उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन

संजय धृतराष्ट्र को सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन करते हैं। अब धृतराष्ट्र संजय से कहते हैं कि 'संजय तुम उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान पर्वत के विषय में भी बताओ?' तब संजय इसका वर्णन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत भीष्म पर्व में जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व के अंतर्गत सप्तम अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]


धृतराष्‍ट्र ने कहा- परमबुद्धिमान् संजय! तुम मेरु के उत्तर तथा पूर्व भाग में जो कुछ है, उसका पूर्ण रूप से वर्णन करो। साथ ही माल्यवान् पर्वत के विषय में भी जानने योग्य बातें बताओ।

संजय द्वारा उत्तर कुरु का वर्णन

संजय ने कहा- राजन्! नीलगिरि से दक्षिण तथा मेरूपर्वत के उत्तर भाग में पवित्र उत्तर कुरु वर्ष है, जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। वहाँ के वृक्ष सदा पुष्‍प और फल से सम्पन्न होते हैं और उनके फल बड़े मधुर एवं स्वा‍दिष्‍ट होते हैं। उस देश के सभी पुष्‍प सुगन्धित और फल सरस होते हैं। नरेश्‍वर! वहाँ के कुछ वृक्ष ऐसे होते हैं, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों के दाता हैं। राजन्! दूसरे क्षीरी नाम वाले वृक्ष हैं, जो सदा षड्विध रसों से युक्त एवं अमृत के समान स्वादिष्‍ट दुग्ध बहाते रहते हैं। उनके फलों में इच्छानुसार वस्त्र और आभूषण भी प्रकट होते हैं। जनेश्‍वर! वहाँ की सारी भूमि मणिमयी है। वहाँ जो सूक्ष्‍म बालू के कण हैं, वे सब सुवर्णमय हैं। उस भूमि पर कीचड़ का कहीं नाम भी नहीं है। उसका स्पर्श सभी ॠतु‍ओं में सुखदायक होता है। वहाँ के सुन्दर सरोवर अत्यन्त मनोरम होते हैं। उनका स्पर्श सुखद जान पड़ता है। वहाँ देवलोक से भूतल पर आये हुए समस्त पुण्‍यात्मा मनुष्‍य ही जन्म ग्रहण करते हैं। ये सभी उत्तम कुल से सम्पन्न और देखने में अत्यन्त प्रिय होते हैं।

वहाँ स्त्री-पुरुषों के जोडे़ भी उत्पन्न होते हैं। स्त्रियां अप्सराओं के समान सुन्दरी होती हैं। उत्तर कुरु के निवासी क्षीरी वृक्षों के अमृत-तुल्य दूध पीते हैं। वहाँ स्त्री-पुरुषों के जोडे़ एक ही साथ उत्पन्न होते और साथ-साथ बढ़ते हैं। उनके रूप, गुण और वेष सब एक-से होते हैं। प्रभो! वे चकवा-चकवी के समान सदा एक-दूसरे के अनुकूल बने रहते हैं। उत्तरकुरु के लोग सदा नीरोग और प्रसन्नचित्त रहते हैं। महाराज! वे ग्यारह हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं। एक दूसरे का कभी त्याग नहीं करते। वहाँ भारुण्ड नाम के महाबली पक्षी हैं, जिनकी चोंचें बड़ी तीखी होती हैं। वे वहाँ के मरे हुए लोगों की लाशें उठाकर ले जाते और कन्दराओं में फेंक देते हैं। राजन्! इस प्रकार मैंने आपसे थोडे़ में उत्तरकुरूवर्ष का वर्णन‍ किया।

भद्राश्‍ववर्ष का वर्णन

अब मैं मेरु के पूर्वभाग में स्थित भद्राश्‍ववर्ष का यथावत् वर्णन करूंगा। प्रजानाथ! भद्राश्‍ववर्ष के शिखर पर भद्रशाल नाम का एक वन है एवं वहाँ कालाम्र नामक महान् वृक्ष भी हैं। महाराज! कालाम्र वृक्ष बहुत ही सुन्दर और एक योजन ऊंचा है। उसमें सदा फूल और फल लगे रहते हैं। सिद्ध और चारण पुरुष उसका सदा सेवन करते हैं। वहाँ के पुरुष श्‍वेत वर्ण के होते हैं। वे तेजस्वी और महान् बलवान् हुआ करते हैं। वहाँ की स्त्रियां कुमुद-पुष्‍प के समान गौर वर्णवाली, सुन्दरी तथा देखने में प्रिय होती हैं। उनकी अङ्गकान्ति एवं वर्ण चन्द्रमा के समान हैं। उनके मुख पूर्ण चन्द्र के समान मनोहर होते हैं। उनका एक-एक अङ्ग चन्द्ररश्मियों के समान शीतल प्रतीत होता है। वे नृत्य ओर गीत की कला में कुशल होती हैं। भरतश्रेष्‍ठ! वहाँ के लोगों की आयु दस हजार वर्ष की होती हैं। वे कालाम्र वृक्ष का रस पीकर सदा जवान बने रहते हैं।[1] नील‍गिरि के दक्षिण और निषध के उत्तर सुदर्शन नामक एक विशाल जामुन का वृक्ष है, जो सदा स्थिर रहने वाला हैं। वह समस्त मनोवाञ्छित फलों को देने वाला, पवित्र तथा सिद्धों और चरणों का आश्रय हैं। उसी के नाम पर यह सनातन प्रदेश जम्बूद्वीप के नाम से विख्‍यात है। भरतश्रेष्‍ठ! मनुजेश्‍वर! उस वृक्षराज की ऊंचाई ग्यारह सो योजन हैं। वह (ऊंचाई) स्वर्गलोक को स्पर्श करती हुई-सी प्रतीत होती हैं। उसके फलों में जब रस आ जाता हैं अर्थात् जब वे प‍क जाते हैं, तब अपने-आप टूटकर गिर जाते हैं। उन फलों की लंबाई ढाई हजार अरत्नि[2] मानी गयी है। राजन्! वे फल इस पृथ्‍वी पर गिरते समय भारी धमाके-की आवाज करते हैं और उस भूतलपर सुवर्णसदृश रस बहाया करते हैं।[3]

जनेश्‍वर! उस जम्बू के फलों का रस नदी के रूप में परिणत होकर मेरूगिरि की प्रदक्षिणा करता हुआ उत्तरकुरूवर्ष मे पहुँच जाता हैं। राजन्! फलों के उस रस का पान कर लेने पर वहाँ के निवासियों के मन में पूर्ण शान्ति और प्रसन्नता रहती हैं। उन्हें पिपासा अथवा वृद्धावस्था कभी नहीं सताती है। उस जम्बू नदी से जाम्बूनद नामक सुवर्ण प्रकट होता है, जो देवताओं का आभूषण है। वह इन्द्रगोप के समान लाल और अत्यन्त चमकीला होता है। वहाँ के लोग प्रात:कालीन सूर्य के समान कान्तिमान् होते हैं। माल्यवान् पर्वत के शिखर पर सदा अग्निदेव प्रज्वलित दिखायी देते हैं। भरतश्रेष्‍ठ! वे वहाँ संवर्तक एवं कालाग्नि के नाम से प्रसिद्ध हैं। माल्यवान् के शिखर पर पूर्व-पूर्व की ओर नदी प्रवाहित होती हैं। माल्यवान् का विस्तार पांच-छ: हजार योजन है। वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिमान् मानव उत्पन्न होते हैं। वे सब लोग ब्रह्मलोक से नीचे आये हुए पुण्‍यात्मा मनुष्‍य हैं। उन सबका सबके प्रति साधुतापूर्ण बर्ताव होता है। वे ऊर्ध्‍वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) होते और कठोर तपस्या करते हैं। फिर समस्त प्राणियों की रक्षा के लिये सूर्यलोक में प्रवेश कर जाते हैं। उनमें से छाछठ हजार मनुष्‍य भगवान् सूर्य को चारो ओर-से घेरकर अरुण के आगे-आगे चलते हैं। वे छाछठ हजार वर्षों तक ही सूर्यदेव के ताप में तपकर अन्त में चन्द्रमण्‍डल में प्रवेश कर जाते हैं।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-18
  2. पहुचीसे लेकर कनिष्ठिका अंगुलि के मूलभाग तक एक मुठी की लंबाई को ‘अरत्नि’ कहते हैं।
  3. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 7 श्लोक 19-32

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
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श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
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भीष्मवध पर्व
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