- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 30वें अध्याय में 'ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
अर्जुन के प्रश्नो का कृष्ण द्वारा उत्तर देना
अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण उसे निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार की प्रेरणा के बारे में बताते हैं। अब अर्जुन कृष्ण से ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन करने को कहते हैं तो कृष्ण बताते हैं कि हे अर्जुन जो संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को नि:शेषरूप से त्याग कर[2] और मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभांति रोककर[3] क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो।[4] तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित कर के परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे।[5] सम्बन्ध- यदि किसी साधक का चित्त पूर्वाभ्यासवश बलात्कार से विषयों की ओर चला जाय तो उसे क्या करना चाहिये इस जिज्ञासा पर कहते हैं। यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे।[6] क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानंदध ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है।[7] वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक[8] पर ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनंत आनंद का[9] अनुभव करता है। संबंध-इस प्रकार अभेदभाव से साधन करने वाले सांख्ययोगी के ध्यान का और उसके फल का वर्णन करके अब इस साधक के व्यवहार काल की स्थिति का वर्णन करते हैं।[1]
सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मावाला[10] तथा सब में समभाव से देखने वाला[11] योगी आत्म को सम्पूर्ण भूतों में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता हैं।[12] संबंध-इस प्रकार सांख्ययोग का साधन करने वाले योगी-का और उसकी सर्वत्र समदर्शन रूप अंतिम स्थिति का वर्णन करने के बाद, अब भक्तियोग का साधन करने वाले योगी की अंतिम स्थिति का और उसके सर्वत्र भगवद्दर्शन का वर्णन करते हैं।[13] जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है[14] उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।[15] जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर[16] सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदधन वासुदेव को भजता है,[17] वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।[18] संबंध-इस प्रकार भक्तियोगद्वारा भगवान् को प्राप्त हुए पुरुष के महत्त्व का प्रतिपादन करके अब सांख्यायोगद्वारा परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के समदर्शन का और महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं- हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है[19] और सुख अथवा दु:ख को भी सब में सम देखता है,[20]वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।
अर्जुन बोले-हे मधुसुधन! जो यह योग[21] आपने समभाव से कहा है, मन के चञ्चल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ।[22] क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन स्वभाववाला,[23] बड़ा दृढ़[24] और बलवान्[25] है। इसलिये उसका वश में करना मैं वायु के रोकने की भाँति अत्यंत दुष्कर मानता हूं[26][13]
श्रीभगवान् बोले-हे महाबाहो! नि:संदेह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास[27] और वैराग्य से[28]वश में होता है। संबंध-यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि मन को वश में न किया जाय, तो क्या हानि है इस पर भगवान् कहते हैं- जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुषद्वारा योग दुष्प्राप्य है[29] और वश में किये हुए मन वाले[30] प्रयत्नशील पुरुष द्वारा[31] साधन से उसका प्राप्त होना सहज है-यह मेरा मत है। संबंध-योगसिद्धि के लिये मन को वश में करना परम आवश्यक बतलाया गया। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि जिसका मन वश में नहीं हैं, किंतु योग में श्रद्धा होने के कारण जो भगवत्प्राप्ति के लिये साधन करता है, उसकी मरने के बाद क्या गति होती है;इसी के लिये अर्जुन पूछते हैं।[32]
अर्जुन बोले-हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किंतु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अंतकाल में योग से विचलित हो गया है,[33] ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है?[34] हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जात?[35] हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्णरूप से छेदन करने के लिय आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना सम्भव नहीं है[36]
श्रीभगवान् बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है ओर न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिये अर्थात् भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्ति नहीं होता[37] योगभ्रष्ट पुरुष[38] पुण्यवानों के लोकों को अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है। संबंध-साधारण योगभ्रष्ट पुरुषों की गति बतलाकर अब आसक्तिहित उच्च श्रेणी के योगभ्रष्ट पुरुषों की विशेष गति का वर्णन करते हैं- अथवा[39] वैराग्यवान् पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेता है; परंतु इस प्रकार का जो यह जन्म है सो संसार में नि:संदेह अत्यंत दुर्लभ है[40] वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात् समबुद्धि रूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनंदन! उसके प्रभाव से भी बढ़कर प्रयत्न करता है। संबंध-अब पवित्र श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट पुरुष की परिस्थिति का वर्णन करते हुए योग को जानने की इच्छा का महत्त्व बतलाते हैं।[32] वह श्रीमान के घर में जन्म लेने वाला योग भ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निस्संहेद भगवान् की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धिरूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकामकर्मों के फल को उल्लङ्घन कर जाता है।[41] परंतु प्रयत्नपूर्वक अीयास करने वाला योगी[42] तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर[43] सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है। योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है ओर सकामकर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है,[44] इससे हे अर्जुन! तू योगी हो। संबंध-पूर्वश्लोक में योगी को सर्वश्रेष्ठ बतलाकर भगवान् ने अर्जुन को योगी बनने के लिये कहा; किंतु ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि साधनों में से अर्जुन को कौन-सा साधन करना चाहिेय? इस बात का स्पष्टीकरण नहीं किया। अत: अब भगवान् अपने में अनन्यप्रेम करने वाले भक्त योगी की प्रशंसा करते हुए अर्जुन को अपनी ओर आकर्षित करते हैं- सम्पूर्ण[45] योगियों में भी जो श्रद्धावान[46] योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा[47]से मुझको निरंतर भजता[48] है, वह योगी मुझे परम[49] श्रेष्ठ मान्य है।[50][51]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 22-28
- ↑ सम्पूर्ण कामनाओं के नि:शेषरूप से त्याग का अर्थ है- किसी भी भोग में किसी प्रकार से भी जरा भी वासना, आसक्ति, स्पृहा, इच्छा, लालसा, आशा या तृष्णा न रहने देना। बरतन में से घी निकाल लेने पर भी जैसे उसमें घी की चिकनाहट शेष रह जाती हैं, अथवा डिबिया में से कपूर, केसर या कस्तूरी निकाल लेने पर भी जैसे उसमें उसकी गन्ध रह जाती है, वेसे ही कामनाओं का त्याग कर देने पर भी उसका सूक्ष्म अंश शेष रह जाता हैं। उस शेष बचे हुए सूक्ष्म अंश का भी त्याग कर देना ‘कामना का नि:शेषत: त्याग’ है।
- ↑ ग्यारहवें से लेकर तेरहवें श्लोक के वर्णन के अनुसार ध्यानयोग के साधन के लिये आसन पर बैठकर योगी को यह चाहिये कि वह विवेक और वैराग्य की सहायता से मन के द्वारा समस्त इन्द्रियों को सम्पूर्ण बाह्य विषयों से सब प्रकार से सर्वथा हटा ले, किसी भी इन्द्रिय को किसी भी विषय में जरा भी न जाने देकर उन्हें सर्वथा अन्तर्मुखी बना दे। यही मन के द्वारा इन्द्रियसमुदाय का भलीभाँति रोकना हैं।
- ↑ जैसे छोटा बच्चा हाथ में कैंची या चाकू पकड़ लेता हैं तब माता समझा-बुझाकर और आवश्यक होने पर डांट-डपटकर भी धीरे-धीरे उसके हाथ से चाकू या कैंची छीन लेती हैं, वैसे ही विवेक और वैराग्य से युक्त बुद्धि के द्वारा मन को सांसारिक भोगों की अनित्यता और क्षणर्भगुरता समझाकर और भोगों में फंस जाने से प्राप्त होने वाले बन्धन और नरकादि यातनाओं का भय दिखलाकर उसे विषय-चिन्तन से सर्वथा रहित कर देना चाहिये। यही शनै:-शनै: उपरति को प्राप्त होना हैं।
- ↑ साधक जब ध्यान करने बैठे और अभ्यास के द्वारा जब उसका मन परमात्मा में स्थिर हो जाय, तब फिर ऐसा सावधान रहे कि जिसमें मन एक क्षण के लिये भी परमात्मा से हटकर दूसरे विषय में न जा सके। साधक की यह सजगता अभ्यास की दृढ़ता में बड़ी सहायक होती हैं। प्रतिदिन ध्यान करते-करते ज्यों-ज्यों अभ्यास बढे़ त्यों-ही-त्यों मन को और भी सावधानी के साथ कहीं न जाने देकर विशेषरूप से विशेष काल तक परमात्मा में स्थिर रखे। फिर मन में जिस किसी वस्तु की प्रतीती हो, उसको कल्पनामात्र जानकर तुरंत ही त्याग दे। इस प्रकार चित्त में स्फुरित वस्तुमात्र का त्याग करके क्रमश: शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि की सत्ता का भी त्याग कर दे। सबका अभाव करते-करते जब समस्त दृश्य पदार्थ चित्त से निकल जायंगे, तब सबके अभाव का निश्चय करने वाली एकमात्र वृत्ति रह जायगी। यह वृत्ति शुभ और शुद्ध है, परंतु दृढ़ धारणा के द्वारा इसका भी बाध करना चाहिये या समस्त दृश्य-प्रपञ्च का अभाव हो जाने के बाद यह अपने-आप ही शांत हो जायगी इसके बाद जो कुछ बच रहता है, वही अचिन्त्य तत्त्व है। वे केवल है और उपाधियों से रहित अकेला ही परिपूर्ण है। उसका न कोई वर्णन कर सकता है, न चिंतन। अतएव इस प्रकार दृश्य-प्रपञ्च और शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार का अभाव करके तथा अभाव करने वाली वृत्ति का भी अभाव करके अचिन्त्य-तत्त्व में स्थित हो जाना ही परमात्मा में मन को स्थित कर अचिन्त्य होना है।
- ↑ ध्यान के समय साधक को ज्यों ही पता चले कि मन अन्यत्र विषयों में गया, त्यों ही बड़ी सावधानी और दृढ़ता के साथ उसे रोककर तुरंत परमात्मा में लगावे। यों बार-बार विषयों से हटा-हटाकर उसे परमात्मा में लगाने का अभ्यास करे।
- ↑ विवेक और वैराग्य के प्रभाव से विषय-चिंतन छोड़कर और चञ्चता तथा विक्षेप से रहित होकर जिसका चित्त सर्वथा स्थिर ओर सुप्रसन्न हो गया है, ऐसे योगी को 'प्रशांतमना:' कहते हैं। आसक्ति, स्पृहा, कामना, लोभ, तृष्णा और सकामकर्म-इन सबकी रजोगुण से ही उत्पत्ति होती है (गीता 14।7,12) और यही रजोगुण को बढ़ाते भी हैं। अतएव जो पुरुष इन सबसे रहित है, उसी का वाचक 'शांतरजसम्' पद है। मैं देह नहीं, सच्चिदानंदधन ब्रह्म हूं-इस प्रकार का अभ्यास करते-करते साधक की सच्चिदानंदधन परमात्मा में दृढ़ स्थिति हो जाती है। इस प्रकार अभिन्नभाव से ब्रह्म में स्थित पुरुष को 'ब्रह्मभूत' कहते हैं।
- ↑ जब साधक में देहाभिमान नहीं रहता, उसकी ब्रह्म के स्वरूप में अभेदरूप से स्थिति हो जाती है, तब उसको ब्रह्म की प्राप्ति सुखपूर्वक होती ही है।
- ↑ इसी अनंत आनंद को इस अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में 'आत्यन्तिक सुख' और गीता के पांचवे अध्याय के इक्कीसवें श्र्लोक में 'अक्षय सुख' बतलाया गया है।
- ↑ सच्चिदानंद, निर्गुण-निराकर ब्रह्म को जिसकी अभिन्नभाव से स्थिति हो गयी हैं, ऐसे ही ब्रह्म भूत योगी का वाचक यहाँ 'योगयुक्तात्मा' पद है। इसी का वर्णन गीता के पांचवे अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में 'ब्रह्मयोगयुक्तात्मा' के नाम से तथा पांचवे के चौबीसवें, छठे के सत्ताईसवें और अठारहवें के चौवनवें श्लोक में 'ब्रह्मभूत' के नाम से हुआ है।
- ↑ गीता के पांचवे अध्याय के अठारहवें और इसी अध्याय के बत्तीसवें श्लोकों में ज्ञानी महात्मा के समदर्शन का वर्णन आया है, उसी तरह से यह योगी सबके साथ शास्त्रानुकूल यथायोग्य सद्व्यवहार करता हुआ नित्य-निरंतर सभी में अपने स्वरूपभूत एक ही अखण्ड चेतन आत्मा को देखता है। यही उसका सबमें समभाव से देखना है।
- ↑ एक अद्वितीय सच्चिदानंदधन परब्रह्म परमात्मा ही सत्य तत्त्व हैं, उनसे भिन्न यह सम्पूर्ण जगत् कुछ भी नहीं है। इस रहस्य को भलीभाँति समझकर उनमें अभिन्नवाले से स्थित होकर जो स्वप्न के दृश्यवर्ग में स्वप्नद्रष्टा पुरुष की भाँति चराचर सम्पूर्ण प्राणियों में एक अद्वितीय आत्मा को ही अधिष्ठानरूप में परिपूर्ण देखना है अर्थात् 'एक अद्वितीय आत्मा ही इन सबके रूप में दीख रहा है, वास्तव में उनके सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।' इस बात को भलीभाँति अनुभव करना है, यही सम्पूर्ण भूतों में आत्मा को देखना है। इसी तरह जो समस्त चराचर प्राणियों को आत्मा में कल्पित देखना है, यानि जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य स्वप्न के जगत् को या नाना प्रकार की कल्पना करने वाला मनुष्य कल्पित दृश्यों को अपने ही संकल्प के आधार पर अपने में देखता है वैसे ही देखना, सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखना है। इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये भगवान् ने आत्मा के साथ 'सर्वभूतस्थम्' विशेषण देकर आत्मा को भूतों में स्थित देखने की बात कही, किंतु भूतों को आत्मा में स्थित देखने की बात न कहकर केवल देखने के लिये ही कहा।
- ↑ 13.0 13.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 29-34
- ↑ जैसे बादल में आकाश और आकाश में बादल है, वैसे ही सम्पूर्ण भूतों में भगवान् वासुदेव हैं और वासुदेव में सम्पूर्ण भूत हैं-इस प्रकार अनुभव करना सम्पूर्ण भूतों में वासुदेव को और वासुदेव में सम्पूर्ण भूतों को देखना है; क्योंकि सम्पूर्ण चराचर जगत् उन्हीं से उत्पन्न होता है, अतएव वे ही महाकारण हैं तथा जैसे बादलों का आधार आकाश है, आकाश के बिना बादल रहें ही कहां? एक बादल ही क्यों-वायु, तेज, जल आदि कोई भी भूत आकाश के आश्रय बिना नहीं ठहर सकता, वैसे ही इस सम्पूर्ण चराचर विश्व के एकमात्र परमाधार परमेश्र्वर ही हैं। (गीता 10।42) अतएव जिस प्रकार एक ही चतुर बहुरूपिया नाना प्रकार के वेष धारण करके आता है और जो उस बहुरूपिये से और उसकी बोलचाल आदि से परिचित है, वह सभी रूपों में उसे पहचान लेता है, वैसे ही समस्त जगत् में जितने भी रूप हैं, सब श्रीभगवान् के ही वेष है। इस प्रकार जो समस्त जगत् के सब प्राणियों में उनको पहचान लेते हैं, वे चाहे वेष-भेद के कारण बाहर से व्यवहार में भेद रक्खें, परंतु हृदय से तो उनकी पूजा ही करते हैं।
- ↑ अभिप्राय यह है कि सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्र्वर्य, औदार्य आदि के अनंत समुद्र, रसमय और आनंदमय भगवान् के देवदुर्लभ सच्चिदानंदस्वरूप के साक्षात् दर्शन हो जाने के बाद भक्त और भगवान् का संयोग सदा के लिये अविच्छिन्न हो जाता है।
- ↑ सर्वदा और सर्वत्र अपने एकमात्र इष्टदेव भगवान् का ध्यान करते-करते साधक अपनी भिन्न स्थिति को सर्वथा भूलकर इतना तन्मय हेा जाता है कि फिर उसके ज्ञान में एक भगवान् के सिवा और कुछ रह ही नही जाता। भगवत्यप्राप्ति रूप ऐसी स्थिति को भगवान् में एकीभाव से स्थित होना कहते हैं।
- ↑ जैसे भाप, बादल, कुहरा, बूंद और बर्फ आदि में सवत्र जल भरा है, वैसे ही सम्पूर्ण चराचर विश्व में एक भगवान् ही परिपूर्ण हैं-इस प्रकार जानना और प्रत्यक्ष देखना ही सब भूतों में स्थित भगवान् को भजना है।
- ↑ जिस पुरुष को भगवान् श्रीवासुदेव की प्राप्ति हो गयी है, उसको प्रत्यक्षरूप से सब कुछ वासुदेव की दिखलायी देता है। ऐसी अवस्था में उस भक्त के शरीर, वचन और मन से जो कुछ भी क्रियाएं होती हैं, उसकी दृष्टि में सब एकमात्र भगवान् के ही साथ होती हैं। वह हाथों से किसी की सेवा करता है तो वह भगवान् की ही सेवा करता है, किसी को मधुर वाणी से सुख पहुँचाता है तो वह भगवान् को ही सुख पहुँचाता है, किसी को देखता है तो वह भगवान् को ही देखता है, किसी के साथ कहीं जाता है तो वह भगवान् के साथ भगवान् की ओर ही जाता है। इस प्रकार वह जो कुछ भी करता है, सब भगवान् में ही और भगवान् के ही साथ करता है। इसीलिये यह कहा गया है कि सब प्रकार से बरतता हुआ (सब कुछ करता हुआ) भी भगवान् में ही बरतता है।
- ↑ जैसे मनुष्य अपने सारे अङ्गों में अपने आत्मा को समभाव से देखता है, वैसे ही सम्पूर्ण चराचर संसार में अपने आपको समभाव से देखना-अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखना हैं।
- ↑ सर्वत्र आत्मदृष्टि हो जाने के कारण समस्त विराट् विश्व उपर्युक्त योगी का स्वरूप बन जाता है। जगत में उसके लिय दूसरा कुछ रहता ही नहीं। इसलिये जैसे मनुष्य अपने-आपको कभी किसी प्रकार जरा भी दु:ख पहुँचाना नहीं चाहता तथा स्वाभाविक ही निरंतर सुख पाने के लिये ही अथक चेष्टा करता रहता है ओर ऐसा करके न वह कभी अपने पर अपने को कृपा करने वाला मानकर बदले में कृतज्ञता चाहता है, न कोई अहसान करता है और न कअपने-को 'कर्तव्यपरायण' समझकर अभिमान ही करता है, वह अपने सुख की चेष्टा इसीलिये करता है कि उससे वैसा किये बिना रहा ही नहीं जाता, यह उसका सहज स्वभाव होता है; ठीक वैसे ही वह योगी समस्त विश्व को कभी किसी प्रकार किंचित् भी दु:ख न पहुँचाकर सदा उसके सुख के लिये सहज स्वभाव से ही चेष्टा करता है।
- ↑ कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग या ज्ञानयोग आदि साधनों की पराकाष्ठारूप समता को ही यहाँ 'योग' कहा गया है।
- ↑ 'चञ्चलता' चित्त के विक्षेप को कहते हैं। विक्षेप में प्रधान कारण हैं-राग द्वेष। जहाँ राग-देष हैं, वहाँ 'समता' नहीं रह सकती; क्योंकि 'राग-द्वेष' से 'समता' का अत्यंत विरोध है। इसीलिये 'समता' की स्थिति में मन की चञ्चलता को बाधक माना गया है।
- ↑ मन दीपशिखा की भाँति चञ्चल तो है ही, परंतु मथानी के सदृश प्रमथनशील भी है। जैसे दुध-दही मथानी मथ डालती है, वैसे ही मन भी शरीर और इन्द्रियों को बिल्कुल क्षुब्ध कर देता है।
- ↑ यह चञ्चल, प्रमाथी और बलवान् मन तंतुनाग (गोह) के सदृश अत्यंत दृढ़ भी है। यह जिस विषय में रमता है, उसको इतनी मजबूती से पकड़ लेता है कि उसके साथ तदाकार-सा हो जाता है। इसको 'दृढ़' बतलाने का यही भाव है।
- ↑ जैसे बड़े पराक्रमी हाथीपर बार-बार अङ्कुश-प्रहार होने पर भी कुछ असर नहीं होता, वह मनमानी करता ही रहता है, वैसे ही विवेक रूपी अङ्कुश के द्वारा बार-बार प्रहार करने पर भी यह बलवान् मन विषयों के बीहड़ वन से निकलना नहीं चाहता।
- ↑ जैसे शरीर में निरंतर चलने वाले श्वासोच्छ्वासरूपी वायु के प्रवाह को हठ, विचार, विवेक और बल आदि साधनों के द्वारा रोक लेना अत्यंत कठिन है, उसी प्रकार विषयों में निरंतर विचरने वाले, चञ्चल, प्रथमनशील, बलवान् और दृढ़ मन को रोकना भी अत्यंत कठिन है।
- ↑ मन को किसी लक्ष्य विषय में तदाकार करने के लिये, उसे अन्य विषयों से खींच-खींच कर बार-बार उस विषय में लगाने के लिये किये जाने वाले प्रयत्न का नाम ही अभ्यास है। यह प्रसंग परमात्मा में मन लगाने का है, अतएव परमात्मा को अपना लक्ष्य बनाकर चित्तवृत्तियों के प्रवाह को बार-बार उन्हीं की लगाने का प्रयत्न करना यहाँ 'अभ्यास' है। इसका विस्तार गीता के बारहवें अध्याय के नवें श्लोक में देखना चाहिये।
- ↑ इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण पदार्थों में से जब आसक्ति और समस्त कामनाओं का पूर्णतया नाश हो जाता है, तब उसे 'वैराग्य' कहते हैं।
वैराग्य की प्राप्ति के लिये अनेकों साधन हैं, उनमें से कुछ ये हैं-
- संसार के पदार्थों में विचार के द्वारा रमणीयता, प्रेम और सुख का अभाव देखना।
- उन्हें जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि आदि दु:ख-दोषों से युक्त, अनित्य और भयदायक मानना।
- संसार के और भगवान् के यथार्थ तत्त्व का निरूपण करने वाले सत्-शास्त्रों का अध्ययन करना।
- परम वैराग्यवान् पुरुषों का संग करना, संग के अभाव में उनके वैराग्यपूर्ण चित्र और चरित्रों का स्मरण, मनन करना।
- संसार के टूटे हुए विशाल महलों, वीरान हुए नगरों ओर गांवों के खंडहरों को देखकर जगत् को क्षणभङ्गुर समझना।
- एकमात्र ब्रह्म की ही अखण्ड, अदितीय सत्ता का बोध करके अन्य सबकी भिन्न सत्ता का अभाव समझना।
- अधिकारी पुरुषों के द्वारा भगवान् के अकथनीय गुण, प्रभाव, तत्त्व, प्रेम, रहस्य तथा उनके लीला-चरित्रों का एंव दिव्य सौन्दर्य-माधुर्य का बार-बार श्रवण करना, उन्हें जानना और उन पर पूर्ण श्रद्धा करके मुग्ध होना।
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| साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय
| भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन
| ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन
| प्रकृति और पुरुष का वर्णन
| ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन
| सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन
| भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन
| संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन
| प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन
| दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन
| शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा
| श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन
| आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या
| ओम, तत् और सत् के प्रयोग की व्याख्या
| त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन
| भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन
| फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन
| उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन
| भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन
| गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना
| कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध
| भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध
| शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम
| विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम
| भीष्म द्वारा श्वेत का वध
| भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति
| युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन
| धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना
| कौरव सेना की व्यूह रचना
| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
| भीष्म और अर्जुन का युद्ध
| धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध
| भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध
| भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
| कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति
| धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना
| भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन
| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
| कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण
| भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध
| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
| कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध
| कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध
| अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण
| धृतराष्ट्र की चिन्ता
| भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध
| भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति
| भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन
| कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
| श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़
| द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध
| शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय
| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
| इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय
| भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय
| मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय
| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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