कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा

संजय नवें दिन के युद्ध की समाप्ति के पश्चात् पांडवों और कृष्ण की गुप्त मंत्रणा के विषय में बताते हैं, जिसका वर्णन महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 107वें अध्याय में दिया गया है, जो इस प्रकार हैं[1]-

पांडवों की गुप्त मंत्रणा

संजय कहते हैं- महाराज! सम्पूर्ण भूतों को मोहमयी निद्रा में डालने वाली रात्री आ गयी उस भंयकर रात्री के आरम्भ काल में वृष्णिवंशियों सहित दुर्धर्ष सृंजय और पाण्डव गुप्त मन्त्रणा के लिए एक साथ बैठे। उस समय वे समस्त महाबली वीर समयानुसार अपनी भलाई के प्रश्न पर स्वस्थचित्त से विचार करने लगे। वे सभी लोग मन्त्रणा कर के किसी निश्चय पर पहुँच जाने में कुशल थे। उनमें यह विचार होने लगा कि हम भीष्म को कैसे मार सकेंगे और किस प्रकार इस पृथ्वी पर विजय प्राप्त करेंगे। नरेश्वर! उस समय राजा युधिष्ठिर ने दीर्घकाल तक गुप्त मन्त्रणा करने के पश्चात् वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखकर यह बात कही- श्रीकृष्ण! देखिए, भयंकर पराक्रमी महात्मा भीष्म हमारी सेना का उसी प्रकार विनाश कर रहे है, जैसे हाथी सरकंडों के जंगलों को रौंद डालते हैं। माधव! इनके द्वारा जब हमारी सेनाएँ मारी जा रही हैं, उस अवस्था में इन दुर्घर्ष वीर भीष्म के साथ हम लोग कैसे युद्ध करगे। यहाँ जिस प्रकार हमारा भला हो, वह उपाय कीजिए। माधव! आप ही हमारे आश्रय हैं। हम दूसरे किसी का सहारा नहीं लेते। हमें भीष्म जी के साथ युद्ध करना अच्छा नहीं लगता हैं। इधर महावीर भीष्म युद्ध स्थल में हमारी सेना का संहार करते चले जा रहे हैं। ये प्रज्वलित अग्नि समान बाणों की लपटों से हमारी सेना में सबको चाटते (भस्म करते) जा रहे हैं, हम लोग इन महात्मा की ओर देख भी नहीं पा रहे हैं। जैसे महानाग तक्षक अपने प्रचण्ड विष के कारण भयंकर प्रतीत होता है, उसी प्रकार क्रोध में भरे हुए प्रतापी भीष्म युद्धस्थल में जब हाथ में धनुष लेकर पैने बाणों की वर्षा करने लगते है, उस समय अपने तीखे अस्त्र-शस्त्रों के कारण बड़े भयानक जान पड़ता है।[1]

समरभूमि में क्रोध में भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, पाशधारी वरुण अथवा गदाधारी कुबेर को भी जीता जा सकता है; परंतु इस महासमर में कुपित भीष्म को पराजित करना असम्भव है। श्रीकृष्ण! ऐसी स्थिति में मैं अपनी बुद्धि की दुर्बलता के कारण युद्धस्थल में भीष्म को सामने देखकर शोक के समुद्र में डूबा जा रहा हूँ। दुर्धर्ष वीर श्रीकृष्ण! अब मैं वन को चला जाऊँगा। मेरे लिये वन में जाना ही कल्याणकारी होगा। मुझे युद्ध अच्छा नहीं लग रहा है; क्योंकि उसमें भीष्म सदा ही हमारे सैनिकों का विनाश करते आ रहे हैं। जैसे पतंग प्रज्वलित आग की ओर दौड़ा जाकर एक मात्र मृत्यु को ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार हमने भी भीष्म पर आक्रमण करके मृत्यु का ही वरण किया है। वार्ष्णेय! राज्य के लिये पराक्रम करके मैं क्षीण होता जा रहा हूँ। मेरे शूरवीर भाई बाणों की मार से अत्यन्त पीड़ित हो रहे है। मधुसूदन! मेरे लिये भ्रातृस्नेहवश ये भाई राज्य से वचिंत हुए और वन में भी गये। मेरे ही कारण कृष्णा को भरी सभा में अपमान का कष्ट भोगना पड़ा। इस समय मैं जीवन को ही बहुत मानता हूँ। आज तो जीवन भी दुर्लभ हो रहा है। अब से जीवन जितने दिन शेष हैं, उनके द्वारा मैं उत्तम धर्म का आचरण करूँगा। केशव! यदि भाईयों सहित मुझ पर आपका अनुग्रह है तो मुझे स्वधर्म के अनुकूल कोई हितकारक सलाह दीजिए।

करुणा से प्रेरित होकर कहे हुए युधिष्ठिर ये विस्तृत वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सान्त्वना देते हुए कहा। धर्म पुत्र! सत्यप्रतिज्ञ कुन्तीकुमार! विषाद न किजिए, आपके भाई बड़े ही शुरवीर, दुर्जय तथा शत्रुओं का सहांर करने समर्थ है। अर्जुन और भीमसेन वायु तथा अग्नि के समान तेजस्वी हैं। माद्रीकुमार नकुल और सहदेव भी पराक्रम में दो इन्द्रों के समान हैं। पाण्डुनन्दन! महाराज! आप सौहार्दवश मुझे भी आज्ञा दीजिए। मैं भीष्म के साथ यु़द्ध करूँगा। भला आपकी आज्ञा मिल जाने पर मैं इस महासमर में क्या नहीं कर सकता। यदि अर्जुन भीष्म को मारना नहीं चाहते हैं तो मैं युद्ध में पुरुषप्रवर भीष्म को ललकारकर धृतराष्ट्रपुत्रों के देखते-देखते मार डालूँगा। पाण्डुनन्दन! यदि भीष्म के मारे जाने पर ही आपको अपनी विजय दिखायी दे रही है तो मैं एकमात्र रथ की सहायता से आज कुरुकुल वृ़द्ध पितामाह भीष्म को मार डालूँगा। राजन! कल युद्ध में इन्द्र के समान मेरा पराक्रम देखियेगा। मैं बड़े-बड़े अस्त्रों का प्रहार करने वाले भीष्म को रथ से मार गिराऊँगा। जो पाण्डवों का शत्रु है, वह मेरा भी शत्रु है, इसमें संदेह नहीं है। जो आपके सुहृद् हैं, वे मेरे हैं और जो मेरे सुहृद् हैं, वे आपके ही हैं। राजन! आपके भाई अर्जुन मेरे सखा, सम्बन्धी और शिष्य हैं। मैं अर्जुन के लिये अपना मांस भी काटकर दे दूंगा। ये पुरुषसिंह अर्जुन भी मेरे लिये अपने प्राणों तक का परित्याग कर सकते हैं। तात! हम लोगों में यह प्रतिज्ञा हो चुकी है कि हम एक दूसरे को संकट से उबारेंगे। राजेन्द्र! आप मुझे युद्ध के काम में नियुक्त कीजिये। मैं आपका योद्धा बनूँगा। युद्ध के पहले उपप्लव्य नगर में सब लोगों के सामने अर्जुन जो यह प्रतिज्ञा की थी मैं गंगानन्दन भीष्म का वध करूँगा, बुद्धिमान पार्थ के उस वचन का पालन करना मेरे लिये आवश्यक है।[2] अर्जुन ने जिस बात के लिये प्रतिज्ञा की हो, उनकी पूर्ति करना मेरा कर्तव्य है, इसमें संशय नहीं है अथवा रणक्षेत्र में अर्जुन के लिये यह बहुत थोड़ा भार है। वे शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले भीष्म को युद्ध में अवश्य मार डालेंगे। कुन्तीपुत्र अर्जुन उद्यत हो जायें तो युद्ध में असम्भव को भी संभव कर सकते हैं। नरेश्वर! दैत्यों और दानवों सहित सम्पूर्ण देवताओं को भी अर्जुन युद्ध में मार सकते हैं; फिर भीष्म को मारना कौन बड़ी बात है। महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म तो हमारे विपरीत पक्ष का आश्रय लेने वाले और बलहीन हैं। इनके जीवन के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं, तथापि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं।[3]

युधिष्ठिर का भीष्म से उनके वध के विषय में पूछने की बात कहना

युधिष्ठिर ने कहा- महाबाहो! माधव! आप जैैसा कहते हैं, ठीक ऐसी ही बात है। ये समस्त कौरव आपका वेग धारण करने में समर्थ नहीं हैं। पुरुषसिंह! जिसके पक्ष में आप खड़े हैं, वह मैं यह सब अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण कर लूँगा। विजयी वीरों में श्रेष्ठ गोविन्द! आपको अपना रक्षक पाकर मैं युद्ध में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं को भी जीत सकता हूँ, फिर महारथी भीष्म पर विजय पाना कौन बड़ी बात है। माधव! परन्तु मैं अपनी गुरुत्ता का प्रभाव डालकर आपको असत्यवादी नहीं बना सकता। आप युद्ध किये बिना ही पूर्वोक्त सहायता करते रहिये। मेरी भीष्म जी के साथ एक शर्त हो चुकी है। उन्होंने कहा है कि ‘मैं युद्ध में तुम्हारे हित के लिये सलाह दे सकता हूँ, परन्तु तुम्हारी ओर से किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। युद्ध तो मैं केवल दुर्योधन के लिये ही करूँगा। प्रभो! यह बिल्कुल सच्ची बात हैं। अतः माधव! भीष्म जी मुझे राज्य और मन्त्र ( हितकर सलाह ) दोनोें देंगे। इसलिये मधुसूदन! हम सब लोग पुनः आपके साथ देवव्रत भीष्म केे पास उन्हीं से उनके वध का उपाय पूछने चलें। वृष्णिनन्दन! हम सब लोग शीघ्र ही एक साथ कुरुवंशी नरश्रेष्ठ भीष्म के पास चलें और उनसे सलाह लें। जनार्दन! पूछने पर वे हमें सत्य और हितकर बात बतायेंगे। श्रीकृष्ण! वे जैसा कहेंगे, युद्ध में वैसा ही करूँगा। दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले भीष्म जी हमारे लिये विजय और सलाह के भी दाता हो सकते हैं। बाल्यावस्था में जब हम पितृहीन हो गये थे, उस समय उन्होंने ही हमारा पालन पोषण किया था। माधव! यद्यपि वे हमारे पिता के भी पिता और प्रिय हैं, तो भी उन बूढ़े पितामह भीष्म को भी मैं मारना चाहता हूँ। क्षत्रिय की इस जीविका को धिक्कार है। संजय कहते है- महाराज! तब भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुनन्दन युधिष्ठिर से कहा- महामते राजेन्द्र! आपका कथन मुझे ठीक जान पड़ता है। देवव्रत भीष्म पुण्यात्मा पुरुष हैं। वे दृष्टिपात मात्र से सबको दग्ध कर सकते है; अतः गंगानन्दन भीष्म से उनके वध का उपाय पूछने के लिये आप अवश्य उनके पास चले। विशेषतः आपके पूछने पर वे अवश्य सच्ची बात बतायेंगे। अतः हम सब लोग मिलकर कुरुकुल के वृद्ध पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म से अभीष्ट प्रश्न पूछने के लिये साथ साथ वहाँ चले और भारत! चलकर उनसे हितकारक मन्त्रणा पूछें। वे आपको ऐसी मन्त्रणा देेंगे, जिससे हमलोग शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-15
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 107 श्लोक 16-36
  3. 3.0 3.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 107 श्लोक 37-55

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
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भूमि पर्व
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भीष्मवध पर्व
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का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ 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