी योगशक्ति के एक अंश से धारण किया हुआ बतलाया है।
  81. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 39-42

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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