- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 90वें अध्याय में 'अलम्बुष द्वारा इरावान के वध' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
दुर्योधन का अलम्बुष से इरावान के वध लिये कहना
संजय कहते हैं- राजन! इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों को मार गिराया देख दुर्योधन भयभीत हो उठा और वह अत्यन्त क्रोध में भरकर दीखने वाले राक्षस ऋष्यश्रुंग पुत्र (अलम्बुष) के पास दौड़ा गया। वह राक्षस शत्रुओं का दमन करने में समर्थ, मायावी और महान धनुर्धर था। पूर्वकाल में किये गये वकासुर वध के कारण वह भीमसेन का वैरी बन बैठा था। उसके पास जाकर दुर्योधन ने कहा- वीर! देखो, अर्जुन का यह बलवान पुत्र बड़ा मायावी है। इसने मेरा अप्रिय करने के लिए मेरी सेना का संहार कर डाला है। तात! तुम इच्छानुसार चलने वाले तथा मायामय अस्त्रों के प्रयोग में कुशल हो। कुन्तीकुमार भीम ने तुम्हारे साथ वैर भी किया है। अतः तुम युद्ध में इस इरावान को अवश्य मार डालों।
अलम्बुष तथा इरावान का युद्ध
‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहकर वह भयानक दिखायी देने वाला राक्षस सिंहनाद करके जहाँ नवयुवक अर्जुन कुमार इरावान था, उस स्थान पर गया। उसके साथ निर्मल प्राप्त नामक अस्त्र से युद्ध करने वाले संग्राम कुशल तथा प्रहार करने में समर्थ वीरों से युक्त बहुत सी सेनाएँ थीं। उसके सभी सैनिक सवारियों पर बैठ हुए थे। उन सबसे घिरा हुआ वह समरभूमि में महाबली इरावान को मार डालने की इच्छा से युद्ध स्थल में गया। महाराज! मरने से बचे हुए दो हजार उत्तम घोड़े उसके साथ थे। शत्रुओं का नाश करने वाला पराक्रमी इरावान भी क्रोध में भरा हुआ था। उसने उसे मारने की इच्छा रखने वाले उस राक्षस का बड़ी उतावली के साथ निवारण किया। इरावान् को आते देख उस महाबली राक्षस ने शीघ्रतापूर्वक माया का प्रयोग आरम्भ किया। उसने मायामय दो हजार घोडे़ उत्पन्न किये, जिनपर शूल और पट्टिश धारण करने वाले भयंकर राक्षस सवार थे। वे दो हजार प्रहार कुशल योद्धा क्रोध में भरे हुए आकर इरावान के सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे। इस प्रकार दोनों ओर के योद्धाओं ने परस्पर प्रहार करके शीघ्र ही एक दूसरे को यमलोक पहुँचा दिया।[1] इस प्रकार जब दोनों ओर की सेनाएँ मार डाली गयी, तब युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले वे दोनों वीर इरावान तथा अलम्बुष राक्षस ही युद्धभूमि में वृत्रासुर और इन्द्र के समान डटे रहे। रणदुर्मद राक्षस अलम्बुष को अपने ऊपर धावा करते देख महाबली इरावान भी क्रोध में भरकर उसके ऊपर टूट पड़ा। एक बार जब वह दुर्बुद्धि राक्षस बहुत निकट आ गया, तब इरावान ने अपने खडंग से उसके देदीप्यमान धनुष और माथे को शीघ्र ही काट डाला। धनुष को कटा हुआ देख वह राक्षस क्रोध में भरे हुए इरावान को अपनी माया से मोहित-सा करता हुआ बड़े वेग से आकाश में उड़ गया। तब इरावान् भी आकाश में उछलकर उस राक्षस को अपनी मायाओं से मोहित करके उसके अंगों को सायकों द्वारा छिन्न-भिन्न करने लगा। वह कामरूपधारी श्रेष्ठ राक्षस सम्पूर्ण मर्मस्थानों को जानने वाला और दुर्जय था। वह बाणों से कटने पर भी पुनः ठीक हो जाता था।
महाराज! वह नयी जवानी प्राप्त कर लेता था; क्योंकि राक्षसों में माया का बल स्वाभाविक होता है और वे इच्छानुसार रूप तथा अवस्था धारण कर लेते हैं। इस प्रकार उस राक्षस का जो जो अंग कटता, वह पुनः नये सिरे से उत्पन्न हो जाता था। इरावान भी अत्यन्त कुपित होकर उस महाबली राक्षस को बार बार तीखे फरसे से काटने लगा। बलवान इरावान् के फरसे से छिन्न-भिन्न हुआ वह वीर राक्षस घोर आर्तनाद करने लगा। उसका वह शब्द बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। फरसे से बार बार छिदने के कारण राक्षस के शरीर से बहुत सा रक्त बह गया। इससे राक्षस ऋृष्यश्रृंग के बलवान पुत्र अलम्बुष ने समरभूमि में अत्यन्त क्रोध और वेग प्रकट किया। उसने युद्धस्थल में अपने शत्रु को प्रबल हुआ देख अत्यन्त भयंकर एवं विशाल रूप धारण करके अर्जुन के वीर एवं यशस्वी पुत्र इरावान को कैद करने का प्रयत्न आरम्भ किया। युद्ध के मुहाने पर समस्त योद्धाओं के देखते-देखते वह इरावान को पकड़ना चाहता था। उस दुरात्मा राक्षस की वैसी माया देखकर क्रोध में भरे हुए इरावान ने भी माया का प्रयोग आरम्भ किया। संग्राम में पीठ न दिखाने वाला इरावान जब क्रोध में भरकर युद्ध कर रहा था, उसी समय उसके मातृकुल के नागों का समुदाय उसकी सहायता के लिये वहाँ आ पहुँचा।
इरावान का वध
राजन्! रणभूमि में बहुतेरे नागों से घिरे हुए इरावान ने विशाल शरीर वाले शेषनाग की भाँति बहुत बड़ा रूप धारण कर लिया। तदनन्तर उसने बहुत से नागों द्वारा राक्षस को आच्छांदित कर दिया। नागों द्वारा आच्छादित होने पर उस राक्षस राज ने कुछ सोच-विचार कर गरुड़ का रूप धारण कर लिया और समस्त नागों को भक्षण करना आरम्भ किया। जब उस राक्षस ने इरावान् के मातृकुल के सब नागों को भक्षण कर लिया, तब मोहित हुए इरावान् को तलवार से मार डाला। इरावान् के कमल और चन्द्रमा के समान कान्तिमान तथा कुण्डल एवं मुकुट से मण्डित मस्तक को काट कर राक्षस ने धरती पर गिरा दिया। इस प्रकार राक्षस द्वारा अर्जुन के वीर पुत्र इरावान के मारे जाने पर राज दुर्योधन सहित आपके सभी पुत्र शोक रहित हो गये। फिर तो उस भयंकर एवं महान संग्राम में दोनों सेनाओं का अत्यन्त भयंकर सम्मिश्रण हो गया।[2]
दोनो सेनाओं के बीच युद्ध
राजन्! आपके और पाण्डवों के सैनिकों के उस संकुल युद्ध में दोनों पक्षों के मिले हुए हाथी, घोडे़ और पैदल दन्तार हाथियों द्वारा मारे गये। रथ, घोडे़ और हाथियों को पैदल योद्धाओं ने मार गिराया तथा बहुत से पैदल, रथियों के समूह और घुड़सवार रथी योद्धाओं के द्वारा मार डाले गये। अर्जुन को अपने औरस पुत्र इरावान के मारे जाने का पता नहीं लगा था। वे समरांगण में भीष्म की रक्षा करने वाले शूरवीर नरेशों का संहार कर रहे थे। राजन्! इसी प्रकार आपके पुत्र और सैनिक तथा सहस्रों सृंजय वीर समराग्नि में प्राणों की आहुति देते हुए एक दूसरे को मार रहे थे। कवच, रथ और धनुष के नष्ट हो जाने पर बाल बिखेरे हुए बहुतेरे योद्धा परस्पर भिड़कर भुजाओं द्वारा मल्लयुद्ध करने लगे। दूसरी ओर शत्रुओं को संताप देने वाले भीष्म समरांगण में अपने मर्मभेदी बाणों द्वारा पाण्डव सेना को कम्पित करते हुए उसके बड़े-बड़े रथियों को मार रहे थे। उन्होंने युधिष्ठिर की सेना के बहुत से पैदलों, सवारों सहित हाथियों, रथारोहियों और घुड़सवारों को मार डाला। भारत! हमने उस युद्ध में भीष्म का इन्द्र के समान अत्यन्त अद्भूतपराक्रम देखा था। भरतनन्दन! इसी प्रकार उस रणक्षेत्र में भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा धनुर्धर सात्यकि का भयानक युद्ध चल रहा था। द्रोणाचार्य का पराक्रम देखकर तो पाण्डवों के मन में भय समा गया। महाराज! वे युद्धस्थल में द्रोणाचार्य से पीड़ित होकर कहने लगे कि रणभूमि में अकेले द्रोणाचार्य ही समस्त सैनिकों को मार डालने की शक्ति रखते है। फिर जब ये भूमण्डल के सुविख्यात शूरवीर योद्धाओं के समुदायों से घिरे हुए हैं, तब तो इनकी विजय के लिये कहना ही क्या है? भरतश्रेष्ठ! उस भयंकर संग्राम में दोनों सेनाओं के शूरवीर एक दूसरे का उत्कर्ष नहीं सह सके। तात! आपके और पाण्डव पक्ष के महाबली धनुर्धर वीर भूतों से आविष्ट से होकर राक्षसों के समान बनकर क्रोधपूर्वक एक दूसरे से जूझ रहे थे। बडे़-बड़े वीरों का विनाश करने वाले उस दैत्यों के तुल्य संग्राम में हमने किसी को ऐसा नहीं देखा, जो अपने प्राणों की रक्षा कर रहा हो।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 90 श्लोक 42-58
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 90 श्लोक 59-79
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 90 श्लोक 80-93
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