भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 95वें अध्याय में 'भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

भगदत्त का पांडव योद्धाओं के साथ युद्ध

संजय कहते हैं- भारत! भीष्म की आज्ञा से गर्जते हुए मेघ के समान राजा भगदत्त युद्ध के लिये प्रस्तान होते हैं और उन्हें धावा करते देख भीमसेन, अभिमन्यु, राक्षस घटोत्कच, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, सत्यधृति, क्षत्रदेव, चेदिराज धृष्टकेतु, वसुदान और दशार्णराज- ये सभी पाण्डवपक्षीय महारथी क्रोध में भरकर उनका सामना करने के लिये आये। भगदत्त ने भी सुप्रतीक नामक हाथी पर आरूढ़ होकर उन पर धावा किया। फिर तो पाण्डवों का भगदत्त के साथ घोर एवं भयानक युद्ध होने लगा, जो यमराज के राष्ट्र की वृद्धि करने वाला था। महाराज! रथियों द्वारा प्रयुक्त हुए भयंकर वेगशाली तेज बाण हाथियों और रथों पर गिरने लगे। जिनके मस्तक से मद की धारा बहती थी, ऐसे बड़े-बड़े गजराज गजारोहियों द्वारा प्रेरित हो एक दूसरे के पास पहुँचकर निर्भीक होकर परस्पर भिड़ जाते थे। उस महायुद्ध में रोषपूर्ण मदान्ध हाथी अपने दाँतों के अग्रभाग से अथवा दाँतरूपी मूसलों से परस्पर भिड़कर एक दूसरे को विदीर्ण करने लगे। चामरभूषित अश्व प्रासधारी सवारों से संचालित हो तुरंत ही एक दूसरे पर टूट पड़ते थे। उस समय पैदल सिपाही पैदलों द्वारा ही शक्ति और तोमरों से घायल हो सैकड़ों और हजारों की संख्या में धराशायी हो रहे थे। राजन! रथी लोग रथों पर आरूढ़ हो कर्णी, नालीक और सायकों द्वारा समर में वीरों का वध करके सिंहनाद कर रहे थे।

भगदत्त द्वारा भीमसेन पर आक्रमण करना

जब इस प्रकार रोंगटे खड़े कर देने वाला भयंकर संग्राम चल रहा था, उसी समय महाधनुर्धर भगदत्त ने भीमसेन पर धावा किया। वे जिस हाथी पर आरूढ़ थे, उसके कुम्भस्थल से मद की सात धाराएँ गिर रही थी। वह सब ओर से जल के झरने बहाने वाले पर्वत के समान जान पड़ता था। निष्पाप नरेश! भगदत्त सुप्रतीक की पीठ पर बैठकर सहस्रों बाणों की वर्षा करने लगे, मानो देवराज इन्द्र ऐरावत पर आरूढ़ हो जल की धारा गिरा रहे हो। जैसे वर्षा ऋतु में बादल पर्वत के शिखर पर जल की धारा गिराता है, उसी प्रकार राजा भगदत्त भीमसेन पर बाणों की वर्षा करते हुए उन्हें पीड़ित करने लगे। तब महाधनुर्धर भीमसेन ने अत्यन्त कुपित हो अपने बाणों की बौछार से हाथी के पैरों की रक्षा करने वाले सैकड़ों योद्धाओं को मार गिराया। उन सबको मारा गया देख प्रतापी भगदत्त ने कुपित हो उस गजराज को भीमसेन के रथ की ओर बढ़ाया। उनके द्वारा प्रेरित होकर वह गजराज धनुष की प्रत्यन्चा से छोड़े हुए बाण की भाँति शत्रुदमन भीमसेन की ओर बड़े वेग से दौड़ा।

दशार्णराज का गजराज सुप्रतीक को परास्त करना

उस हाथी को आते देख भीमसेन आदि पाण्डव महारथी शीघ्रतापूर्वक उसके चारों और खड़े हो गये। आर्य! केकयराजकुमार, अभिमन्यु, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, शूरवीर दशार्णराज, क्षत्रदेव, चेदिराज धृष्टकेतु तथा चित्रकेतु- ये सभी महाबली वीर रोषावेष में भरकर अपने उत्तम दिव्यास्त्रों का प्रदर्शन करते हुए उस एकमात्र हाथी को क्रोधपूर्वक चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। अनेक बाणों से घायल हुआ वह महान गज रक्तरंजित होकर गेरू आदि धातुओं से विचित्र दिखायी देने वाले गिरिराज के समान सुशोभित हुआ। तदनन्तर दशार्ण देश के राजा भी एक पर्वताकार हाथी पर आरूढ़ हो भगदत्त के हाथी की ओर बढ़े।[1] समरभूमि में अपनी ओर आते हुए उस हाथी को गजराज सुप्रतीक ने उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तट की भूमि समुद्र को आगे बढ़ने से रोके रहती है। महामना दशार्ण नरेश गजराज को रोका गया देख समस्त पाण्डव सैनिक भी साधु-साधु कहकर सुप्रतीक की प्रशंसा करने लगे। नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर प्राग्ज्योतिष नरेश ने कुपित होकर दशार्ण नरेश के हाथी को सामने से चौदह तोमर मारे। जैसे सर्प बाँबी में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार वे तोमर हाथी पर पड़े हुए सुवर्णभूषित श्रेष्ठ कवच को छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही उसके शरीर में घुस गये। भरतश्रेष्ठ! उन तोमरों से अत्यन्त घायल हो वह हाथी व्यथित हो उठा। उसका सारा मद उतर गया और वह बड़े वेग से पीछे की ओर लौट पड़ा। जैसे वायु अपनी शक्ति से वृक्षों को उखाड़ फेंकती है, उसी प्रकार वह हाथी भयानक स्वर में चिग्घाड़ता और अपनी ही सेना को रौंदता हुआ बड़े वेग से भाग चला।[2]

उस हाथी के पराजित हो जाने पर भी पाण्डव महारथी उच्च स्वर से सिंहनाद करके युद्ध के लिये ही खड़े रहे। तत्पश्चात् पाण्डव सैनिक भीमसेन को आगे करके नाना प्रकार के बाणों तथा अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए भगदत्त पर टूट पड़े। राजन्! क्रोध में भरकर आक्रमण करने वाले, अमर्षशील उन पाण्डवों का वह घोर सिंहनाद सुनकर महाधनुर्धर भगदत्त ने अमर्षवश बिना किसी भय के अपने हाथी को उनकी ओर बढ़ाया। उस समय उनके अंकुशों और पैर के अँगूठों से प्रेरित हो वह गजराज युद्धस्थल में संवर्तक अग्नि की भाँति भयंकर हो उठा। उस हाथी ने अत्यन्त कुपित होकर रथ के समूहों, हाथियों, घुड़सवारों सहित घोड़ों तथा सैकड़ों-हजारों पैदल सिपाहियों को भी समरांगण में इधर-उधर दौड़ते हुए रौंद डाला। महाराज! उस हाथी के द्वारा आलोडित होकर पाण्डवों की वह विशाल सेना आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो गयी।

भगदत्त और घटोत्कच के बीच युद्ध

बुद्धिमान भगदत्त के द्वारा अपनी सेना में भगदड़ पड़ी हुई देख घटोत्कच ने अत्यन्त कुपित होकर भगदत्त पर धावा किया। राजन्! उस समय वह अत्यन्त भयानक रूप बनाकर रोष से प्रज्वलित सा हो उठा। उसकी आकृति विकट एवं निष्ठुर दिखायी देती थी तथा मुख और नेत्र उज्ज्वल एवं प्रकाशित हो रहे थे। उस महाबली निशाचर ने हाथी को मार डालने की इच्छा से एक निर्मल त्रिशूल हाथ में लिया, जो पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाला था। फिर सहसा उसे चला दिया। वह त्रिशूल चारों ओर से आग की चिनगारियों के समूह से घिरा हुआ था। उसे सहसा अपने ऊपर आते देख प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश भगदत्त ने अत्यन्त भयंकर तीक्ष्ण और सुन्दर एक अर्धचन्द्राकार बाण चलाया। उन वेगवान नरेश ने उक्त बाण के द्वारा उस महान त्रिशूल को काट डाला। वह सुवर्णभूषित त्रिशूल दो टुकड़ों में कटकर ऊपर की ओर उछला। उस समय वह इन्द्र के हाथ से छूटकर आकाश में गिरते हुए महान वज्र के समान सुशोभित हुआ। त्रिशूल को दो टुकड़ों में कटकर गिरा हुआ देख राजा भगदत्त ने आग की लपटों से वेष्टित तथा सुवर्णमय दण्ड से विभूषित एक महाशक्ति हाथ में ली और उसे राक्षस पर चला दिया। फिर वे बोले- खड़ा रह, खड़ा रह।[2] आकाश में प्रकाशित होने वाली अग्नि (वज्र) के समान उस महाशक्ति को गिरती हुई देख राक्षस घटोत्कच ने उछलकर तुरंत ही उसे पकड़ लिया और सिंह के समान गर्जना की। भारत! फिर उसने तुरंत ही राजा भगदत्त के देखते-देखते उस शक्ति को घुटने पर रखकर तोड़ डाला। यह एक अद्भुत सी बात हुई। महाबली राक्षस के द्वारा किये गये इस महान कर्म को देखकर आकाश में खड़े हुए देवता, गन्धर्व और मुनि बड़े विस्मित हुए।

भगदत्त का पराक्रम

महाराज! उस समय भीमसेन आदि पाण्डवों ने वाह-वाह करते हुए अपने सिंहनाद से पृथ्वी को गुँजा दिया। हर्ष में भरे हुए उन महामना वीरों का महान सिंहनाद सुनकर महाधनुर्धर एवं प्रतापी राजा भगदत्त न सह सके। उन्होंने इन्द्र के वज्र की भाँति प्रकाशित होने वाले अपने विशाल धनुष को खींचकर पाण्डव महारथियों को वेगपूर्वक डाँट बतायी। तत्पश्चात् अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले निर्मल और तीखे नाराचों का प्रहार करते हुए एक के द्वारा भीमसेन को घायल किया और नौ बाणों से राक्षस घटोत्कच को बींध डाला। फिर तीन बाणों से अभिमन्यु को और पाँच से केकय राजकुमारों को घायल किया। तत्पश्चात् धनुष को अच्छी तरह खींचकर छोडे़ हुए झुकी हुई गाँठ वाले बाण के द्वारा उन्होंने युद्ध में क्षत्रदेव की दाहिनी बाँह काट डाली। उसके कटने के साथ ही सहसा उनका बाण सहित उत्तम धनुष पृथ्वी पर गिर पड़ा। इसके बाद भगदत्त ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को पाँच बाणों से घायल कर दिया और क्रोधपूर्वक भीमसेन के घोड़ों को मार डाला। फिर तीन बाणों से उनके सिंह चिह्नित ध्वज को काट दिया और अन्य तीन पंखयुक्त बाण मारकर उनके सारथि को भी विदीर्ण कर डाला। भरतश्रेष्ठ! भगदत्त के द्वारा युद्ध में अधिक घायल होकर भीमसेन का सारथी विशोक व्यथित हो उठा और रथ के पिछले भाग में चुपचाप बैठ गया। इस प्रकार रथहीन होने पर रथियों में श्रेष्ठ महाबाहू भीमसेन हाथ में गदा लेकर उस उत्तम रथ से वेगपूर्वक कूद पड़े। भारत! श्रृंगयुक्त पर्वत के समान उन्हें गदा उठाये आते देख आपके सैनिकों के मन में घोर भय समा गया।

महाराज! इसी समय श्रीकृष्ण जिनके सारथी है, वे पाण्डुनन्दन अर्जुन सब ओर से शत्रुओं का संहार करते हुए वहाँ आ पहुँचे, जहाँ वे दोनों पुरुषसिंह महाबली पिता-पुत्र भीमसेन और घटोत्कच भगदत्त के साथ युद्ध कर रहे थे। भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन अर्जुन अपने महारथी भाइयों को युद्ध करते देख स्वयं भी बाणों की वर्षा करते हुए तुरंत ही युद्ध में प्रवृत्त हो गये। तब महारथी राजा दुर्योधन ने बड़ी उतावली के साथ रथ, हाथी और घोड़ों से भरी हुई अपनी सेना को शीघ्र ही युद्ध के लिये प्रेरित किया। कौरवों की उस विशालवाहिनी को आती देख श्वेत घोड़ों वाले पाण्डुपुत्र अर्जुन सहसा बड़े वेग से उसकी ओर दौड़े। भारत! भगतदत्त ने भी समरभूमि में उस हाथी के द्वारा पाण्डव सेना को कुचलते हुए युधिष्ठिर पर धावा किया। आर्य! उस समय हथियार उठाये हुए पांचालों, पाण्डवों तथा केकयों के साथ भगदत्त का बड़ा भारी युद्ध हुआ। भीमसेन ने भी समरभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों को इरावान के वध का यथावत वृत्तान्त अच्छी तरह सुना दिया।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 95 श्लोक 21-43
  2. 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 95 श्लोक 44-64
  3. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 95 श्लोक 65-86

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