कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन

संजय धृतराष्ट्र से कृष्ण के द्वारा अर्जुन को कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा को समझाने का वर्णन करते हैं, अब कृष्ण अर्जुन को कर्तव्यकर्म की आवश्यकताओं के विषय में बताते हुये स्वधर्म के पालन की महिमा का वर्णन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 27वें अध्याय में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

कृष्ण का अर्जुन से कर्तव्यकर्म की आवश्यकता और स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन

सम्‍बन्‍ध– दूसरे अध्‍याय में भगवान ने अशोच्‍यानन्‍वशोचस्‍त्‍वम्[2] से लेकर देही नितयमवध्‍योऽयम्[3] तक आत्‍मत्त्‍व का निरूपण करते हुए सांख्‍ययोग का प्रतिपादन किया और बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु[4] से लेकर तदा योगमवाप्‍स्‍यसि[5] तक समबुद्धि रूप कर्मयोग का वर्णन किया। इसके पश्चात् चौवनवें श्‍लोक से अध्‍याय की समाप्त‍ि पर्यन्‍त अर्जुन के पूछने पर भगवान ने समबुद्धि रूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को प्राप्‍त हुए स्थितप्रज्ञ सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्त्‍व का प्रतिपादन किया। वहाँ कर्मयोग की महिमा कहते हुए भगवान ने सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्‍लोकों में कर्मयोग का स्‍वरूप बतलाकर अर्जुन को कर्म करने के लिये कहा, उन्चासवें में समबुद्धि रूप कर्मयोगी की अपेक्षा सकाम कर्म का स्‍थान बहुत-ही नीचा बतलाया, पचासवें में सम‍बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में लगने के लिये कहा, इक्‍यावनवें में समबुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को अनामय पद् की प्राप्ति बतलायी। इस प्रसंग को सुनकर अर्जुन उसका यथार्थ अभिप्राय निश्चित नहीं कर सके। बुद्धि शब्‍द का अर्थ ज्ञान मान लेने से उन्‍हें भ्रम हो गया, भगवान के वचनों में कर्म की अपेक्षा ज्ञान की प्रशंसा प्रतीत होने लगी एवं वे वचन उनको स्‍पष्ट न दिखाई देकर मिले हुए से जान पड़ने लगे। अतएव भगवान से उनका स्‍पष्टीकरण करवाने की और अपने लिये निश्चित श्रेयासाधन जानने की इच्‍छा से अर्जुन पूछते हैं।

अर्जुन बोले– हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्‍ठ मान्‍य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्‍यों लगाते हैं? आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे है।[6] इसलिये उस एक बात को निश्चित करके कहिये, जिससे में कल्‍याण को प्राप्त हो जाऊँ। सम्‍बन्‍ध– इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान उनका निश्चित कर्तव्‍य भक्तिप्रधान कर्मयोग बतलाने के उद्देश्‍य से पहले उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि मेरे वचन व्‍यामिश्र अर्थात मिले हुए नहीं हैं वरं सर्वथा स्‍पष्ट और अलग अलग हैं।

श्रीभगवान बोले– हे निष्‍पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा पहले कही गयी है। उनमें से सांख्‍ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से[7] और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से[8] होती है। मनुष्‍य न तो कर्मों का आरम्‍भ किये बिना निष्‍कर्मता को यानि योगनिष्‍ठा को प्राप्‍त होता है और न कर्मों के केवल त्‍याग मात्र से सिद्धि यानि सांख्‍यनिष्ठा को ही प्राप्‍त होता है।[9] नि:संदेह कोई भी मनुष्‍य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्‍योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्‍य किया जाता है।[10] सम्‍बन्‍ध– पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि कोई भी मनुष्‍य क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता; इस पर यह शंका होती है कि इन्द्रियों की क्रियाओं को हठ से रोककर भी तो मनुष्‍य कर्मों का त्‍याग कर सकता है। इस पर कहते हैं– जो मूढबुद्धि मनुष्‍य समस्‍त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्‍तन करता रहता है, वह मिथ्‍याचारी अर्थात दम्‍मी कहा जाता है।[1]

किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्‍त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है। सम्‍बन्‍ध– अर्जुन ने यह पूछा था कि आप मुझे घोर कर्म में क्‍यों लगाते हैं, उसके उत्तर में ऊपर से कर्मों का त्‍याग करने वाले मिथ्‍याचारी की निन्‍दा और कर्मयोगी की प्रशंसा करके अब उन्‍हें कर्म करने के लिये आज्ञा देते है– तू शास्त्रविहित कर्तव्‍यकर्म कर; क्‍योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है[11] तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा। सम्‍बन्‍ध– यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभकर्म भी तो बन्‍धन के हेतु माने गये हैं; फिर कर्म न करने की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ कैसे है; इस पर कहते हैं– यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्‍य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिये हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्यकर्म कर। सम्‍बन्‍ध– पूर्व श्लोक में भगवान ने यह बात कही की यज्ञ के निमित्त कर्म करने वाला मनुष्‍य कर्मों से नहीं बँधता; इसलिये यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि यज्ञ किसको कहते है, उसे क्‍यों करना चाहिये और उसके लिये कर्म करने वाला मनुष्‍य कैसे नहीं बँधता। अतएव इन बातों को समझाने के लिये भगवान ब्रह्मा जी के वचनों का प्रमाण देकर कहते हैं– प्रजापति ब्रह्मा ने कल्‍प के आदि में यज्ञसहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ[12] तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो। तुम लोग यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्‍नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्‍नत करें। इस प्रकार नि:स्‍वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्‍नत करते हुए तुम लोग परम कल्‍याण को प्राप्‍त हो जाओगे।[13] यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्‍छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्‍वयं भोगता है, वह चोर ही है।[14] यज्ञ से बचे हुए अन्‍न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्‍न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं। सम्‍बन्‍ध– यहाँ यह जिज्ञास होती है कि यज्ञ न करने से क्‍या हानि है; इस पर सृष्टि चक्र को सुरक्षित रखने के लिये यज्ञ की आवश्‍यकता का प्रतिपादन करते हैं। सम्‍पूर्ण प्राणी अन्‍न से उत्‍पन्‍न होते हैं। अन्‍न की उत्‍पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहितकर्मों से उत्‍पन्‍न होने वाला है। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्‍पन्‍न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्‍पन्‍न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्‍यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।[15]

हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्‍परा से प्रचलित सृष्टिचक्र[16] के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्‍य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों मे रमण करने वाला पापायु पुरुष व्‍यर्थ ही जीता है। परंतु जो मनुष्‍य आत्‍मा में ही रमण करने वाला और आत्‍मा में ही तृप्त तथा आत्‍मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्‍य नहीं है।[17] क्‍योंकि उस महापुरुष को इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्‍पूर्ण प्राणियों में भी इसका किचिंतमात्र भी स्‍वार्थ का सम्‍बन्‍ध नहीं रहता। सम्‍बन्‍ध– यहाँ तक भगवान ने बहुत-से हेतु बतलाकर यह बात सिद्ध की कि जब तक मनुष्‍य को परमश्रेय रूप परमात्मा की प्राप्ति न हो जाये, तब तक उसके लिये स्‍वधर्म का पालन करना अर्थात अपने वर्णाश्रम के अनुसार विहितकर्मों का अनुष्ठान नि:स्‍वार्थ भाव से करना अवश्‍य कर्तव्‍य है और परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लिये किसी प्रकार का कर्तव्‍य न रहने पर भी उसके मन इन्द्रियों द्वारा लोक संग्रह के लिये प्रारम्‍भानुसार कर्म होते हैं। अब उपर्युक्त वर्णन का लक्ष्‍य कराते हुए भगवान अर्जुन को अनासक्त भाव से कर्तव्‍य कर्म करने के लिये आज्ञा देते हैं– इसलिये तू निरन्‍तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्‍य कर्म को भलीभाँति करता रहा; क्‍योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्‍य परमात्मा को प्राप्‍त हो जाता है। जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे।[18] इसलिये तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्‍य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है।[19] सम्‍बन्‍ध– पूर्व श्लोक में भगवान ने अर्जुन को लोकसंग्रह की ओर देखते हुए कर्मों का करना उचित बतलाया; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि कर्म करने से किस प्रकार लोकसंग्रह होता है; अत: यही बात समझाने के लिये कहते हैं–

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्‍य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं,[20] समस्‍त मनुष्‍य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्‍य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्‍य वस्‍तु अप्राप्‍त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। क्‍योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाये; क्‍योंकि मनुष्‍य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।[21] इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्‍य नष्ट भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्‍त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।[22] इसलिये हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म कर[23] परमात्मा के स्‍वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह शास्‍त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बु‍द्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्‍पन्‍न न करें; किंतु स्‍वयं शास्त्रविहित समस्‍त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावें।[24][25]

वास्‍तव में सम्‍पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, तो भी जिसका अन्‍त:करण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी मैं कर्ता हूँ ऐसा मानता है।[26] परंतु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्म विभाग के तत्त्व को जानने वाला[27] ज्ञानयोगी सम्‍पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। प्रकृति गुणों से अत्‍यन्‍त मोहित हुए मनुष्‍य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्‍दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे।[28] सम्‍बन्‍ध– अर्जुन की प्रार्थना के अनुसार भगवान ने उसे एक निश्चित कल्‍याण कारक साधन बतलाने के उद्देश्‍य से; चौथे श्‍लोक से लेकर यहाँ तक यह बात सिद्ध है कि मनुष्‍य किसी भी स्थिति में क्‍यों न हो, उसे अपने वर्ण, आश्रम, स्‍वभाव और परिस्थिति के अनुरूप विहित कर्म करते रहना चाहिये। इस बात को सिद्ध करने के लिये पूर्व श्‍लोकों में भगवान ने क्रमश: निम्‍नलिखित बातें कहीं हैं–

  1. कर्म किये बिना नैष्‍कर्म्‍य सिद्धि रूप कर्मनिष्ठा नहीं मिलती।[29]
  2. कर्मों का त्‍याग कर देने मात्र से ज्ञाननिष्ठा सिद्ध नहीं होती।[30]
  3. एक क्षण के लिये भी मनुष्‍य स्‍वर्था कर्म किये बिना नहीं रह सकता।[31]
  4. बाहर से कर्मों का त्‍याग करके मन से विषयों का चिन्‍तन करते रहना मिथ्‍याचार है। [32]
  5. मन इन्द्रियों को वश में करके निष्‍काम भाव से कर्म करने वाला श्रेष्ठ है।[33]
  6. कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है।[34]
  7. बिना कर्म किये शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता।[35]
  8. यज्ञ के लिये किये जाने वाले कर्म बन्‍धन करने वाले नहीं, बल्कि मुक्ति के कारण हैं।[36]
  9. कर्म करने के लिये प्रजापति की आज्ञा है और नि:स्‍वार्थ भाव से उसका पालन करने से श्रेय की प्राप्ति होती है।[37]
  10. कर्तव्‍य का पालन किये बिना भोगों का उपभोग करने वाला चोर है।[38]
  11. कर्तव्‍य पालन करके यज्ञशेष से शरीर निर्वाह के लिये भोजनदि करने वाला सब पापों से छूट जाता है।[39]
  12. जो यज्ञादि न करके केवल शरीर पालन के लिये भोजन पकाता है, वह पापी है।[40]
  13. कर्तव्‍य कर्म के त्‍याग द्वारा सृष्टि चक्र में बाधा पहुँचाने वाले मनुष्‍य का जीवन व्‍यर्थ और पापमय है।[41]
  14. अनासक्ति भाव से कर्म करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।[42]
  15. पूर्वकाल में जनकादि ने भी कर्मों द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी।[43]
  16. दूसरे मनुष्य श्रेष्ठ महापुरुष का अनुकरण करते हैं, इसलिये श्रेष्ठ महापुरुष को कर्म करना चाहिये।[44]
  17. भगवान को कुछ भी कर्तव्‍य नहीं है, तो भी वे लोकसंग्रह के लिये कर्म करते हैं।[45]
  18. ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्‍य नहीं है, तो भी उसे लोकसंग्रह के लिये कर्म करना चाहिये।[46]
  19. ज्ञानी को स्‍वयं विहितकर्मों का त्‍याग करके या कर्मत्‍याग उपदेश देकर किसी प्रकार भी लोगों को कर्तव्‍य कर्म से विचलित न करना चाहिये वरं स्‍वयं कर्म करना और दूसरों से करवाना चाहिये।[47]
  20. ज्ञानी महापुरुष को उचित है कि विहितकर्मों का स्‍वरूपत: त्‍याग करने का उपदेश देकर कर्मासक्त मनुष्‍यों को विचलित न करें।[48]

इस प्रकार कर्मों की आवश्‍यक कर्तव्‍यता का प्रतिपादन करके अब भगवान अर्जुन की दूसरे श्‍लोक में की हुई प्रार्थना के अनुसार उसे परम कल्‍याण की प्राप्ति का ऐकान्तिक और सर्वश्रेष्ठ निश्चित साधन बतलाते हुए युद्ध के लिये आज्ञा देते हैं– मुझ अर्न्‍तयामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्‍पूर्ण कर्मों का मुझमें अर्पण करके[49] आशारहित, ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर। जो कोई मनुष्‍य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्‍पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।[50]

परंतु जो मनुष्‍य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्‍पूर्ण ज्ञानो में मोहित और नष्ट हुए ही समझ। सम्‍बन्‍ध- पूर्व श्‍लोक में यह बात कही गयी कि भगवान के मत अनुसार न चलने वाला नष्ट हो जाता है। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यदि कोई भगवान के मत के अनुसार कर्म न करके हठपूर्वक कर्मों का सर्वथा त्‍याग कर दे तो क्‍या हानि है? इस पर कहते हैं– सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्‍त होते हैं अर्थात अपने स्‍वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं।[51] ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर इसमें किसी का हठ क्‍या करेगा? सम्‍बन्‍ध– इस प्रकार सबको प्रकृति के अनुसार कर्म करने पड़ते हैं, तो फिर कर्मबन्‍धन से छूटने के लिये मनुष्‍य को क्‍या करना चाहिये? इस जिज्ञासा पर कहते हैं–

इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्‍येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्‍य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्‍योंकि वे दोनों ही इसके कल्‍याण मार्ग में विघ्न[52] करने वाले महान शत्रु हैं। सम्‍बन्‍ध – यहाँ अर्जुन के मन में यह बात आ सकती है कि मैं यह युद्ध रूप घोर कर्मन करके यदि भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करता हुआ शान्तिमय कर्मों में लगा रहूँ तो सहज ही रागद्वेष से छूट सकता हूँ; फिर आप मुझे युद्ध करने के लिये आज्ञा क्‍यों दे रहे हैं; इस पर भगवान कहते हैं– अच्‍छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है।[53] अपने धर्म में तो मरना भी कल्‍याण कारक है[54] और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। सम्‍बन्‍ध– मनुष्‍य का स्‍वधर्म पालन करने में ही कल्‍याण है, परधर्म का सेवन और निषिद्ध कर्मों का आचरण करने में सब प्रकार से हानि है। इस बात को भलीभाँति समझ लेने के बाद भी मनुष्‍य अपने इच्‍छा, विचार और धर्म के विरुद्ध पापाचार में किस कारण प्रवृत्त हो जाते है?[55]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-6
  2. गीता 2:11
  3. गीता 2:30
  4. गीता 2:39
  5. गीता 2:43
  6. भगवान के वचनों का तात्‍पर्य न समझने के कारण अर्जुन को भी भगवान के वचन मिले हुए से प्रतीत होते थे; क्‍योंकि बुद्धियोग की अपेक्षा कर्म अत्‍यन्‍त निकृष्ट है, तू बुद्धि का ही आश्रय ग्रहण कर (गीता 2:49) इस कथन से तो अर्जुन ने समझा कि भगवान ज्ञान की प्रशंसा और कर्मों की निन्‍दा करते हैं और मुझे ज्ञान का आश्रय लेने के लिये कहते हैं तथा बुद्धियुक्त पुरुष पुण्‍य पापों को यहीं छोड़ देता है। (गीता 2:50) इस कथन से यह समझा कि पुण्‍य पाप रूप का समस्‍त कर्मों का स्‍वरूप से त्‍याग करने वाले को भगवान बुद्धियुक्त कहते हैं। इसके विपरित तेरा कर्म में अधिकार है। (गीता 2:47) तू योग में स्थित होकर कर्म कर (गीता 2:48) इन वाक्‍यों से अर्जुन ने यह बात समझी कि भगवान मुझे कर्मों में नियुक्तकर रहे हैं; इसके सिवा निस्त्रैगुण्‍यों भव आत्‍मवान् भव (गीता 2:45) आदि वाक्‍यों से कर्म का त्‍याग और तस्‍माद् युध्‍यस्‍व भारत (गीता 2:18), ततो युद्धाय युज्‍यस्‍व (गीता 2:38), तस्‍माद् योगाय युज्‍यस्‍व (गीता 2:50) आदि वचनों से उन्‍होंने कर्म की प्रेरणा समझी। इस प्रकार उपर्युक्त वचनों में उन्‍हें विरोध दिखायी दिया।
  7. प्रकृति से उत्‍पन्‍न सम्‍पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं (गीता 3:28), मेरा इनसे कुछ भी सम्‍बन्‍ध नहीं है– ऐसा समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली समस्‍त क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से सर्वथारहित हो जाना; किसी भी क्रिया में या उसके फल में किचिंतमात्र भी अर्हता, ममता, आसक्ति और कामना का न रहना तथा सच्‍च‍िदानन्‍द ब्रह्म से अपने को अभिन्‍न समझकर निरन्‍तर परमात्मा के स्‍वरूप में स्थित हो जाना अर्थात ब्रह्मभूत (ब्रह्मस्‍वरूप) बन जाना (गीता 5:24; गीता 6:27)– यह पहली निष्ठा है। इसका नाम ज्ञान निष्ठा है।
  8. वर्ण, आश्रम, स्‍वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्‍य के लिये जिन कर्मों का शास्त्र में विधान है, जिनका अनुष्ठान करना मनुष्‍य के लिये अवश्‍य कर्तव्‍य माना गया है, उन शास्त्रविहीन स्‍वाभाविक कर्मों का न्‍यायपूर्वक, अपना कर्तव्‍य समझकर अनुष्ठान करना; उन कर्मों में और उनके फल में समता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्‍याग करके प्रत्‍येक कर्म की सिद्धि और असिद्धि में तथा उसके फल में सदा ही सम रहना (गीता 2:47-48) एवं इन्द्रियों के भोगों में और कर्मों में आसक्त न होकर समस्‍त संकल्‍पों का त्‍याग करके योगारूढ़ हो जाना (गीता 6:4)– यह कर्मयोग की निष्ठा है। तथा परमेश्‍वर को सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सर्वव्‍यापी, सबके सुहृद् और सबके प्रेरक समझकर और अपने को सर्वथा उनके अधीन मानकर समस्‍त कर्म और उनका फल भगवना के समर्पण करना (गीता 3:30; 9:27-28), उनकी आशा और प्रेरणा के अनुसार उनकी पूजा समझकर जैसे वे करवावें, वैसे ही समस्‍त कर्म करना; उन कर्मों में या उनके फल में किंचितमात्र भी ममता, आसक्ति या कामना न रखना; भगवान के प्रत्‍येक विधान में सदा ही संतुष्ट रहना तथा निरन्‍तर उनके नाम, गुण, प्रभाव और स्‍वरूप का चिन्‍तन करते रहना (गीता 10:9; 12:6; 18:57)- यह भक्तिप्रधान कर्मयोग की निष्ठा है।
  9. कर्मों का आरम्‍भ न करने और कर्मों का त्‍याग करने की बात कहकर अलग-अलग यह भाव दिखाया है कि कर्मयोगी के लिये विहित कर्मों का न करना योगनिष्ठा की प्राप्ति में बाधक है; किंतु सांख्‍ययोगी के लिये कर्मों का स्‍वरूप से त्‍याग कर देना सांख्‍यनिष्ठा की प्राप्ति में बाधक नहीं हैं, किंतु केवल उसी से उसे सिद्धि नहीं मिलती, सिद्धि की प्राप्ति के लिये उसे कर्तापन का त्‍याग करके सच्चिदानन्‍द ब्रह्म में अभेद भाव से स्थित होना आवश्‍यक है। अतएव उसके लिये कर्मों का स्‍वरूपत: त्‍याग करना मुख्‍य बात नहीं हैं, भीतरी त्‍याग ही प्रधान है और कर्मयोगी के लिये स्‍वरूप से कर्मों का त्‍याग न करना विधेय है।
  10. यद्यपि गुणातीत ज्ञानी पुरुष का गुणों से या उनके कार्य से कुछ भी सम्‍बन्‍ध नहीं रहता; अत: वह गुणों के वश में होकर कर्म करता है, यह कहना नहीं बन सकता; तथापि मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि का संघातरूप जो उसका शरीर लोगों की दृष्टि में वर्तमान है, उसके द्वारा उसके और लोगों के प्रारब्‍धानुसार क्रिया का होना अनिवार्य है; क्‍योंकि वह गुणों का कार्य होने से गुणों में अतीत नहीं हैं, बल्कि उस ज्ञानी का शरीर से सर्वथा अतीत हो जाना ही गुणातीत हो जाना है।
  11. इस कथन से भगवान ने अर्जुन से उस भ्रम का निराकरण किया है, जिसके कारण उन्‍होनें यह समझ लिया था कि भगवान के मत में कर्म करने की अपेक्षा उनका न करना श्रेष्ठ है। अभिप्राय यह है कि कर्तव्‍यकर्म करने से मनुष्‍य का अन्‍त:करण शुद्ध होता है तथा कर्तव्‍यकर्मों का त्‍याग करने से वह पाप का भागी होता है एवं निद्रा, आलस्‍य और प्रमाद में फँसकर अधोगति को प्राप्‍त होता है (गीता 14:18); अत: कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना सर्वथा श्रेष्ठ है।
  12. समस्‍त मनुष्‍यों के लिये वर्ण, आश्रम, स्‍वभाव और परिस्थिति के भेद से भिन्‍न-भिन्‍न यज्ञ, दान, तप, प्राणायाम, इन्द्रिय संयम, अध्‍ययन अध्‍यापन, प्रजापालन, युद्ध, कृषि, वाणिज्‍य और सेवा आदि कर्तव्‍य कर्मों से सिद्ध होने वाला जो स्‍वधर्म है– उसका नाम यज्ञ है।
  13. इस कथन से ब्रह्मा जी ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार अपने-अपने स्‍वार्थ का त्‍याग करके एक-दूसरे को उन्‍नत बनाने के लिये अपने कर्तव्‍य का पालन करने से तुम लोग इस सांसारिक उन्‍नति के साथ-साथ परम कल्‍याणरूप मोक्ष को भी प्राप्‍त हो जाओगे। अभिप्राय यह है कि यहाँ देवताओं के लिये तो ब्रह्मा जी का यह आदेश है कि मनुष्‍य यदि तुम लोगों की सेवा, पूजा, यज्ञादि न करें तो भी तुम कर्तव्‍य समझकर उनकी उन्‍नति करो और मनुष्‍यों के प्रति यह आदेश है कि देवताओं की उन्‍नति और पुष्टि के लिये ही स्‍वार्थ त्‍याग पूर्वक देवताओं की सेवा, पूजा, यज्ञादि कर्म करो। इसके सिवा अन्‍य ऋषि, पितर, मनुष्‍य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि को भी नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वधर्म पालन के द्वारा सुख पहुँचाओ।
  14. देवता लोग सृष्टि के आदिकाल से मनुष्‍यों को सुख पहुँचाने के लिये– उनकी आवश्‍यकताओं को पूर्ण करने के निमित्त पशु, पक्षी, औषध, वृक्ष, तृण आदि के सहित सबकी पुष्टि कर रहे हैं और अन्‍न, जल, पुष्‍प, फल, धातु आदि मनुष्‍योपयोगी समस्‍त वस्‍तुएँ मनुष्‍यों को दे रहे हैं; जो मनुष्‍य उन सब वस्‍तुओं को उन देवताओं का ऋण चुकाये बिना– उनका न्‍यायोचित स्‍वत्‍व उन्‍हें अर्पण किये बिना स्‍वयं अपने काम में लाता है, वह चोर होता है।
  15. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 27 श्लोक 7-15
  16. मनुष्‍य के द्वारा की जाने वाली शास्त्रविहित क्रियाओं से यज्ञ होता है, यज्ञ से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्‍न होता है, अन्‍न से प्राणी उत्‍पन्‍न होते हैं, पुन: उन प्राणियों के ही अन्‍तर्गत मनुष्‍य के द्वारा किये हुए कर्मों से यज्ञ और यज्ञ से वृष्टि होती है। इस तरह यह सृष्टि परम्‍परा सदा से चक्र की भाँति चली आ रही है।
  17. उपुर्यक्त विशेषणों से युक्त महापुरुष परमात्मा को प्राप्त है, अतएव उसके समस्‍त कर्तव्‍य समाप्‍त हो चुके हैं, वह कृतकृत्‍य हो गया है; क्‍योंकि मनुष्‍य के लिये जितना भी कर्तव्‍य का विधान किया गया है, उन सबका उद्देश्‍य केवल मात्र एक परम कल्‍याण स्‍वरूप परमात्मा को प्राप्त करना है; अतएव वह उद्देश्‍य जिसका पूर्ण हो गया, उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता, उसके कर्तव्‍य की समाप्ति हो जाती है।
  18. राजा जनक की भाँति ममता, आसक्ति और कामना का त्‍याग करके केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही कर्म करने वाले अश्वपति, इक्ष्वाकु, प्रह्लाद, अम्बरीष आदि जितने भी महापुरुष हो चुके हैं, वे सब प्रधान-प्रधान महापुरुष आसक्तिरहित कर्मों के द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे तथा और भी आज तक बहुत-से महापुरुष ममता, आसक्ति और कामना का त्‍याग करके कर्मयोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त कर चुके हैं; यह कोई नई बात नहीं हैं। अत: यह परमात्मा की प्राप्ति का स्‍वतन्‍त्र और निश्चित मार्ग है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इसके अतिरिक्‍त कर्मों द्वारा जिसका अन्‍त:करण शुद्ध हो जाता है, उसे परमात्मा की कृपा से तत्त्‍वज्ञान अपने आप मिल जाता है (गीता 4:38) त‍था कर्मयोगयुक्त मुनि तत्‍काल ही परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ([[गीता 5:6)– इस कथन से भी इसकी अनादिता सिद्ध होती है।
  19. समस्‍त प्राणियों के भरण पोषण और रक्षण का दायित्‍व मनुष्‍य पर है; अत: अपने वर्ण, आश्रम, स्‍वभाव और परिस्थिति के अनुसार कर्तव्‍यकर्मों का भली-भाँति आचरण करके जो दूसरे लोगों को अपने आदर्श के द्वारा दुगुर्ण दुराचार से हटाकर स्‍वधर्म में लगाये रखना है– यही लोकसंग्रह है अत: कल्‍याण चाहने वाले मनुष्‍य को परम श्रेयरूप परमेश्वर की प्राप्ति के लिये तो आसक्ति से रहित होकर कर्म करना उचित है ही, इसके सिवा लोकसंग्रह के लिये भी मनुष्‍य को कर्म करते रहना उचित है, उसका त्‍याग करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।
  20. श्रेष्ठ पुरुष स्‍वयं आचरण करके और लोगों को शिक्षा देकर जिस बात को प्रामाणिक कर देता है अर्थात लोगों के अन्‍त:करण में विश्वास करा देता है कि अमुक कर्म अमुक मनुष्‍य को इस प्रकार करना चाहिये, उसी के अनुसार साधारण मनुष्‍य चेष्टा करने लग जाते हैं।
  21. बहुत लोग तो मुझे बड़ा शक्तिशाली और श्रेष्ठ समझते हैं और बहुत-से मर्यादा पुरुषोत्तम समझते हैं, इस कारण जिस कर्म को मैं जिस प्रकार करता हूँ, दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी उसे उसी प्रकार करते हैं अर्थात मेरी नकल करते हैं। ऐसी स्थिति में यदि मैं कर्तव्‍यकर्मों की अवहेलना करने लगूँ, उनमें सावधानी के साथ विधिपूर्वक न बरतूँ तो लोग भी उसी प्रकार लग जायँ और ऐसा करके स्‍वार्थ और परमार्थ दोनों से वंचित रह जायँ। अतएव लोगों को कर्म करने की रीति सिखलाने के लिये मैं समस्‍त कर्मों में स्‍वयं बड़ी सावधानी के साथ विधिवत बरतता हूँ, कभी कहीं भी जरा भी असावधानी नहीं करता।
  22. जिस प्रकार कर्तव्‍यभ्रष्ट हो जाने से लोगों में सब प्रकार की संकरता फैल जाती है, उस समय मनुष्‍य भोगपरायण और स्‍वार्थान्‍ध होकर भिन्‍न-भिन्‍न साधनों से एक-दूसरे का नाश करने लग जाते हैं, अपने अत्‍यन्‍त क्षुद्र और क्षणिक सुखोपभोग के लिये दूसरों का नाश कर डालने में जरा भी नहीं हिचकते। इस प्रकार अत्‍याचार बढ़ जाने पर उसी के साथ-साथ नयी-नयी दैवी वि‍पत्तियाँ भी आने लगती हैं, जिनके कारण सभी प्राणियों के लिये आवश्‍यक खान पान और जीवनधारण की सुविधाएँ प्राय: नष्ट हो जाती हैं; चारों ओर महामारी, अनावृष्टि, जल प्रलय, अकाल, अग्निकोप, भूकम्‍प और उल्‍कापात आदि उत्‍पात होने लगते हैं। इससे समस्‍त प्रजा का विनाश हो जाता है। अत: भगवान ने मैं समस्‍त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ इस वाक्‍य से यह भाव दिखलाया है कि यदि मैं शास्त्रविहित कर्तव्‍य कर्मों का त्‍याग कर दूँ तो मुझे उपर्युक्त प्रकार से लोगों को उच्‍छृखंल बनाकर समस्‍त प्रजा का नाश करने में निमित्त बनना पड़े।
  23. स्‍वाभाविक स्‍नेह, आस‍क्ति और भविष्‍य में उससे सुख मिलने की आशा होने के कारण माता अपने पुत्र का जिस प्रकार सच्‍ची हार्दिक लगन, उत्‍साह और तत्‍परता के साथ लालन पालन करती हैं, उस प्रकार दूसरा कोई नहीं कर सकता; इसी तरह जिस मनुष्‍य की कर्मों में और उनसे प्राप्त होने वाले भोगों में स्‍वाभाविक आसक्ति होती है और उनका विधान करने वाले शास्त्रों में जिसका विश्वास होता है, वह जिस प्रकार सच्‍ची लग्‍न से श्रद्धा और विधिपूर्वक शास्‍त्रविहित कर्मों को सांगोपांग करता है, उस प्रकार जिनकी शास्‍त्रों में श्रद्धा और शास्‍त्रविहित कर्मों में प्रवृत्ति नहीं है, वे मनुष्‍य नहीं कर सकते। अतएव यहाँ यथा और तथा का प्रयोग करके भगवान यह भाव दिखलाते हैं कि अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा अभाव होने पर भी ज्ञानी महात्‍माओं को केवल लोकसंग्रह के लिये कर्मासक्त मनुष्‍यों की भाँति ही शास्त्रविहित कर्मों का विधिपूर्वक सांगोपांग अनुष्ठान करना चाहिये।
  24. मनुष्‍यों को निष्‍काम कर्म का और तत्त्‍व ज्ञान का उपदेश देते समय ज्ञानी को इस बात का पूरा ख्‍याल रखना चाहिये कि उसके किसी आचार-व्‍यवहार और उपदेश से उनके अन्‍त:करण में कर्तव्‍य कर्मों के या शास्त्रादि के प्रति किसी प्रकार की अश्रद्धा या संशय उत्‍पन्‍न न हो जाय; क्‍योंकि ऐसा हो जाने से वो कुछ शास्त्रविहित कर्मों का श्रद्धापूर्वक सकामभाव से अनुष्ठान कर रहे हैं, उसका भी ज्ञान के या निष्‍काम भाव के नाम पर परित्‍याग कर देंगे। इस कारण उन्‍नति के बदले उनका वर्तमान स्थिति से भी पतन हो जायेगा। अतएव भगवान के कहने का यहाँ यह भाव नहीं है कि अज्ञानियों को तत्त्‍वज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिये या निष्‍काम भाव का तत्त्‍व नहीं समझना चाहिये, उनका तो यहाँ यही कहना है कि अज्ञानियों के मन में न तो ऐसा भाव उत्‍पन्‍न होने देना चाहिये कि तत्त्‍व ज्ञान की प्राप्ति के लिये या तत्त्‍वज्ञान प्राप्त होने के बाद कर्म अनावश्‍यक है, न यही भाव पैदा होने देना चाहिये कि फल की इच्‍छा न हो तो कर्म करने की जरूरत क्‍या है और न इसी भ्रम में रहने देना चाहिये कि फलासक्तिपूर्वक सकाम भाव से कर्म करके स्‍वर्ग प्राप्त कर लेना ही बड़े से बड़ा पुरुषार्थ है, इससे बढ़कर मनुष्‍य का और कोई कर्तव्‍य ही नहीं है; बल्कि अपने आचरण तथा उपदेशों द्वारा उनके अन्‍त:करण से आसक्ति और कामना के भावों को हटाते हुए उनको पूर्ववत श्रद्धापूर्वक कर्म करने में लगाये रखना चाहिये।
  25. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 27 श्लोक 16-26
  26. वास्‍तव में आत्‍मा का कर्मों से सम्‍बन्‍ध न होने पर भी अज्ञानी मनुष्‍य तेईस तत्त्‍वों के इस संघात में आत्‍माभिमान करके उसके द्वारा किये जाने वाले कर्म से अपना सम्‍बन्‍ध स्‍थापन करके अपने को उन कर्मों का कर्ता मान लेता है– अर्थात मैं निश्चय करता हूँ, मैं संकल्‍प करता हूँ, मैं सुनता हूँ, देखता हूँ, खाता हूँ, पीता हूँ, सोता हूँ, चलता हूँ– इत्‍यादि प्रकार से हरेक क्रिया को अपने द्वारा की हुई समझता है।
  27. त्रिगुणात्‍मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्दियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्‍दादि पाँच विषय इन सबके समुदाय का नाम गुण विभाग है और इनकी परस्‍पर चेष्टाओं का नाम कर्म विभाग है। इन गुण विभाग और कर्म विभाग से आत्‍मा को पृथक अर्थात निर्लेप जानना ही इनका तत्त्‍व जानना है।
  28. कर्मों में लगे हुए अधिकारी सकाम मनुष्‍यों को कर्म अत्‍यन्‍त ही परिश्रम साध्‍य हैं, कर्मों में रखा ही क्‍या है, यह जगत मिथ्‍या है, कर्ममात्र ही बन्‍धन के हेतु हैं ऐसा उपदेश देकर शास्त्रविहित कर्मों से हटाना या उनमें उनकी श्रद्धा और रुचि कम कर देना उचित नहीं है; क्‍योंकि ऐसा करने से उनके पतन की सम्‍भावना है।
  29. गीता 3:4
  30. गीता 3:4
  31. गीता 3:5
  32. गीता 3:6
  33. गीता 3:7
  34. गीता 3:8
  35. गीता 3:8
  36. गीता 3:9
  37. गीता 3:10-11
  38. गीता 3:12
  39. गीता 3:13
  40. गीता 3:13
  41. गीता 3:16
  42. गीता 3:19
  43. गीता 3:20
  44. गीता 3:21
  45. गीता 3:22
  46. गीता 3:25
  47. गीता 3:26
  48. गीता 3:29
  49. सर्वान्‍तयामी परमेश्‍वर के गुण, प्रभाव और स्‍वरूप को समझकर उन पर विश्‍वास करने वाले और निरन्‍तर सर्वत्र उनका चिन्‍तन करते रहने वाले चित्त के द्वारा जो भगवान को सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सर्वव्‍यापी, सर्वज्ञ, सर्वेश्‍वर तथा परम प्राप्‍य, परम गति, परम हितैषी, परम प्रिय, परम सुहृद और परम दयालु समझकर, अपने अन्‍त:करण और इन्द्रियों सहित शरीर को, उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों को और जगत के समस्‍त पदार्थों को भगवान के जानकर उन सबमें ममता और आसक्ति का सर्वथा त्‍याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं हैं, भगवान ही सब प्रकार की शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा अपने इच्‍छानुसार यथायोग्‍य समस्‍त कर्म करवा रहें हैं, मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ– इस प्रकार अपने को सर्वथा भगवान के अधीन समझकर भगवान के आज्ञानुसार उन्‍हीं के लिये उन्‍ही की प्रेरणा से जैसे वे करावें वैसे ही समस्‍त कर्मों को कठपुतली की भाँति करते रहना, उन कर्मों से या उनके फल से किसी प्रकार भी अपना मानसिक सम्‍बन्‍ध न रखकर सब कुछ भगवान का समझना– यही अध्‍यात्‍मचित्त से समस्‍त कर्मों को भगवान में समर्पण कर देना हैं।
  50. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 27 श्लोक 27-31
  51. इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिस प्रकार समस्‍त नदियों का जल जो स्‍वाभाविक ही समुद्र की ओर बहता है, उसके प्रवाह को हठपूर्वक रोका नहीं जा सकता; उसी प्रकार समस्‍त प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति के अधीन होकर प्रकृति के प्रवाह में पड़े हुए प्रकृति की ओर जा रहे हैं; इसलिये कोई भी मनुष्‍य हठपूर्वक सर्वथा कर्मों का त्‍याग नहीं कर सकता। हाँ, जिस तरह नदी के प्रवाह को एक ओर से दूसरी ओर घुमा दिया जा सकता है, उसी प्रकार मनुष्‍य अपने उद्देश्‍य का परिवर्तन करके उस प्रवाह की चाल को बदल सकता है यानि राग-द्वेष का त्‍याग करके उन कर्मों को परमात्मा की प्राप्ति में सहायक बना सकता है।
  52. जिस प्रक्रार अपने निश्चित स्‍थान पर जाने के लिये राह चलने वाले किसी मुसा‍फिर को मार्ग में विघ्न करने वाले लुटेरों से भेंट हो जाये और वे मित्रता का सा भाव दिखलाकर और उसके साथी गाड़ीवान आदि से मिलकर उनके द्वारा उसकी विवेकशक्ति में भ्रम उत्‍पन्‍न कराकर उसे मिथ्‍या सुखों का प्रलोभन देकर अपनी बातों में फँसा लें और उसे अपने गन्‍तव्‍य स्‍थान की ओर न जाने देकर उसके विपरित जंगलों में ले जायँ और उसका सर्वस्‍व लूटकर उसे गहरे गड्ढे़ में गिरा दें, उसी प्रकार ये राग-द्वेष कल्‍याण मार्ग में चलने वाले साधक से भेंट करके मित्रता का भाव दिखलाकर उसके मन और इन्द्रियों में प्रविष्‍ट हो जाते हैं और उसकी विवेकशक्ति को नष्‍ट करके तथा उसे सांसारिक विषयभोगों में सुख का प्रलोभन देकर पापाचार में प्रवृत्त कर देते हैं। इससे उसका साधन क्रम नष्‍ट हो जाता है और पापों के फलस्‍वरूप उसे घोर नरकों में पड़कर भयानक दु:खों का उपभोग करना होता है।
  53. वैश्य और क्षत्रिय आदि की अपेक्षा ब्राह्मण के विशेष धर्मों में अहिंसादि सदगुणों की बहुलता है, गृहस्‍थ की अपेक्षा सन्‍यास आश्रम के धर्मों में सदगुणों की बहुलता है, इसी प्रकार शूद्र की अपेक्षा वैश्‍य और क्षत्रिय के कर्म अधिक गुणयुक्त हैं। अत: यह भाव समझना चाहिये कि जो कर्म गुणयुक्त हों और जिनका अनुष्ठान भी पूर्णतया किया गया हो, किंतु वे अनुष्ठान करने वाले के विहित न हों, दूसरों के लिये विहित हों, वैसे परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्‍वधर्म ही अति उत्तम है। जैसे देखने में कुरूप और गुणहीन होने पर भी अपने पति का सेवन करना ही स्‍त्री के लिये कल्‍याणप्रद है; उसी प्रकार देखने में सदगुणों से हीन होने पर तथ अनुष्ठान में अंग वैगुण्‍य हो जाने पर भी जिसके लिये जो कर्म विहित है, वही उसके लिये कल्‍याणप्रद है; फिर जो स्‍वधर्म सर्वगुण सम्‍पन्‍न है और जिसका सांगोपांग पालन किया जाता है, उसके विषय में तो कहना ही क्‍या है?
  54. किसी प्रकार की आपत्ति आने पर मनुष्‍य अपने धर्म से न डिगे और उसके कारण उसका मरण हो जाय तो वह मरण भी उसके लिये कल्‍याण करने वाला हो जाता है।
  55. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 27 श्लोक 32-39

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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