अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 35वें अध्याय में 'अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप को देखने का वर्णन' दिया गया है, जो इस प्रकार है[1]-

अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का दर्शन एवं उसका वर्णन करना

श्रीकृष्‍ण भगवान के उस शरीर में एक जगह स्थित देखकर अर्जुन प्रकाशमय विश्वरूप परमात्‍मा को श्रद्धा-भक्तिसहित सिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला। अर्जुन बोले- हे देव! मैं आपके शरीर में सम्‍पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को[2] और सम्‍पूर्णऋषियों को तथा दिव्‍य सर्पों को देखता हूँ।[3] हे सम्‍पूर्ण विश्व के स्‍वामिन! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनंत रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अंत को देखता हूं, न मध्‍य को और न आदि को ही। आपको मैं मुकुटयुक्‍त, गदा युक्‍त और चक्रयुक्‍त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुञ्ज, प्रज्‍वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्‍योतियुक्‍त, कठिनता से देखे जाने योग्‍य और सब ओर से अप्रमेयस्‍वरूप देखता हूँ।[1] आप ही जानने योग्‍य परम अक्षर अर्थात परब्रह्म परमात्‍मा हैं, आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। ऐसा मेरा मत है।[4] आपको आदि, अंत और मध्‍य से रहित, अनंत सामर्थ्‍य से युक्‍त, अनंत भुजा वाले,[5] चन्‍द्र-सूर्यरूप नेत्रों वाले,[6] प्रज्‍वलित अग्निरूप मुख वाले और अपने तेज से इस जगत को संतप्‍त करने हुए देखता हूँ। हे महात्‍समन! यह स्‍वर्ग और पृथ्‍वी के बीच का सम्‍पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएं एक आपसे ही परिपूर्ण हैं एवं आपके इस अलौकिक और भयं‍कर रूप को देखकर तीनों लोक अति व्‍यथा को प्राप्‍त हो रहे हैं। वे ही देवताओं के समूह आप में प्रवेश करते हैं और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुणों का उच्‍चारण करते हैं।[7] तथा महर्षि और सिद्धों के समुदाय ‘कल्‍याण हो’ ऐसा कहकर उत्त्‍म-उत्तम स्‍तोत्रों द्वारा आपकी स्‍तुति करते हैं।[8] जो ग्‍यारह रुद्र और बारह आदित्य तथा आठ वसु, साध्‍यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गण[9] और पितरों का समुदाय तथा गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते हैं। हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले, बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले, बहुत उदरों वाले और बहुत-सी दाढ़ों के कारण अत्‍यंत विकराल महान रूप को देखकर सब लोग व्‍याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्‍याकुल हो रहा हूँ। क्‍योंकि हे विष्‍णों! आकाश को स्‍पर्श करने वाले, देदीप्‍यमान, अनेक वर्णों से युक्‍त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाश मान विशाल नेत्रों से युक्‍त आपको देखकर भयभीत अन्‍त:करण वाला मैं धीरज और शांति नहीं पाता हूँ। दाढ़ों के कारण विकराल और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्‍वलित आपके मुखों को देखकर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसलिये हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्‍न हों।[10][11]

वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आपमें प्रवेश कर रहे हैं[12] और भीष्‍म पितामह, द्रोणाचार्य[13] तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब-के-सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दातों के बीच में लगे हुए दिख रहे हैं। जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह स्‍वाभाविक ही समुद्र के ही सम्‍मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके प्रज्‍वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।[14] जैसे पतंग मोहवश नष्‍ट होने के लिये प्रज्‍वलित अग्नि में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिये आपके मुखों में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे है।[15] आप उन सम्‍पूर्ण लोकों को प्रज्‍वलित मुखों द्वारा ग्रास करते हुए सब ओर से बार-बार चाट रहे हैं। हे विष्‍णो! आपका उग्र प्रकाश सम्‍पूर्ण जगत को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है। संबंध- अर्जुन ने तीसरे और चौथे श्लोकों में भगवान से अपने ऐश्वर्यमय रूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना की थी, उसी के अनुसार भगवान ने अपना वि‍श्वरूप अर्जुन को दिखलाया; परंतु भगवान के इस भयानक उग्र रूप को देखकर अर्जुन बहुत डर गये और उनके मन में इस बात के जाने की इच्‍छा उत्‍पन्‍न हो गयी कि ये श्रीकृष्‍ण वस्‍तुत: कौन है तथा इस महान उग्र स्‍वरूप के द्वारा अब ये क्‍या करना चाहते हैं। इसीलिये वे भगवान से पूछ रहे हैं।[16]

मुझे बतलाइये कि आप उग्ररूप वाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्‍ठ! आपको नमस्‍कार हो। आप प्रसन्‍न होइये। आदिपुरुष आपको मैं विशेषरूप से जानना चाहता हूं, क्‍योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता।[17] संबंध- इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान अपने उग्ररूप धारण करने का कारण बतलाते हुए प्रश्नानुसार उत्तर देते हैं- श्रीभगवान बोले- मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ।[18] इस समय इन लोकों को नष्‍ट करने के लिये प्रवृत्‍त हुआ हूँ।[19] इसलिये जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जायेगा।[20] संबंध- इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देकर अब भगवान दो श्‍लोकों द्वारा युद्ध करने में सब प्रकार से लाभ दिखलाकर अर्जुन को युद्ध के लिये उत्‍साहित करते हुए आज्ञा देते हैं। अ‍तएव तू उठ! यश प्राप्‍त कर और शत्रुओं को जीतकर धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न राज्‍य को भोग।[21] ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही द्वारा मारे हुए है। हे सव्‍यसाचिन्! तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा।[22] द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत-से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार।[23] भय मत कर।[24] निस्‍संदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा। इसलिये युद्ध कर।[25][26]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 10-17
  2. ब्रह्मा और शिव देवों के भी देव हैं तथा ईश्वर कोटि में हैं, इसलिये उनके नाम विशेषरूप से लिये गये हैं। एवं ब्रह्मा को ‘कमल के आसन पर विराजित’ बतलाकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं भगवान विष्‍णु की नाभि से निकले हुए कमल पर विराजित ब्रह्मा को देख रहा हूँ अर्थात उन्‍हीं के साथ आपके विष्‍णुरूप को भी आपके शरीर में देख रहा हूँ।
  3. यहाँ स्‍वर्ग, मर्त्‍य और पाताल-तीनों लोकों के प्रधान-प्रधान व्‍यक्तियों के समुदाय की गणना करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं त्रिभुवनात्‍मक समस्‍त विश्व को आपको शरीर में देख रहा हूँ।
  4. यहाँ अर्जुन ने यह बतलाया है कि जिनका कभी नाश नहीं होता-ऐसे समस्‍त जगत के हर्ता, कर्ता, सर्वशक्तिमान, सम्‍पूर्ण विकारों से रहित, सनातन परम पुरुष साक्षात परमेश्वर आप ही हैं।
  5. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलया है कि आपके इस विराट रूप में मैं जिस ओर देखता हूं, उसी ओर मुझे अगणित भुजाएं दिखलायी दे रही हैं।
  6. इससे अर्जुन यह अभिप्राय व्‍यक्‍त करते हैं कि आपके इस विराट रूप में मुझे सब ओर आपके असंख्‍य मुख दिखलायी दे रहे है; उनमें जो आपका प्रधान मुख है, उस मुख पर नेत्रों के स्‍थान में मैं चन्‍द्रमा और सूर्य को देख रहा हूँ।
  7. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि शेष बचे हुए कितने ही देवता अपनी बहुत देर तक बचे रहने की सम्‍भावना न जानकर डर के मारे हाथ जोड़कर आपके नाम और गुणों का बखान करते हुए आपको प्रसन्‍न करने की चेष्‍टा कर रहे हैं।
  8. इससे अर्जुन ने यह व्‍यक्‍त किया है कि मरीचि, अंगिरा, भृगु आदि महर्षियों के और ज्ञाताज्ञात सिद्धजनों के जितने भी विभिन्‍न समुदाय हैं, वे आपके तत्त्‍व का यथार्थ रहस्‍य जानने वाले होने के कारण आपके इस उग्र रूप को देखकर भयभीत नहीं हो रहे हैं; वरं समस्‍त जगत के कल्‍याण के लिये प्रार्थना करते हुए अनेकों प्रकार के सुंदर भावमय स्‍तात्रों द्वारा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक आपका स्‍तवन कर रहे हैं- ऐसा मैं देख रहा हूँ।
  9. ग्‍यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु और उन्‍चास मरूत्- इन चार प्रकार के देवताओं के समूहों का वर्णन तो गीता के दसवें अध्‍याय के इक्कीसवें और तेईसवें श्लोकों की टिप्‍पणी में तथा अश्विनी कुमारों का ग्‍यारहवें अध्‍याय के छठे श्‍लोक की टिप्‍पणी में किया जा चुका है- वहाँ देखना चाहिये। मन, अनुमंता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु- ये बारह साध्‍यदेवता हैं-

    मनोअनुमंता प्राणश्च नरो यानश्च वीर्यवान्।।
    चित्तिर्हयो नयश्‍चैव हंसो नारायणस्‍तथा।
    प्रभवोअथ विभुश्‍चैव साध्‍या द्वादश जज्ञिरे।। (वायु पुराण 66। 15-16)

    और क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्‍य, काल, काम, धुनि, कुरुवान, प्रभवान और रोचमान-ये दस विश्वेदेव हैं-

    विश्‍वेदेवास्‍तु विश्‍वाया जज्ञिरे दश विश्रुता:।
    क्रतुर्दक्ष: श्रव: सत्‍य: कामो धुनिस्‍तथा।
    कुरूवान् प्रभवाश्‍चैव रोचमानश्च ते दश।। (वायुपुराण 66। 31-32)

  10. यहाँ अर्जुन यह भाव दिखलाते है कि आप समस्‍त देवताओं के स्‍वामी, सर्वव्‍यापी और सम्‍पूर्ण जगत के परमाधार हैं, इस बात को तो मैंने पहले से ही सुन रखा था और मेरा विश्वास भी था कि आप ऐसे ही हैं। आज मैंने आपका वह विराट स्‍वरूप प्रत्‍यक्ष देख लिया। अब तो आपके ‘देवेश’ और जगन्निवास’ होने में कोई संदेह ही नहीं रह गया। एवं प्रसन्‍न होने के लिये प्रार्थना करने का यह भाव है कि ‘प्रभो! आपका प्रभाव तो मैंने प्रत्‍यक्ष देख ही लिया, परंतु आपके इस विराट रूप को देखकर मेरी बड़ी ही शोचनीय दशा हो रही है; मरे सुख, शांति और धैर्य का नाश हो गया है; यहाँ तक कि मुझे दिशाओं का भी ज्ञान नहीं रह गया है। अतएव दया करके अब आप अपने इस विराट स्‍वरूप को शीघ्र समेट लीजिये।
  11. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 18-25
  12. इससे अर्जुन ने यह दिखलाया है कि केवल धृतराष्ट्र के पुत्रों को ही मैं आपके अंदर प्रविष्‍ट करते नहीं देख रहा हूं, उन्‍हीं के साथ मैं उन सब राजाओं के समूहों को भी आपके अंदर प्रवेश करते देख रहा हूं, जो दुर्योधन की सहायता करने के लिये आये थे।
  13. पितामह भीष्‍म और गुरु द्रोण कौरव सेना के सर्वप्रधान महान योद्धा थे। अर्जुन के मत में इनका परास्‍त होना या मारा जाना बहुत ही कठिन था। यहाँ उन दोनों के नाम लेकर अर्जुन यह कह रहे है कि ‘भगवान! दूसरों के लिये तो कहना ही क्‍या है; मैं देख रहा हूं, भीष्‍म और द्रोण-सरीखे महान योद्धा भी आपके भयानक विकराल मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।‘
  14. इस श्लोक में उन भीष्‍म-द्रोणादि श्रेष्ठ शूरवीर पुरुषों के प्रवेश करने का वर्णन किया गया है, जो भगवान की प्राप्ति-के लिये साधन कर रहे थे तथा जिनको बिना ही इच्‍छा के युद्ध में प्रवृत्‍त होना पड़ा था और जो युद्ध में मरकर भगवान को प्राप्‍त करने वाले थे। इसी हेतु से उनको ‘नरलोक के वीर’ कहा गया है। वे भौतिक युद्ध में जैसे महान वीर थे, वैसे ही भगवत्‍प्राप्ति के साधनरूप आध्‍यात्मिक युद्ध में भी काम आदि शत्रुओं के साथ बड़ी वीरता से लड़ने वाले थे। उनके प्रवेश में नदी और समुद्र का दृष्‍टांत देकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे नदियों के जल स्‍वाभाविक ही समुद्र की ओर दौड़ते हैं और अंत में अपने नाम-रूप को त्‍यागकर समुद्र ही बन जाते हैं, वैसे ही ये शूरवीर भक्तजन भी आपकी ओर मुख करके दौड़ रहे हैं और आपके अंदर अभिन्‍न भाव से प्रवेश कर रहे हैं।
    यहाँ मुखों के साथ ‘प्रज्‍वलित’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया गया है कि जैसे समुद्र में सब ओर से जल-ही-जल भरा रहता है और नदियों का जल उसमें प्रवेश करके उसके साथ एकत्‍व को प्राप्‍त हो जाता है, वैसे ही आपके सब मुख भी सब ओर से अत्‍यंत ज्‍योतिर्मय हैं और उनमे प्रवेश करने वाले शूरवीर भक्तजन भी आपके मुखों की महान ज्‍योति में अपने बाह्यरूप को जलाकर स्‍वयं ज्योतिर्मय हो आपमें एकता को प्राप्‍त हो रहे हैं।
  15. इस श्लोक में पिछले बतलाये हुए भक्तों से भिन्‍न उन समस्‍त साधारण लोगों के प्रवेश का वर्णन किया गया है, जो इच्‍छापूर्वक युद्ध करने के लिये आये थे; इसीलिये प्रज्‍वलित अग्नि और पतंगों का दृष्‍टांत देकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे मोह में पड़े हुए पतंग नष्‍ट होने के लिये ही इच्‍छापूर्वक बड़े वेग से उड़-उड़कर अग्नि में प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी आपके प्रभाव को न जानने के कारण मोह में पड़े हुए हैं और अपना नाश करने के लिये ही पतंगों की भाँति दौड़-दौड़कर आपके मुखों में प्रविष्‍ट कर रहे हैं।
  16. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 26-30
  17. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि यह इतना भयंकर रूप जिसमें कौरव पक्ष के और हमारे प्राय: सभी योद्धा प्रत्‍यक्ष नष्‍ट होते दिखलायी दे रह हैं- आप मुझे किसलिये दिखला रहे हैं तथा अब निकट भविष्‍य में आप क्‍या करना चाहते हैं- इस रहस्‍य को मैं नहीं जानता। अतएव अब आप कृपा करके इस रहस्‍य को खोलकर बतलाइये।
  18. इस कथन से भगवान ने अर्जुन के पहले प्रश्‍न का उत्तर दिया है, जिसमें अर्जुन ने यह जानना चाहा था कि आप कौन हैं। भगवान के कथन का अभिप्राय यह है कि में सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन और संहार करने वाला साक्षात परमेश्वर हूँ। अतएव इस समय मुझको तुम इन सबका संहार करने वाला साक्षात काल समझो।
  19. इस कथन से भगवान ने अर्जुन के उस प्रश्‍न का उत्तर दिया है, जिसमें अर्जुन ने यह कहा था कि ‘मैं आपकी प्रवृत्ति-को नही जानता।' भगवान के कथन का अभिप्राय यह है‍ कि इस समय मेरी सारी चेष्‍टाएं इस सब लोगों का नाश करने के लिये ही हो रही हैं, यही बात समझाने के लिये मैंने इस विराट रूप के अंदर तुझको सबके नाश का भयंकर दृश्‍य दिखलाया है।
  20. इस कथन से भगवान ने यह दिखलाया है कि गुरु, ताऊ, चाचे, मामे और भाई आदि आत्‍मीय स्‍वजनों को युद्ध के लिये तैयार देखकर तुम्‍हारे मन में जो कायरता का भाव आ गया है और उसके कारण तुम जो युद्ध से हटना चाहते हो- यह उचित नहीं है; क्‍योंकि यदि तुम युद्ध करके इनको न भी मारोगे, तब भी ये बचेंगे नहीं। इनका तो मरण ही निश्चित है। जब मैं स्‍वयं इनका नाश करने के लिये प्रवृत्‍त हूं, तब ऐसा कोई भी उपाय नहीं है जिससे इनकी रक्षा हो सके। इसलिये तुम को युद्ध से हटना नहीं चाहिये; तुम्‍हारे लिये तो मेरी आज्ञा के अनुसार युद्ध में प्रवृत्त होना ही हितकर है। अपने पक्ष के योद्धागणों का अर्जुन के द्वारा मारा जाना सम्‍भव नहीं है, अतएव ‘तुम न मारोगे तो भी वे तो मरेंगे ही’ ऐसा कथन उनके लिये नहीं बन सकता। इसीलिये भगवान ने यहाँ केवल कौरव पक्ष के वीर के विषय में कहा है। इसके सिवा अर्जुन को उत्‍साहित करने के लिये भी भगवान के द्वारा ऐसा कहा जाना युक्तिसंगत है। भगवान मानो यह समझा रहे हैं कि शत्रुपक्ष के जितने भी योद्धा हैं, वे सब एक तरह से मरे ही हुए हैं; उन्‍हें मारने में तुम्‍हें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ेगा।
  21. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि इस युद्ध में तुम्‍हारी विजय निश्चित है; अतएव शत्रुओं को जीतकर धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न महान राज्‍य का उपभोग करो और दुर्लभ यश प्राप्‍त करो, इस अवसर को हाथ से न जाने दो।
  22. जो बायें हाथ से भी बाण चला सकता हो, उसे ‘सव्‍यसाची’ कहते हैं। यहाँ भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि तुम तो दोनों ही हाथों से बाण चलाने में अत्‍यंत निपुण हो, तुम्‍हारे लिये इन शूरवीरों पर विजय प्राप्‍त करना कौन-सी बड़ी बात है। फिर इन सबको तो वस्‍तुत: तुम्‍हे मारना ही पड़ेगा, तुमने प्रत्‍यक्ष देख ही लिया कि सब-के-सब मेरे द्वारा पहले ही मारे हुए है। तुम्‍हारा तो सिर्फ नामभर होगा। अतएव अब तुम इन्‍हें मारने में जरा भी हिचको मत। मार तो मैंने रखा ही है, तुम केवल निमित्तमात्र बन जाओ। निमित्तमात्र बनने के लिये कहने का एक भाव यह भी है कि इन्‍हें मारने पर तुम्‍हें किसी प्रकार का पाप होगा, इसकी भी सम्‍भावना नहीं है; क्‍योंकि तुम तो क्षात्रधर्म के अनुसार कर्तव्‍यरूप से प्राप्‍त युद्ध में इन्‍हें मारने में एक निमित्‍त भर बनते हो। इससे पाप की बात तो दूर रही, तुम्‍हारे द्वारा उलटा क्षात्रधर्म का पालन होगा। अतएव तुम्‍हें अपने मन में किसी प्रकार का संशय न रखकर, अहंकार और ममता से रहित होकर उत्‍साहपूर्वक युद्ध में ही प्रवृत्त होना चाहिये।
  23. द्रोणाचार्य धनुर्वेद तथा अन्‍याय शस्त्रास्त्र-प्रयोग की विद्या में अत्‍यंत पारंगत और युद्धकला में परम निपुण थे। यह बात प्रसिद्ध थी कि जब तक उनके हाथ में शस्त्र रहेगा, तब तक उन्‍हें कोई भी मार नहीं सकेगा। इस कारण अर्जुन उन्‍हें अजेय समझते थे और साथ ही गुरु होने के कारण अर्जुन उनको मारना पाप भी मानते थे। भीष्म पितामह की शूरता जगत प्रसिद्ध थी। परशुराम सरीखे अजेय वीर को भी उन्‍होंने छका दिया था। साथ ही पिता शांतनु का उन्‍हें यह वरदान था कि उनकी बिना इच्‍छा के मृत्‍यु भी उन्‍हें नहीं मार सकेगी। इन सब कारणों से अर्जुन की यह धारणा थी कि पितामह भीष्म पर विजय प्राप्‍त करना सहज कार्य नहीं है, इसी के साथ-साथ वे पितामह का अपने हाथों वध करना पाप भी समझते थे। उन्‍होंने कई बार कहा भी हैं, मैं इन्‍हें नहीं मारना चाहता। जयद्रथ स्‍वयं बड़े वीर थे और भगवान शंकर के भक्त होने के कारण उनसे दुर्लभ वरदान पाकर अत्‍यंत दुर्जय हो गये थे। फिर दुर्योधन की बहिन दु:शला के स्‍वामी होने से ये पाण्‍डवों के बहनोई भी लगते थे। स्‍वाभाविक ही सौजन्‍य और आत्‍मीयता के कारण अर्जुन उन्‍हें भी मारने में हिचकते थे। कर्ण को भी अर्जुन किसी प्रकार भी अपने से कम वीर नहीं मानते थे। संसार भर में प्रसिद्ध था कि अर्जुन के योग्‍य प्रतिद्वन्‍द्वी कर्ण ही हैं। ये स्‍वयं बड़े ही वीर थे और परशुराम जी के द्वारा दुर्लभ शस्त्रविद्या इन्‍होंने अध्‍ययन किया था। इसीलिये इन चारों के पृथक-पृथक नाम लेकर और इनके अतिरिक्त भगदत्त, भूरिश्रवा और शल्य प्रभृति जिन-जिन योद्धाओं को अर्जुन बहुत बड़े वीर समझते थे और जिन पर विजय प्राप्‍त करना आसान नहीं समझते थे, उन सबका लक्ष्‍य कराते हुए उन सबको अपने द्वारा मारे हुए बतलाकर और उन्‍हें मारने के लिये आज्ञा देकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि तुमको किसी पर भी विजय प्राप्‍त करने में किसी प्रकार का भी संदेह नहीं करना चाहिये। ये सभी मेरे द्वारा मारे हुए है। साथ ही इस बात का भी लक्ष्‍य करा दिया है कि तुम जो इन गुरुजनों को मारने में पाप की आशंका करते थे, वे भी ठीक नहीं है; क्‍योंकि क्षत्रियधर्मानुसार इन्‍हें मारने के जो तुम निमित्त बनोगे, इससे तुम्‍हें कोई भी पाप नहीं होगा, वरं धर्म का ही पालन होगा। अतएव उठो और इन पर विजय प्राप्‍त करो।
  24. इससे भगवान ने अर्जुन को आश्वासन दिया है कि मेरे उग्ररूप को देखकर तुम जो इतने भयभीत और व्‍यथित हो रहे हो, यह ठीक नहीं है। मैं तुम्‍हारा प्रिय वही कृष्ण हूँ। इसलिये तुम न तो जरा भी भय करो और न संतप्‍त ही होओ।
  25. अर्जुन के मन में जो इस बात की शंका थी कि न जाने युद्ध में हम जीतेंगे या हमारे ये शत्रु ही हमको जीतेंगे (गीता 2:6), उस शंका को दूर करने के लिये भगवान ने ऐसा कहा है। भगवान के कथन का अभिप्राय यह है कि युद्ध में निश्चय ही तुम्‍हारी विजय होगी, इसलिये तुम्‍हें उत्‍साहपूर्वक युद्ध करना चाहिये।
  26. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 31-34

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संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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