ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 37वें अध्याय में 'ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन करना

सम्बन्ध गीता के बारहवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता के विषय में प्रश्न किया था, उसका उत्तर देते हुए भगवान ने दूसरे श्लोक में संक्षेप्त में सगुण उपासकों की श्रेष्टता का प्रतिपादन करके तीसरे से पांचवे श्लोक तक निर्गुण उपासना का स्वरूप, उसका फल और देहाभिमानियों के लिये उनके अनुष्ठान में कठिनता का निरूपण किया। तदनन्तर छठे से बीसवें श्लोक सगुर्ण उपासना महत्त्व, फल, प्रकार और भगवद्भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते करते ही अध्याय की समाप्ति हो गयी; निर्गुण का तत्त्व, महिमा और उसकी प्राप्ति के साधनों को विस्तार पूर्वक नहींं समझाया गया। अतएव निर्गुण निराकार का तत्त्व अर्थात ज्ञान योग्य विषय भलीभाँति समझने के लिये तेरहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। इसमें पहले भगवान क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के लक्षण बतलाते है- श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’[2] इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’[3] इस नाम से उनके तत्त्वों को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। हे अर्जुन! तु सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान[4] और क्षेत्र-क्षेत्रफल अर्थात विकारसहित प्रकृति का का और पुरुष का जो तत्त्व से जानना है, वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है। सम्बन्ध- क्षेत्र और क्षेत्रफल पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार का नाश हो जाता है। और परमात्मा की प्राप्ति होती है, अतएव ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रफल’ के स्वरूप आदि का भलीभॅाति विभागपूर्वक समझाने के लिये भगवान कहते हैं। वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन-सम्बन्ध तीसरे श्लोक में ‘क्षेत्र’ और क्षेत्रज्ञ में जिस तत्त्व को संक्षेप में सुनने के लिये भगवान ने अर्जुन से कहा- तब उसके विषय में ऋषि, वेद, और ब्रह्मसूत्र की उक्ति का प्रमाण देकर भगवान ऋषि, वेद, और ब्रह्मसूत्र को आदर देते है।[1]

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों द्वारा[5] बहुत प्रकार से कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्ति युक्त ब्रह्मसूत्र पदों द्वारा भी कहा जा सकता है। पाँच महाभूत अंहकार,[6] बुद्धि[7] और मूल प्रकृति[8] भी; तथा दस इंद्रियाँ[9] एक मन[10] और पाँच इन्द्रियों के विषय[11] अर्थात शब्द स्पर्श, रूप, रस और गंध- तथा इच्छा,[12] द्वेष,[13] सुख,[14] दुख,[15] देह का पिण्ड, चेतना,[16] और धृति[17] इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप कहा गया[18] सम्बन्ध इस प्रकार क्षेत्र के स्वरूप और उसके विकारो का वर्णन करने के बाद अब जो दूसरे श्लोक में यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है, उस ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का ‘ज्ञान’ के ही नामसे पाँच श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं। श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना,[19] क्षमा भाव,[20] मन वाणी आदि की सरलता,[21] श्रद्धामुक्ति सहित गुरु की सेवा,[22] बाहर-भीतर की शुद्धि[23] अन्तःकरण की स्थिरता[24] और मन इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह।[25] एक लोक और परलोक के सम्पूर्ण भागों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार बार विचार करना।[26] पुत्र, स्त्री, घर, और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना। मुझे परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति[27] तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना।[28] अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति[29] और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना[30] यह सब ज्ञान है।[31] और जो इससे विपरित हैं, यह अज्ञान[32] है- ऐसा कहा है।

सम्बन्ध- इस प्रकार ज्ञान के साधनों का ‘ज्ञान’ के नाम से वर्णन सुनने पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि इन साधनों द्वारा प्राप्त ‘ज्ञान’ से जानने योग्य वस्तु क्या है और उसे जान लेने से क्या होता है। उसका उत्तर देने के लिये भगवान अब जाने के योग्य वस्तु के स्वरूप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हुए उसके जानने का फल ‘अमरत्व की प्राप्ति’ बतलाकर छः श्लोकों में जानने के योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैं- जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहुँगा। वह अनादि वाला परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता, न असत्।[33]

वह सब ओर हाथ-पैर वाला सब ओर हाथ नेत्र, सिर और मुख वाला और सब ओर कान वाला है;[34] क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं।[35] वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है[36] तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण- पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है।[37] यह चराचर सब भूतों के बाहर- भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है;[38] एवं वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है[39] तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित है।[40] वह परमात्मा विभागरहित एक रूपये आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है।[41] तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है। वह परब्रहा ज्योतियों का भी ज्योति[42] एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्त्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है[43] और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है।[44][45] इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया।[46] मेरा भक्त इसको तत्त्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।[47][48]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-3
  2. जैसे खेत में बोये हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इस शरीर में बोये हुए कर्म-संस्कार रूप बीजों का कुछ भी फल समय पर प्रकट होता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, इसलिये भी इसे ‘क्षेत्र’ कहते है और इसीलिये गीता के पन्द्रहवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में इसका ‘क्षर’ पुरुष कहा गया है।
  3. इसके भगवान ने अंतरात्मा द्रष्टा का लक्ष्य करवाया है। मन, बुद्धि, इंद्रिय, महाभुत और इंद्रियों के विषय आदि जितना भी श्रय (जानने मे आने वाला) दृश्यवर्ग है- सब जड़़, विनाशी, परिर्वतनशील है। चेतन आत्मा उस जड़़ हदयवर्ग से सर्वथा विलक्षण है। यह उसका ज्ञाता है, उसमें अनुस्यूत है और उनका अधिपति है। इसीलिये उसे ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं इसी ज्ञाता को गीता के सातवें अध्याय में ‘परा प्रकृति’ (गीता 7:5) आठवें अध्याय में ‘अध्यात्म’ (गीता 8:9) और पन्द्रवें अध्याय में इसे ‘अक्षर पुरुष’ (गीता 15:16) कहा जाता है। यह आत्मतत्त्व बड़ा ही गहन है, इसी से भगवान ने मित्र-मित्र प्रकरणों के द्वारा कहीं-कहीं स्त्रीवाचक, कहीं नपुंसकवाचक, कहीं पुरुषवाचक नाम से इनका वर्णन किया है। वास्तव में आत्माविकार से सर्वथा, रहित, अलिंग, नित्य, निर्विकार एवं चेतन-ज्ञानस्वरूप है।
  4. इसकी ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ की एकता का प्रतिवादन किया। आत्मा और परमात्मा में वस्तुतः कुछ भी भेद नहींं है, प्रकृति के संग से भेद-सा प्रतीत होता है; इसलिये गीता के दूसरे अध्याय के चौबीसवें और पच्चीसवें श्लोकों में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए जिन शब्दों का प्रयोग किया है, बारहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में निर्गुण-निराकार परमात्मा के लक्षणों का वर्णन करते समय भी प्रायः उन्हीं के भावों के घोतक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
  5. मंत्रों के द्रष्टा एवं शास्त्र और स्मृतियों के रचयिता ऋषिगणों ने ‘क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ’ के स्वरूप को और उनसे सम्बन्ध रखने वाली सभी बातों को अपने अपने ग्रन्थों में और पुराण- इतिहास बहुत प्रकार से वर्णन करके विस्तारपूर्वक समझाया है; उन्हीं का सार यहाँ बहुत थोड़े शब्दों में भगवान कहते हैं।
  6. यह समष्टि अंत कारण एक भेद है। अहंकार ही पंचतन्मात्राओं, मन और समस्त इंद्रियों का कारण तथा महत्तत्त्व का कार्य है। इसी को ‘अंहभाव’ भी कहते हैं। यहाँ अहंकार शब्द उसी का वाचक है।
  7. जिसे ‘महत्तत्त्व’ (महान) और समष्टि बुद्धि भी कहते हैं, जो समष्टि अन्त:करण का एक भेद है, निश्चय ही जिसका स्वरूप है- उसको यहाँ 'बुद्धि' कहा गया है।
  8. यहाँ अव्यक्त का अर्थ मूल प्रकृति समझना चाहिये, जो महत्तत्त्व आदि समस्त पदार्थों की कारणरूपा है, सांख्यशास्त्र में जिसको प्रधान कहते हैं, भगवान ने गीता के चौदहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में जिसकी महद्ब्रहा कहा है तथा इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में जिसको प्रकृति नाम दिया गया है।
  9. वाक्, पाणि(हाथ), पाद (पैर), उपस्थ और गुदा पाँच कर्मेन्द्रियाँ है। तथा श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, और घ्राण यह पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है। यह सब मिलकर दस इन्द्रियाँ हैं। इन सबका कारण अहंकार है।
  10. यहाँ एक शब्द से उस मन को ही बतलाया गया है। जो समष्टि अन्तःकरण मनन करने वाली शक्ति-विशेष है, संकल्प-विकल्प ही जिसका स्वरूप है। वे भी अहंकार का कार्य है।
  11. यहाँ ‘पंच इन्द्रियगोचराः’ पदों का अर्थ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध समझना चाहिये, जो कि पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के स्थूल विषय है। यह सूक्ष्म भूतों के कार्य हैं।
  12. जिन पदार्थाें को मनुष्य सुख के हेतु और दुःखनाशक समझता है। उन को प्राप्त करने की आप्तियुक्त जो कामना है- जिसे वासना, तृणा, आशा, लालसा, और स्पृहा आदि अनेक भेद है- उसी का वाचन यहाँ इच्छा शब्द है।
  13. जिन पदार्थों को मनुष्य दुख में हेतु या सुख में बाधक समझता है। उनमें जो विरोध बुद्धि होती है- उसका नाम द्वेष हैं। इसके स्थूल रूप वैर, ईर्ष्या, घृणा और क्रोध आदि है।
  14. अनुकूल की प्राप्ति और प्रतिकूल की निवृति से अन्तःकरण में जो प्रसन्नता की वृति होती है, उसका नाम ‘सुख’ है।
  15. प्रतिकूल प्राप्ति और अनुकूल के विनाश से जो अन्तःकरण में जो व्याकुलता होती है, जिसे व्यथा भी कहते हैं- उसका वाचन ‘दुख’ है।
  16. अन्तः करण में जो ज्ञान शक्ति है, जिसके द्वारा प्राणी सुख दुख और समस्त पदार्थाें का अनुभव करते हैं, जिसे गीता के दसवें अध्याय में बाईसवें श्लोक मे ‘चेतना’ कहा गया है। -उसी का वाचक यहाँ ‘चेतना’ है, ये भी अंत:करण की वृति विशेष है; अतएव इसकी भी गणना क्षेत्र के विकारों मे की गयी है।
  17. गीता के अठारवें अध्याय में तैंतीसवें, चौंतीसवें, और पैंतीसवें श्लोक में जिस धारण शक्ति के सात्त्विक, राजस और तामस- तीन भेद किये गये हैं, उसी का वाचन यहाँ ‘धृति’ है। अन्तः करण का विकार होने से इसकी गणना भी क्षेत्र के विकारों मे की गयी है।
  18. यहाँ तक विकारों सहित क्षेत्र का संक्षेप्त में वर्णन हो गया है, अर्थात पाँचवें श्लोक में क्षेत्र का स्वरूप संक्षेप में बतला दिया गया और छठे में उस के विकारों का वर्णन संक्षेप में कर दिया गया है।
  19. किसी भी प्राणी मन वाणी या शरीर से किसी प्रकार की कमी कष्ट देना- मन से किसी का बुरा चाहना, वाणी से किसी को गाली देना, कठोर वचन कहना, किसी की निंदा करना, या अन्य किसी प्रकार के दुःख दायक और अहित-कारक वचन कह देना; शरीर से किसी को मारना, कष्ट पहुँचाना या किसी प्रकार से भी हानि पहुँचाना आदि जो हिंसा के भाव हैं, इन सबके सर्वदा अभाव का नाम ‘अहिंसा’ अर्थात किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना है।
  20. अपना अपराध करने वाले के लिये किसी भी प्रकार भी दण्ड देने का भाव मन में न रखना, उससे बदला लेने की अथवा अपराध के बदले उसे इस लोक या परलोक में दण्ड मिले- ऐसी इच्छा न रखना और उसके अपराधों को वस्तुतः अपराध ही न मानकर उन्हें सर्वथा भुला देना ‘क्षमाभाव’ है। गीता के दसवें अध्याय के चौथें श्लोक में इसकी कुछ विस्तार से व्याख्या की गयी है।
  21. जिस साधक में मन, वाणी और शरीर की सरलता का भाव पूर्ण रूप से आ जाता है, वह सबके साथ सरलता का व्यवहार करता है; उसमें कुटिलता का सर्वथा अभाव हो जाता है। अर्थात उसके व्यवहार में दाव-पेंच, कपट या टेड़ापन जरा भी नहींं रहता; वह बाहर और भीतर ने समान और सरल रहता है।
  22. विद्या और सदुपदेश देने वाले गुरु का नाम ‘आर्चाय’ ऐसे गुरु के पास रहकर श्रद्धा- भक्तिपूर्वक, मन,वाणी और शरीर के द्वारा सब प्रकार से उनको सुख पहुँचाने की चेष्टा करना, नमस्कार करना, उनकी आज्ञाओं का पालन करना और उनके अनुकुल आचरण करना आदि ‘आचार्योपासन’ यानि गुरु सेवा है।
  23. सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की शुद्धि होती है, उस द्रव्य से उपार्जित अन्न से आहार की शुद्धि होती है। यथायोग्य शुद्ध बर्ताव से आचरणों की शुद्धि होती है। और जल- मिट्टी आदि के द्वारा प्रक्षालनादि क्रिया से शरीर की शुद्धि होती है। यह सब बाहर की शुद्धि है। राग- द्वेष, छल, कपट, आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि है। दोनों ही प्रकार की शुद्धि को ‘शौच’ कहा जाता है।
  24. बड़े-से-बड़े कष्ट, विपत्ति या दुःख के आ पड़ने पर भी विचलित न होना एवं काम, क्रोध, भय, लोभ, आदि से किसी भी प्रकार अपने धर्म और कर्तव्य से जरा भी न डिगना तथा मन और बुद्धि में किसी तरह की चंचलता का न रहना ‘अन्तःकरण की स्थिरता’ है।
  25. यहाँ आत्मा से अन्तःकरण और इन्द्रियों के के सहित शरीर को समझना चाहिए। अतः इन सब को भली-भाँति अपने वश में कर लेना ही इसका निग्रह करना है।
  26. जन्म का कष्ट सहज नहींं है; पहले तो असहाय जीव को माता के गर्भ में लंबे समय तक भाँति-भाँति के क्लेश होते हैं, फिर जन्म के समय योनि द्वार से निकलनें में असह्य यन्त्रणा भोगनी पड़ती है। नाना प्रकार की योनी में बार बार जन्म ग्रहण करने में ये जन्म-दुःख होते हैं। मृत्युकाल में भी महान कष्ट होता है। जिस शरीर और घर में आजीवन ममता रही, उसे बलात्कार से छोड़कर जाना पड़ता है। मरणसमय के निराश नेत्रों को और शारीरिक पीड़ा को देखकर उस समय की यंत्रणा का बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। बुढ़ापे की यन्त्रणा भी कम नहींं होती है; इन्द्रियाँ शिथिल और शक्तिहीन हो जाती है। है, शरीर जर्जर हो जाता है। मन में नित्य लालसा की तरंगें उछलती रहती है, असहाय अवस्था हो जाती है। ऐसी अवस्था में जो कष्ट होता है, यह बड़ा ही भयानक होता है। इसी प्रकार बीमारी की पीड़ा भी बड़ी दुःखदायिनी होती है। शरीर क्षीण हो गया, नाना प्रकार के असह्य कष्ट हो रहे हैं, दूसरो की अधीनता हैं। निरूपाय स्थिति है। यही सब जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि के दुःख है। इन दुःखों का बार बार स्मरण करना और इन पर विचार करना ही इनमें दुःखों का देखना है। जीवों का जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, प्राप्त होते हैं, पापों के परिणामस्वरूप; अतएव ये चारों ही दोषमय है। इसी का बार बार विचार करना इनमें दोषों को देखना है।
  27. भगवान ही सर्वश्रेष्ठ है और वे ही हमारे स्वामी, शरण ग्रहण करने योग्य, परमगति, परम आश्रय, माता- पिता, भाई-बन्धु, परम हितकारी, परम आत्मीय और सर्वस्व हैं; उनको छोड़कर हमारा अन्य कोई भी नहींं है- इस भाव से जो भगवान के साथ अनन्य सम्बन्ध है, उसका नाम ‘अनन्य योग’ है। तथा इस प्रकार के सम्बन्ध से केवल भगवान में ही अटल और पूर्ण विशुद्ध प्रेम करके निरन्तर भगवान का ही भजन, ध्यान करते रहना ही अनन्य योग के द्वारा भगवान में अव्यभि-चारिणी भक्ति करना है।
  28. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 4-10
  29. आत्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी है; उससे भिन्न जो नाशवान, जड़, विकारी और परिवर्तनशील वस्तुएँ प्रतीत होती हैं- वे सब अनात्मा हैं, आत्मा का उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, शास्त्र और आचार्य के उपदेश से इस प्रकार आत्मतत्त्व को भली-भाँति समझ लेना ही ‘अध्यात्मज्ञान’ है और बुद्धि में ठीक वैसा ही दृड़ निश्चय करके मन से उस आत्मतत्त्व को नित्य-निरन्तर मनन करते रहना ‘अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थित रहना’ है।
  30. तत्त्व ज्ञान का अर्थ है- सच्चिदानन्दधन पूर्ण ब्रह्म परमात्मा; क्योंकि तत्त्वज्ञान से उन्हीं की प्राप्ति होती है। उन सच्चिदानंदघन गुणातीत परमात्मा का सर्वत्र समभाव से नित्य-निरन्तर अनुभव करते रहना ही उस अर्थ का दर्शन करना है।
  31. ‘अमानित्वम्’ से लेकर ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ तक जिनका वर्णन किया गया है, वे सभी ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं, इसीलिये उनका नाम भी ‘ज्ञान’ रखा गया है। अभिप्राय यह है कि दूसरे श्लोक में भगवान ने जो यह बात कही है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है- इस कथन से कोई ऐसा न समझ ले कि शरीर का नाम ‘क्षेत्र’ और इसके अंदर रहने वाला ज्ञाता आत्मा का नाम ‘क्षेत्रफल’ है- यह बात हमने समझ ही ली; बस, हमें ज्ञान प्राप्त हो गया; किंतु वास्तव में सच्चा ज्ञान वही है जो उपर्युक्त बीस साधनों के द्वारा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के स्वरूप को यथार्थ रूप से जान लेने पर होता है। इसी बात को समझाने के लिये यहाँ साधनों को ‘ज्ञान’ के नाम से कहा गया है। अतएव ज्ञानी में उपयुक्त गुणों का समावेश पहले से ही होना आवश्यक है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि ये सभी गुण सभी साधकों में एक ही समय में हो। अवश्य ही, इनमें जो ‘अमानित्व’, ‘अदम्भित्व’ आदि बहुत से सबके उपयोगी गुण हैं, वे तो सबमें रहते ही हैं। इनके अतिरिक्त ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’, ‘एकान्तदेशसेवित्व’, ‘अध्यात्मज्ञाननित्यत्व’, ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शन’- इनमें अपनी-अपनी साधन शैली के अनुसार विकल्प भी हो सकता है।
  32. उपर्युक्त अमानित्वादि गुणों से विपरीत जो मान-बढ़ाई कामना, दम्भ, हिंसा, क्रोध, कपट, कुटिलता, द्रोह, अपवित्रता, अस्थिरता, लोलुपता, आसक्ति, अहंता, ममता, विषमता, अश्रद्धा, और कुसंग आदि दोष है, वे सभी जन्म-मृत्यु के हेतु भूत अज्ञान को बढ़ाने वाले और जीवन का पतन करने वाले हैं; इसलिये वे सब अज्ञान ही हैं। अतएव उन सबका सर्वथा त्याग करना चाहिए।
  33. जो वस्तु प्रमाणों द्वारा सिद्ध की जाती है, उसे ‘सत्’ कहते है स्वतः प्रमाण नित्य अविनाशी परमात्मा किसी भी प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता ; क्योंकि परमात्मा से ही सबकी सिद्धि होती है, परमात्मा तक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है। वह प्रमाणों द्वारा जानने में आने वाली वस्तुओं से अत्यन्त विलक्षण हैं, इसलिये परमात्मा को ‘सत्’ नहीं कहा जा सकता तथा जिस वस्तु का वास्तव में अस्तित्व नहीं होता, उसे ‘असत्’ कहते है; किंतु परब्रह्म परमात्मा का अस्तित्व नहीं है, ऐसी बात नहीं है। वह अवश्य है और वह है- इसी से अन्य सब को होना भी सिद्ध होता है; अतः उसे ‘असत्’ भी नहीं कहा जा सकता। इसीलिये परमात्मा ‘सत्’ और ‘असत्’ दोनों से ही परे हैं। यद्यपि गीता मे नवम अध्याय के उन्नसीवें श्लोक में तो भगवान ने कहा है कि ‘सत्’ भी में हुँ और ‘असत्’ भी मैं हुँ और यहाँ यह कहते हैं कि उस जानने योग्य परमात्मा को न ‘सत्’ कहा जा सकता है। और न ‘असत्’ ; किंतु यहाँ विधि-मुख से वर्णन है, इसलिये भगवान का कहना है कि ‘सत्’ भी में हूँ और ‘असत्’ भी में हूँ, उचित ही है। पर यहाँ निषेधमुख से वर्णन है, किंतु वास्तव में उस पर ब्रह्म परमात्मा का स्वरूप वाणी के द्वारा न तो विधि मुख से बतलाया जा सकता है और न निषेधमुख से ही। उसके विषय में जो कुछ भी कहा जाता है, सब केवल शाखाचन्द्रन्याय से उसे लक्ष्य कराने के लिये ही है, उसके साक्षात स्वरूप का वर्णन वाणी द्वारा हो ही नहीं सकता। श्रुति भी कहती है- ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ (तैत्तिरीय उप. 2/9) अर्थात ‘मन के सहित वाणी जिसे न पाकर वापस लौट आती है। (वह ब्रह्म ही )’ इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहाँ भगवान निषेधमुख से कहा है कि वह न ‘सत्’ कहा जाता है और न ‘असत्’ ही। अर्थात मैं जिस ज्ञेयवस्तु का वर्णन करना चाहता हूँ, उसका वास्तविक स्वरूप तो मन-वीणा अविषय है; अतः उसका जो कुछ भी वर्णन किया जायगा, उसे उसका तटस्थ लक्षण ही समझना चाहिये।
  34. वह पर ब्रह्म परमात्मा सब ओर हाथ वाला है। उसे कोई भी वस्तु कहीं से भी समर्पण की जाय, वह वहीं से उसे ग्रहण करने में समर्थ है। इसी तरह वह सब जगह पैर वाला है। कोई भी भक्त कहीं से उस के चरणों में प्रणामादि करते हैं, वह वहीं उसे स्वीकार कर लेता है। वह सब जगह आँख वाला है उससे कुछ भी छिपा नहीं है। वह सब जगह सिर-वाला है। यहाँ कहीं भी भक्त लोग उसका सत्कार करने के उद्देश्य पुष्प आदि उसके मस्तक पर चढ़ाते हैं, वे सब ठीक उस पर चढ़ते हैं। वह सब जगह मुख वाला है। उसके भक्त जहाँ भी उसको खाने की वस्तु समर्पण करते हैं, वह वहीं उस वस्तु को स्वीकार कर सकता है। अर्थात वह ज्ञेयस्वरूप परमात्मा सबका साक्षी, सब कुछ देखने वाला तथा सबकी पूजा और भोग स्वीकार करने की शक्ति वाला है। वह परमात्मा सब जगह सुनने की शक्ति वाला है। जहाँ कहीं भी उसके भक्त उसकी स्तुति करते हैं या उसे प्रार्थना अथवा याचना करते हैं, उन सबको वह भलीभाँति सुनता है।
  35. आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण होने से उनको व्याप्त किये हुए स्थित है, उसी प्रकार वह ज्ञेयस्वरूप परमात्मा भी इस चराचर जीवसमूह सहित समस्त जगत का कारण होने से सबको व्याप्त किये हुए स्थित है, अतः सब कुछ उसी से परिपूर्ण है।
  36. अभिप्राय यह है कि तेरहवें श्लोक में जो उसको सब जगह हाथ पैर वाला और अन्य सब इन्द्रियों वाला बतलाया गया है, उससे यह बात नहीं समझनी चाहिए। कि वह ज्ञेय परमात्मा अन्य जीवों की भाँति हाथ-पैर आदि इन्द्रियों वाला है; वह इस प्रकार की इन्द्रियों से सर्वथा रहित होते हुए भी सब जगह उन-उन इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में समर्थ है। इसलिये उसको सब जगह सब इन्द्रियों वाला और सब इन्द्रियों से रहित कहा गया है श्रुति मेें भी कहा है- अपाणिपादो जनवो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3।19) ‘वह परमात्मा बिना पैर-हाथ के ही वेग से चलता और ग्रहण करता है तथा बिना नेत्रों के देखता और बिना कानों के ही सुनता है।’
  37. अभिप्राय यह है कि वह परमात्मा सभी गुणों का भोक्ता होते हुए भी अन्य जीवों की भाँति प्रकृति के गुणों से लिप्त नहीं है। वह वास्तव में गुणों से सवर्था अतीत है, तो भी प्रकृति के सम्बन्ध से समस्त गुणों का भोक्ता है। यही उसकी अलौकिकता है।
  38. वह परमात्मा चराचर भूतों के बाहर और भीतर भी हैं, इससे कोई यह बात न समझ ले कि चराचर भूत उससे भिन्न होंगे। इसी को स्पष्ट करने के लिये कहते हैं कि चराचर भूत भी वही है। अर्थात जैसे बरफ के बाहर-भीतर भी जल है और स्वयं बरफ भी वस्तुतः जल ही है,- जल से भिन्न कोई वस्तु पदार्थ नहीं हैं, उसी प्रकार यह समस्त चराचर जगत उस परमात्मा का ही स्वरूप है, उससे भिन्न नहीं हैं।
  39. जैसे सूर्य की किरणों में स्थित परमाणु रूप जल साधारण मनुष्यों के जानने में नहींं आता- उनके लिये वह दुर्विज्ञेय हैं उसी प्रकार वह सर्वव्यापी पर ब्रह्म परमात्मा भी उस परमाणु रूप जल की अपेक्षा भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता; इसलिये वह अविज्ञेय हैं।
  40. सम्पूर्ण जगत में और इसके बाहर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ परमात्मा न हों। इसलिये वह अत्यन्त समीप में भी है और दुर में भी है; क्योंकि जिसको मनुष्य दूर और समीप मानता है, उन सभी स्थानों वह विज्ञानानन्दघन परमात्मा सदा ही परिपूर्ण है। इसलिये इस तत्त्व को समझने वाले श्रद्धालु मनुष्यों के लिये वह परमात्मा अत्यनत समीप है और अश्रद्धालु के लिये अत्यन्त दुर है।
  41. इस वाक्य से उस जानने योग्य परमात्मा के एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि जैसे महाकाश वास्तव में विभागरहित है तो भी समस्त चराचर प्राणियों में क्षेत्रज्ञ रूप से पृथक-पृथक के सदृश स्थित प्रतीत होता है; किंतु यह भिन्नता केवल प्रतीति मात्र ही है, वास्तव में वह परमात्मा एक है और वह सर्वत्र परिपूर्ण है।
  42. चन्द्रमा, सूर्य, विद्युत, तारे आदि जितनी भी बाह्य ज्योतियाँ हैं; बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ आदि जितनी आध्यात्मिक ज्योतियाँ हैं तथा विभिन्न लोकों और वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता रूप जो देवज्योतियाँ हैं- उन सभी का प्रकाशक वह परमात्मा है। तथा उन सब में जितनी प्रकाशनशक्ति हैं, वह सभी उसी परब्रह्म परमात्मा का एक अंशमात्र हैं।
  43. अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त समानित्वादि ज्ञान-साधनों के द्वारा प्राप्त तत्त्वज्ञान से वह जाना जाता है।
  44. वह परमात्मा सब जगह समान भाव से परिपूर्ण होते हुए भी, हृदय मे उसकी विशेष अभिव्यक्ति है। जैसे सूर्य का प्रकाश सब जगह समान रूप से विस्तृत रहने पर भी दर्पण आदि में उसके प्रतिबिम्ब की विशेष अभिव्यक्ति होती है एवं सूर्यमुखी शीशें में उसका तेज प्रत्यक्ष प्रकट होकर अग्नि उत्पन्न कर देता है, अन्य पदार्थों में उस प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं होती, उसी प्रकार हृदय उस परमात्मा की उपलब्धि का स्थान है। ज्ञानी के हृदय में तो वह प्रत्यक्ष ही प्रकट है। यही बात समझाने के लिये उसको सबके हृदय में विशेष से स्थित बतलाया गया है।
  45. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 11-17
  46. इस अध्याय में पाँचवें और छठें श्लोकों में विकारों सहित क्षेत्र के रूप का वर्णन किया गया है, सातवें से ग्यारहवें श्लोक तक ज्ञान के नाम से ज्ञान के बीस साधनों का और बारहवें से सत्रहवें तक ज्ञेय अर्थात जानने योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
  47. क्षेत्र को प्रकृति कार्य, जड़, विकारी, अनित्य और नाशवान समझना, ज्ञान के साधनों को भलीभाँति धारण करना और उसके द्वारा भगवान के निर्गुण, सगुण रूप को भलीभाँति समझ लेना- यही क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को जानना है तथा उस ज्ञेयस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाना ही भगवान के स्वरूपों को प्राप्त हो जाना है।
  48. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 18-20

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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