- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 28वें अध्याय में 'विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
कृष्ण द्वारा अर्जुन से विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन करना
संबंध-पूर्णश्लोक यह बात कही गयी कि यज्ञ के लिये कर्म करने वाले पुरुष के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल अग्नि में हवि का हवन करना ही यज्ञ है और उसका सम्पादन करने के लिये की जाने वाली क्रिया ही यज्ञ के लिये कर्म करना है, इतनी ही बात नहीं है; इसी भाव को सुस्पष्ट करने के लिये अब भगवान सात श्लोक में भिन्न-भिन्न योगियों द्वारा किये जाने वाले परमात्मा की प्राप्ति के साधनरूप शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मों का विभिन्न यज्ञों के नाम से वर्णन करते हैं- जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देनारूप किया भी ब्रह्म है।[2] उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं[3] और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मरूप अग्नि में अभेददर्शनरूप यज्ञ के द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।[4] अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम- रूप अग्नियों में हवन किया करते है[5] और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रियरुप अग्नियों में हवन किया करते हैं।[6] दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयमयोगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं।[7] कई पुरुष द्रव्यसंबंधी यज्ञ करने वाले हैं,[8] कितने ही तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं[9] तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं[10] और कितने ही अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं।[11]दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं,[12] वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं[13] तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं[14] ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाला हैं।[15][1]
इस प्रकार यज्ञ करने वाले साधकों की प्रशंसा करके अब उन यज्ञों को करने से होने वाले लाभ ओर न करने से हानि वाली हानि दिखलाकर भगवान उपर्युक्त प्रकार से यज्ञ करने की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं- हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं[16] और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिये तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?[17] सम्बन्ध- सोलहवें श्लोक में भगवान् ने यह बात कही थी कि मैं तुम्हें वह कर्मतत्त्व बतलाऊंगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओंगे। उस प्रतिज्ञा के अनुसार अठारहवें श्लोक से यहाँ तक उस कर्मतत्त्व का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हैं- इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान;[18] इस प्रकार तत्त्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो जायगा। सम्बन्ध- यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञों में से कौन-सा यज्ञ श्रेष्ठ हैं। इस पर भगवान कहते हैं- हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ हैं[19] तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं[20] उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने-से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को नि:शेषभाव से पहले अपने में[21] और पीछे मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा में देखेगा।[22][23]
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा नि:संदेह सम्पूर्ण पापसमुद्र से भलीभाँति तर जायगा।[24] क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।[25] इस संसार में ज्ञान के सामन पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है।[26] जितेन्द्रीय, साधनपरायण और श्रद्धावान[27] मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता हैं। विवेकहीन ओर श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता हैं।[28] ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।[29] किंतु हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है[30] और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है,[31] ऐसे वश में किये हुए अन्त:करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते।[32] इसलिये हे भरतवंशी! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके[33] समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिये खड़ा हो जा।[34]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 19-30
- ↑ इस यज्ञ में स्त्रुवा, हवि, हवन करने वाला और हवनरूप क्रियाएं आदि भिन्न-भिन्न वस्तुएं नहीं होती; ऐसा यज्ञ करने वाले योगी की दृष्टि में सब कुछ ब्रह्म ही होता है; क्योंकि वह जिन मन, बुद्धि आदि के द्वारा समस्त जगत को ब्रह्म समझने का अभ्यास करता है, उनको, अपने को, इस अभ्यासरूप क्रिया को या अन्य किसी भी वस्तु को ब्रह्म से भिन्न नहीं समझता, सबको ब्रह्मरूप ही देखता है; इसलिये उसकी उनमें किसी प्रकार की भी भेदबु्द्धि नहीं रहती।
- ↑ ब्रह्मा, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, वरुणादि जो शास्त्रसम्मत देव है- उनके लिये हवन करना, उनकी पूजा करना, उनके मन्त्र का जप करना, उनके निमित्त दान देना और ब्राह्मण-भोजन करवाना आदि समस्त कर्मों का अपना कर्तव्य समझकर बिना ममता, आसक्ति और फलेच्छा के केवल परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शास्त्रविधि के अनुसार पूर्णतया अनुष्ठान करना ही देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्ठान करना है।
- ↑ अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण शरीर की उपाधि से आत्मा ओर परमात्मा का भेद अनादिकाल से प्रतीत हो रहा है; इस अज्ञानजनित भेद-प्रतीति को ज्ञान के अभ्यास द्वारा मिटा देना अर्थात शास्त्र और आचार्य के उपदेश से सुने हुए तत्त्वज्ञान का निरंतर मनन और निदिध्यासन करते-करते नित्य विज्ञानानंदघन गुणातीत परब्रह्म परमात्मा में अभेदभाव से आत्मा को एक कर देना- विलीन कर देना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करना है।
- ↑ श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिहृा और नासिक को वश में करके प्रत्याहार करना- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि बाहर-भीतर के विषयों से विवेकपूर्वक उन्हें हटाकर उपरत होना ही श्रोत्र आदि इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करना है। इसका सुस्पष्टभाव गीता के दूसरे अध्याय के अठावनवें श्लोक में कछुए के दृष्टांत से बतलाया गया है।
- ↑ कानों के द्वारा निंदा और स्तुति को या अन्य किसी प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल शब्दों को सुनते हुए, नेत्रों के द्वारा अच्छे-बुरे दृष्यों को देखते हुए, जिह्वा के द्वारा अनुकूल और प्रतिकूल रस को ग्रहण करते हुए- इसी प्रकार अन्य समस्त इन्द्रियों द्वारा भी प्रारब्ध के अनुसार योग्यता से प्राप्त समस्त विषयों का अनासक्तभाव से सेवन करते हुए अंतकरण में समभाव रखना, भेदबुद्धिजनित राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि विकारों का न होने देना-अर्थात उन विषयों में जो मन और इन्द्रियों को विक्षिप्त (विचलित) करने की शक्ति है, उसका नाश करके उनको इन्द्रियों में विलिन करते रहना- यही शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूप अग्निरूप में हवन करना है।
- ↑ इस प्रकार के ध्यानयोग में जो मनोनिग्रहपूर्वक इन्द्रियों की देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, आस्वादन करना एवं ग्रहण करना, त्याग करना, बोलना और चलना फिरना आदि तथा प्राणों की श्वास प्रश्वास और हिलना डुलना आदि समस्त क्रियाओं को विलीन करके समाधिस्थ हो जाना है यही आत्म-संयम योग रूप अग्नि में इन्द्रियों की और प्राणों की समस्त क्रियाओं का हवन करना है।
- ↑ अपने-अपने वर्णधर्म के अनुसार न्याय से प्राप्त द्रव्य को ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके यथायोग्य लोकसेवा में लगाना अर्थात उपर्युक्त भाव से बावली, कुएं, तालाब, मंदिर, धर्मशाला आदि बनवाना; भूखे, अनाथ, रोगी, दुखी, असमर्थ, भिक्षु आदि मनुष्यों की यथावश्यक अन्न, वस्त्र, जल, औषध, पुस्तक आदि वस्तुओं द्वारा सेवा करना; विद्वान तपस्वी वेदपाठी सदाचारी ब्राह्मणों को गौ, भूमि, वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थों का यथायोग्य अपनी शक्ति के अनुसार दान करना- इसी तरह अन्य सब प्राणियों को सुख पहुँचाने के उद्देश्य से यथाशक्ति द्रव्य का व्यय करना ‘द्रव्ययज्ञ’ हैं
- ↑ परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से अन्त:करण और इन्द्रियों को पवित्र करने के लिये ममता, आसक्ति ओर फलेच्छा के त्यागपूर्वक व्रत-उपवासादि करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना करना; मौन धारण करना; अग्नि और सूर्य के तेज को तथा वायु को सहन करना; एक वस्त्र या दो वस्त्रों से अधिक का त्याग कर देना; अन्न का त्याग कर देना, केवल फल या दूध खाकर ही शरीर का निर्वाह करना; वनवास करना आदि जो शास्त्रविधि के अनुसार तितिक्षासम्बन्धी क्रियाएं हैं- उन सबका वाचक यहाँ ‘तपोयज्ञ’ हैं।
- ↑ यहाँ योगरूप यज्ञ से यह भाव समझना चाहिये कि बहुत-से साधक परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से आसक्ति, फलेच्छा ओर ममता का त्याग करके अष्टांगयोगरूप यज्ञ का ही अनुष्ठान किया करते हैं। यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- ये योग के आठ अंग हैं। किसी भी प्राणी को किसी प्रकार किंचिन्मात्र कभी कष्ट न देना (अहिंसा); हित की भावना से कपटरहित प्रिय शब्दों में यथार्थभाषण (सत्य); किसी प्रकार से भी किसी के स्वत्व- हक को न चुराना ओर न छीनना (अस्तेय); मन, वाणी और शरीर से सम्पूर्ण अवस्थाओं में सदा सर्वदा सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना (ब्रह्मचर्य); और शरीरनिर्वाह के अतिरिक्त भोग्य सामग्री का कभी संग्रह न करना (अपरिग्रह)- इन पांचों का नाम ‘यम’ है। सब प्रकार से बाहर और भीतर की पवित्रता रखना (शौच); प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्ट रहना (संतोष); एकादशी आदि व्रत-उपवास करना (तप); कल्याणप्रद शास्त्रों का अध्ययन तथा ईश्वर के नाम और गुणों का कीर्तन करना (स्वाध्याय); सर्वस्व ईश्वर के अर्पण करके उनकी आज्ञा का पालन करना (ईश्वरप्रणिधान)- इन पांचों का नाम ‘नियम’ है। सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम ‘आसन’ हैं। आसन अनेकों प्रकार के हैं। उनमें से आत्मसंयम चाहने वाले पुरुष के लिये सिद्धासन, पद्मासन और स्वस्तिकासन- ये तीन बहुत उपयोगी माने गये है। इनमें से कोई-सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्य रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी के मध्यभाग में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखें मूंदकर भी बैठ सकते है। जो पुरुष जिस आसन से सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, उसके लिये वही आसन उत्तम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतर की वायु का बाहर निकलना प्रश्वास हैं; इन दोनों को रोकने का नाम ‘प्राणायाम’ है। देश, काल और संख्या (मात्रा) के सम्बन्ध से बाह्य, आभ्यन्तर और स्तम्भवृत्ति वाले- ये तीनों प्राणायाम दीर्घ ओर सूक्ष्म होते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध जो इन्द्रियों के बाहरी विषय हैं और संकल्प विकल्पादि जो अन्त:करण के विषय हैं, उनके त्याग से- उनकी उपेक्षा करने पर अर्थात विषयों का चिन्तन न करने पर प्राणों की गति का जो स्वत: ही अवरोध होता है, उसका नाम चतुर्थ ‘प्रणायाम’ हैं। अपने-अपने विषयों के संयोग से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के से रूप में अवस्थित हो जाना ‘प्रत्याहार’ है। जाना ‘प्रत्याहार’ है। स्थूल-सूक्ष्म या बाह्य आभ्यन्तर- किसी एक ध्येय स्थान में चित्त को बांध देना, स्थिर कर देना या लगा देना ‘धारणा’ कहलाता है। चित्तवृत्ति का गंगा के प्रवाह की भाँति या तैलधारावत अविच्छिन्नरूप से ध्येय वस्तु में ही लगा रहना ‘ध्यान’ कहलाता है। ध्यान करते-करते जब योगी का चित्त ध्येयाकार को प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येय में तन्मय सा बन जाता है, ध्येय से भिन्न अपने-आपको भी ज्ञान उसे नहीं सा रह जाता है, उस स्थिति का नाम ‘समाधि’ है।
- ↑ जिन शास्त्रों में भगवान के तत्त्व का, उनके गुण, प्रभाव और चरित्रों का तथा उनके साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण स्वरूप का वर्णन है- ऐसे शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान की स्तुति का पाठ करना, उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना तथा वेद और वेदांगों का अध्ययन करना ‘स्वाध्याय’ हैं। ऐसा स्वाध्याय अर्थज्ञान के सहित होने से तथा ममता, आसक्ति और फलेच्छा के अभावपूर्वक किये जाने से ‘स्वाध्यायज्ञानयज्ञ’ कहलाता है। इस पद में स्वाध्याय के साथ ‘ज्ञान’ शब्द का समास करके यह भाव दिखलाया है कि स्वाध्यायरूप कर्म भी ज्ञानयज्ञ ही है, इसलिये गीता के अध्ययन को भी भगवान ने ‘ज्ञानयज्ञ’ नाम दिया है (गीता 18:70)।
- ↑ उपर्युक्त प्राणायामरूप यज्ञ में अग्निस्थानीय अपानवायु है और हवि:स्थानीय प्राणवायु है। अतएव यह समझना चाहिये कि जिसे पूरक प्राणायाम कहते हैं, वही यहाँ अपानवायु में प्राणवायु का हवन करना है; क्योंकि जब साधक पूरक प्राणायाम करता है तो बाहर की वायु को नासिका द्वारा शरीर में ले जाता है, तब वह बाहर की वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि में से होती हुई अपान में विलीन हो जाती हैं। इस साधन में बार-बार बाहर की वायु को भीतर ले जाकर वहीं रोका जाता है, इसलिये इसे आभ्यन्तर कुम्भक भी कहते हैं।
- ↑ इस दूसरे प्राणायामरूप यज्ञ में अग्निस्थानीय प्राणवायु है और हवि:स्थानीय अपानवायु हैं। अत: समझना चाहिये कि जिसे रेचक प्राणायाम कहते हैं, वही यहाँ पर प्राणवायु में अपानवायु का हवन करना है; क्योंकि जब साधक रेचक प्राणायाम करता है तो वह भीतर की वायु को नासिका द्वारा शरीर से बाहर निकालकर रोकता है; उस समय पहले हृदय में स्थित प्राणवायु बाहर आकर स्थित हो जाती है, पीछे से अपानवायु आकर उसमें विलीन होती है। इस साधन में बार-बार भीतर की वायु को बाहर निकालकर वहीं रोका जाता है, इस कारण से इसे बाह्य कुम्भक भी कहते हैं।
- ↑ जिस प्राणायाम में प्राण और अपान- इन दोनों की गति रोक दी जाती हैं अर्थात न तो पूरक प्राणायाम किया जाता है और न रेचक, किंतु श्वास और प्रश्वास को बंद करके प्राण-अपान आदि समस्त वायुभेदों को अपने-अपने स्थानों में ही रोक दिया जाता हैं- वहीं यहाँ प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों का प्राणों में हवन करता हैं। इस साधन में न तो बाहर की वायु को भीतर ले जाकर रोका जाता है और न भीतर की वायु को बाहर लाकर; बल्कि अपने-अपने स्थानों में स्थित पञ्चवायु भेदों को वहीं रोक दिया जाता है। इसलिये इसे ‘केवल कुम्भक’ कहते हैं।
- ↑ इस अध्याय में चौबीसवें श्लोक से लेकर यहाँ तक जिन यज्ञ करने वाले साधक पुरुषों का वर्णन हुआ है, वे सभी ममता, आसक्ति और फलेच्छा से रहित होकर उपर्युक्त यज्ञरूप साधनों का अनुष्ठान करके उनके द्वारा पूर्वसचित कर्मसंस्काररूप समस्त शुभाशुभ कर्मों का नाश कर देने वाले हैं; इसलिये वे यज्ञ के तत्त्व को जानने वाले हैं।
- ↑ यहाँ भगवान ने उपर्युक्त यज्ञ के रूपक में परमात्मा की प्राप्ति के ज्ञान, संयम, तप, योग, स्वाध्याय, प्राणायाम आदि ऐसे साधनों का भी वर्णन किया है, जिनमें अन्न का सम्बन्ध नहीं है। इसलिये यहाँ उपर्युक्त साधनों का अनुष्ठान करने से साधकों का अन्त:करण शुद्ध होकर उसमें जो प्रसादरूप प्रसन्नता की उपलब्धि होती हैं (गीता 2।64-65; 18।36-37), वही यज्ञ से बचा हुआ अमृत है; क्योंकि वह अमृतस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति में हेतु है तथा उस विशुद्ध भाव से उत्पन्न सुख में नित्यतृप्त रहना ही यहाँ उस अमृत का अनुभव करना है।
- ↑ जो मनुष्य उपर्युक्त यज्ञों में से या इनके सिवा जो और भी अनेक प्रकार के साधनरूप यज्ञ शास्त्रों में वर्णित हैं, उनमें से कोई सा भी यज्ञ- किसी प्रकार भी नहीं करता, उसको यह लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक तो कैसे सुखदायक हो सकता है- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त साधनों का अधिकार पाकर भी उनमें न लगने के कारण उसको मुक्ति तो मिलती ही नहीं, स्वर्ग भी नहीं मिलता और मुक्ति के द्वाररूप इस मनुष्य शरीर में भी कभी शान्ति नहीं मिलती।
- ↑ यहाँ जिन साधनरूप यज्ञों का वर्णन किया गया है एवं इनके सिवा और भी जितने कर्तव्यकर्मरूप यज्ञ शास्त्रों में बतलाये गये हें, वे सब मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा ही होते हैं। उनमें से किसी का सम्बन्ध केवल मन से है, किसी का मन और इन्द्रियों से एवं किसी-किसी का मन, इन्द्रिय और शरीर- इन सबसे है। ऐसा कोई भी यज्ञ नहीं है, जिसका इन तीनों में से किसी के साथ सम्बन्ध न हो। इसलिये साधक को चाहिये कि जिस साधन में शरीर, इन्द्रिय और प्राणों की क्रिया का या संकल्प-विकल्प आदि मन की क्रिया का त्याग किया जाता है, उस त्यागरूप साधन को भी कर्म ही समझे और उसे भी फल-कामना, आसक्ति तथा ममता से रहित होकर ही करे; नहीं तो वह भी बन्धन का हेतु बन सकता हैं।
- ↑ जिस यज्ञ में द्रव्य की अर्थात सांसारिक वस्तु की प्रधानता हो, उसे द्रव्यमय यज्ञ कहते हैं। अत: अग्नि में घृत, चीनी, दही, दूध, तिल, जौ, चावल, मेवा, चन्दन, कपूर, धूप और सुगन्धयुक्त औषधियां आदि हवि का विधिपूर्वक हवन करना; दान देना; परोपकार के लिये कुंआ, बावली, तालाब, धर्मशाला आदि बनवाना; बलि-वैश्वदेव करना आदि जितने सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाले शास्त्रविहित शुभकर्म हैं- वे सब द्रव्यमय यज्ञ के अन्तर्गत हैं तथा जो विवेक, विचार ओर आध्यात्मिक ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले साधन हैं, वे सब ज्ञानयज्ञ के अन्तर्गत हैं।
- ↑ उपर्युक्त प्रकरण में जितने प्रकार के साधनरूप कर्म बतलाये गये हैं तथा इनके सिवा ओर भी जितने शुभ कर्म-रूप यज्ञ वेद-शास्त्रों में वर्णित हैं (गीता 4:32), वे सब कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं, इस कथन से भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि समस्त साधनों का बडे़-से-बडे़ फल परमात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करा देना है।
- ↑ महापुरुषों से परमात्मा के तत्त्वज्ञान का उपदेश पाकर आत्म को सर्वव्याप, अनंतस्वरूप समझना तथा समस्त प्राणियों में भेदबुद्धि का अभाव होकर सर्वत्र आत्म्भाव हो जाना-अर्थात जैसे स्वप्न से जागा हुआ मनुष्य स्वप्न के जगत को अपने अंतर्गत स्मृतिमात्र देखता है, वास्तव में अपने से भिन्न अन्य किसी की सत्ता नहीं देखता, उसी प्रकार समस्त जगत को अपने से अभिन्न और अपने अंतर्गत समझना सम्पूर्ण भूतों को वि:शेषता से आत्मा के अंतर्गत देखना है। (गीता 6:29)
- ↑ सम्पूर्ण भूतों को सच्चिदानंदघन परमात्मा में देखना पूर्वोक्त आत्मदर्शनरूप स्थिति का फल है; इसी को परमपद की प्राप्ति, निर्वाह-ब्रह्म की प्राप्ति और परमात्मा में प्रविष्ट हो जाना भी कहते हैं।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 31-35
- ↑ यहाँ भगवान ने अर्जुन को यह बतलाया है कि तुम वास्तव में पापी नहीं हो, तुम तो दैवी-सम्पाद के लक्षणें से युक्त (गीता 16:5) तथा मेरे प्रिय भक्त और सखा हो (गीता 4:3); तुम्हारे अंदर पाप कैसे रह सकते हैं। परंतु इस ज्ञान का इतना प्रभाव और माहात्म्य है कि यदि तुम अधिक-से-अधिक पापकर्मी होओ तो भी तुम इस ज्ञानरूप नोकों के द्वारा उन समुद्र के समान अथाह पापों से भी अनायास तर सकते हो। बडे़-से-बडे़ पाप भी तुम्हें अटका नहीं सकते।
- ↑ इस जन्म और जन्मान्तर में किये हुए समस्त कर्म संस्काररूप से मनुष्य के अंत:करण में एकत्रित रहते हैं, उनका नाम ‘सञ्चित’ कर्म है। उनमें से जो वर्तमान जन्म में फल देने के लिये प्रस्तुत हो जाते हैं, उनका नाम ‘प्रारब्ध’ कर्म है और वर्तमान समय में किये जाने वाले कर्मों को ’क्रियमाण’ कहते है। उपर्युक्त तत्त्वज्ञान रूप अग्नि के प्रकट होते ही समस्त पूर्वसञ्चित संस्कारों का अभाव हो जाता है। मन, बुद्धि और शरीर से आत्मा को अंग समझ लेने के कारण उन मन इन्द्रिय और शरीरादि के साथ प्रारब्ध भोगों का संबंध होते हुए भी उन भोगों के कारण उसके अंत:करण में हर्ष-शोक आदि विकार नहीं हो सकते। इस कारण वे भी उसके लिये नष्ट हो जाते हैं और क्रियमाण कर्मों में उसका कर्तृत्वभिमान तथा ममता, आसक्ति और वासना न रहने के कारण उनके संस्कार नहीं बनते; इसलिये वे कर्म वास्तव में कर्म ही नहीं हैं। इस प्रकार उसके समस्त कर्मों का नाश हो जाता है।
- ↑ कितने ही काल तक कर्मयोग का आचरण करते-करते राग-द्वेष के नष्ट हो जाने से जिसका अंत:करण स्वच्छ हो गया है, जो कर्मयोग में भलीभाँति सिद्ध हो गया है; जिसके समस्त कर्म ममता, आसक्ति और फलेच्छा के बिना भगवान की आज्ञा के अनुसार भगवान के ही लिये होते हैं- उस योग संसिद्ध पुरुष के अंत:करण में परमेश्वर के अनुग्रह से अपने आप उस ज्ञान का प्रकाश हो जाता है।
- ↑ वेद, शास्त्र, ईश्वर और महापुरुषों के वचनों में तथा परलोक में जो प्रत्यक्ष की भाँति विश्वास है एवं उन सबमें परम पूज्यता और उत्तमता की भावना हैं- उसका नाम श्रद्धा है और ऐसी श्रद्धा जिसमें हो, उसको ‘श्रद्धावान’ कहते हैं। जब तक इन्द्रिय और मन अपने काबू में न आ जायं, तब तक श्रद्धापूर्वक कटिबद्ध होकर उत्तरोत्तर तीव्र अभ्यास करते रहना चाहिये; क्योंकि श्रद्धापूर्वक तीव्र अभ्यास की कसौटी इन्द्रियसंयम ही है, जितना ही श्रद्धापूर्ण तीव्र अभ्यास किया जाता है, उत्तरोत्तर उतना ही इन्द्रियों का संयम होता जाता है। अतएव इन्द्रिय-संयम की जितनी कमी हैं, उतनी ही साधन में कमी समझनी चाहिये और साधन में जितनी कमी हैं, उतनी ही श्रद्धा में त्रुटि समझनी चाहिये।
- ↑ वेद-शास्त्र और महापुरुषों के वचनों को तथा उनके बतलाये हुए साधनों को ठीक-ठीक न समझ सकने के कारण तथा जो कुछ समझ में आवें उस पर भी विश्वास न होने के कारण जिसको हरेक विषय में संशय होता रहता है, जो किसी प्रकार भी अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर पाता, हर हालत में संशययुक्त रहता है, वह मनुष्य अपने मनुष्य-जीवन को व्यर्थ ही खो बैठता हैं। जिसमें स्वयं विवेचन करने की शक्ति नहीं हैं, ऐसा अज्ञ मनुष्य भी यदि श्रद्धालु हो तो श्रद्धा के कारण महापुरुषों के कथनानुसार संशयरहित होकर साधानपरायण हो सकता है और उनकी कृपा से उसका भी कल्याण हो सकता है (गीता 13:25); परंतु जिस संशययुक्त पुरुष में न विवेकशक्ति है और न श्रद्धा ही है, उसके संशय के नाश का कोई उपाय नहीं रह जाता; इसलिये जब तक उसमें श्रद्धा या विवेक नहीं आ जाता, उसका अवश्य पतन हो जाता है।
- ↑ संशययुक्त मनुष्य केवल परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है इतनी ही बात नहीं है, जब तक मनुष्य में संशय विद्यमान रहता है, वह उसका नाश नहीं कर लेता, तब तक वह न तो इस लोक में यानी मनुष्य शरीर में रहते हुए धन, ऐश्वर्य या यश की प्राप्ति कर सकता है, न परलोक में यानी मरने के बाद स्वर्गादि की प्राप्ति कर सकता है और न किसी प्रकार के सांसारिक सुखों को ही भोग सकता है।
- ↑ यहाँ ‘योगसंन्यस्त कर्माणम्’ का अर्थ स्वरूप से कर्मों का त्याग कर देने वाला न मानकर कर्मयोग के द्वारा समस्त कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके उन सबको परमात्मा में अर्पण कर देने वाला त्यागी (गीता 3:30; 5:10) मानना ही उचित है।
- ↑ ईश्वर है या नहीं, है तो कैसा है, परलोक है या नहीं, यदि है तो कैसे है और कहाँ हैं, शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि- ये सब आत्मा हैं या आत्मा से भिन्न हैं, जड़ हैं या चेतन, व्यापक हैं या एकदेशीय, कर्ता-भोक्ता जीवात्मा हैं या प्रकृति, आत्मा एक है या अनेक, यदि वह एक है तो कैसे है ओर अनेक है तो कैसे, जीव स्वतन्त्र है या परतन्त्र, यदि परतंत्र है तो कैसे है और किसके परतंत्र है, कर्मं-बंधन से छूटने के लिये कर्मों को स्वरूप से छोड़ देना ठीक है या कर्मयोग-के अनुसार उनका करना ठीक है, अथवा सांख्ययोग के अनुसार साधन करना ठीक है- इत्यादि जो अनेक प्रकार की शंकाएं तर्कशील मनुष्यों के अंत:करण में उठा करती हैं, इन समस्त शंकाओं का विवेकज्ञान के द्वारा विवेचन करके एक निश्चय कर लेना अर्थात किसी भी विषय में संशययुक्त न रहना और अपने कर्तव्य को निर्धारित कर लेना, यही विवेकज्ञान द्वारा समस्त संशयों का नाश कर देना है।
- ↑ जिसके मन और इन्द्रिय वश में किये हुए हैं- अपने काबू में है, उस पुरुष के शास्त्रविहित कर्म ममता, आसक्ति और कामना से सर्वथा रहित होते हैं; इस कारण उन कर्मों में बंधन करने की शक्ति नहीं रहती।
- ↑ संशय का कारण अविवेक है। अत: विवेक द्वारा अविवेक का नाश होते ही उसके साथ-साथ संशय का भी नाश हो जाता है। इसका स्थान हृदय यानी अंत:करण है; अत: जिसका अंत:करण अपने वश में है, उसके लिये इसका नाश करना सहज है। अर्जुन के अंत:करण में संशय विद्यमान था, उनकी विवेक शक्ति मोह के कारण कुछ दबी हुई थी; इसी से वे अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते थे और स्वधर्मरूप युद्ध का त्याग करने के लिये तैयार हो गये थे। इसलिये भगवान यहाँ उन्हें उनके हृदय में स्थित संशय का विवेक द्वारा छेदन करने के लिये कहते हैं।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 28 श्लोक 36-42
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| रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन
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भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन
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श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना
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| संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना
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| कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन
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| अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना
| भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना
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| युधिष्ठिर की रणयात्रा
| अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति
| अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति
| सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
| कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन
| स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद
| कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन
| कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन
| कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन
| कामनिरोध के उपाय का वर्णन
| निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन
| विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन
| सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन
| निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा
| ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन
| ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन
| कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन
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| ओम, तत् और सत् के प्रयोग की व्याख्या
| त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन
| भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन
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| उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन
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| गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना
| कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध
| भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध
| शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम
| विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम
| भीष्म द्वारा श्वेत का वध
| भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति
| युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन
| धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना
| कौरव सेना की व्यूह रचना
| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
| भीष्म और अर्जुन का युद्ध
| धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध
| भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध
| भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
| कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति
| धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना
| भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन
| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
| कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण
| भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध
| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
| कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध
| कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध
| अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण
| धृतराष्ट्र की चिन्ता
| भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध
| भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति
| भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन
| कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
| श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़
| द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध
| शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय
| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
| इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय
| भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय
| मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय
| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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